यह समय साहित्य को मुहलत देने का नहीं, उससे अधिक नैतिक, सक्रिय होने की अपेक्षा का है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह असाधारण समय है, भारतीय सभ्यता के संकट का क्षण है और इस समय साहित्य से कुछ कम की अपेक्षा रखना उसके महत्व और प्रभाव को कम आंकने जैसा होगा. 

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह असाधारण समय है, भारतीय सभ्यता के संकट का क्षण है और इस समय साहित्य से कुछ कम की अपेक्षा रखना उसके महत्व और प्रभाव को कम आंकने जैसा होगा.

(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय: मुझे इस संस्था के बारे में कुछ भी पता नहीं था. पता तब चला जब उसके उपाध्यक्ष और मेरे पुराने परिचित डॉ. भालचंद्र मुणगेकर ने उसकी स्थापना के 125 वर्ष पूरे होने पर आयोजित समारोह में मुझे बोलने के लिए आमंत्रित किया. वहां जाकर पिछले सप्ताह यह पता चला कि वह सिर्फ़ एक बड़ा पुस्तकालय भर नहीं है; उसकी मुंबई में तीस से अधिक शाखाएं हैं; 6 विभाग हैं; उसमें मराठी संशोधन मंडल है; उसमें पुस्तकों, पत्रिकाओं, पांडुलिपियों का बड़ा संग्रह है. एक बाल विकास मंदिर भी कार्यरत है. पुस्तकों के अलावा बच्चों की पत्रिका से लेकर शोध पत्रिका आदि का प्रकाशन भी संस्था करती है.

मराठी साहित्य, विद्वत्ता, शोध सामाजिक कार्य आदि क्षेत्रों के प्रायः सभी मूर्धन्य मराठी हस्तियां इस संस्था से जुड़ी रही हैं. इस समय राजनेता शरद पवार उसके अध्यक्ष हैं.

हिंदी जगत को याद होगा कि इस संस्था की स्थापना के पांच बरस पहले स्थापित काशी में स्थित नागरी प्रचारिणी सभा की दशकों से कैसी दुर्दशा है. वह हिंदी विद्वत्ता, शोध और सृजन आदि के लिए एक अप्रासंगिक और अनुपयोज्य, कुछ लोगों द्वारा हथिया लिए गए मठ की तरह मौजूद और निष्क्रिय है. बहुत से देशी-विदेशी शोधकर्ता शिकायत करते रहते हैं कि वहां से कुछ सामग्री, संदर्भ आदि पा सकना बहुत मुश्किल है. जो विशाल संपदा उसके पास है उसके रख-रखाव में बड़ी ढीलढाल है और अनेक पांडुलिपियां बेहद जर्जर हालत में हैं.

मराठी में उनकी संस्था जीवंत और सक्रिय है: हिंदी में वैसी ही संस्था मृतप्राय है. जिन्हें हिंदी की धरोहर पर छातीपीटू नाज़ है वे कहां हैं?

यही नहीं, हिंदी अंचल की तुलना में मराठी जगत में लेखकों का सम्मान होता है और राजनेता मर्यादा में सौजन्य बरतते और विनम्र व्यवहार करते हैं. शरद पवार पहले से आ गए. लगभग दो घंटे चले कार्यक्रम में बैठे सुनते रहे. स्वयं जब बोले तो उन्होंने मुख्यतः ग्रंथ संग्रहालयों के मराठी क्षेत्र में, निजी पहल पर, हो रहे विस्तार की चर्चा की. उन्हें पुणे जाना था पर उसे रद्दकर वे कार्यक्रम में बैठे रहे.

धवलकेशियों के अलावा, सौभाग्य से, बड़ी संख्या में युवा और छात्र श्रोताओं में थे. सभागार ठसाठस भरा हुआ था. मुख्य रूप से हम दो ही वक्ता थे: मराठी साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े और मैं. वे मराठी में बोले और मैं हिंदी में. श्रोताओं ने दोनों पर उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएं उदारता के साथ व्यक्त कीं.

हिंदी और हिंदी अंचल को दूसरी भारतीय भाषाओं और उनके अंचलों से बहुत कुछ सीखना है. साहित्य और साहित्यकारों को जैसा समर्थन और सम्मान, मराठी-कन्नड़-असमिया-बांग्ला-मलयालम आदि में प्राप्त है वह हर तरह से अनुकरणीय है. हमने यह प्रस्ताव किया है कि मुंबई की इस संस्था के अंतर्गत मराठी और हिंदी साहित्यकारों के बीच निरंतर संवाद की एक श्रृंखला आयोजित की जाए. संग्रहालय सहमत हुआ है.

साहित्य और समय

मैंने इलाहाबाद के हिंदी विभाग में सौंवे वर्ष की शुरुआत और मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय के एक सौ पच्चीस वर्ष पूरे होने पर जो दो वक्तव्य दिए उनका विषय एक ही रखा: हमारा समय और साहित्य. समय और साहित्य पर वैचारिक दृष्टि से विस्तार से विश्लेषण करने के ये अवसर नहीं थे. इतना भर कि साहित्य का समय से संबंध जटिल और निरंतर होता है.

साहित्य समय को व्यक्त-विन्यस्त करता, उससे संवाद और उसका प्रश्नांकन करता, उससे छुटकारा पाता, उसके बरक़्स यानी दिए हुए समय के बरक़्स अपना अलग समय रचता है, कई बार प्रतिसमय. साहित्य में बहुसमयता भी होती है और वह कई अन्य समयों में हमें ले जाता है. वह समय में रहते हुए समयतीत को छूने-स्पंदित करने की चेष्टा भी करता है.

समय साहित्य का संदर्भ है, उसकी सीमा और संभावना भी. ऐसे समय हो सकते हैं जिन्हें साहित्य की दरकार न हो पर ऐसा साहित्य शायद ही होगा जिसे समय की ज़रूरत न हो.

हमारा समय बेहद हिंसक है: घरेलू हिंसा, बाज़ार की हिंसा से लेकर सांप्रदायिक-धार्मिक-जातिपरक हिंसा, धर्मों की हिंसा, मीडिया की हिंसा, भाषिक हिंसा, वाग्हिंसा, अज्ञान की हिंसा. इस हिंसा को बढ़ाने, तेज़ और तीख़ा करने हमारे समय में झूठ और नफ़रत, विद्वेष आदि बहुत सक्रिय और व्यापक हो गए हैं. हम झूठ-घृणा-हिंसा-हत्या-बलात्कार के बुलडोज़री समय में हैं. झूठ फैलाने वाले लोग और संस्थाएं बहुत सक्रिय और व्यापक हैं और, दुर्भाग्य से, झूठों पर यक़ीन करने वालों की संख्या तेज़ी से विकराल हो रही है.

सत्य संकुचित हो रहा है- वह हमारे समय का सबसे निहत्था अल्पसंख्यक है.

मीडिया के एक बड़े हिस्से का, जो साधन-संपन्न और लोकप्रिय है, सत्ता की गोदी में बैठना और सार्वजनिक संवाद की भाषा का लगातार अभद्र और झगड़ालू होते जाना साथ-साथ हुए हैं. अंतःकरण और प्रश्नवाचकता सिर्फ़ राजनीति से नहीं, मीडिया से भी ग़ायब हो गए हैं. वह सत्ता से नहीं, विपक्ष से प्रश्न कर अपनी पूंछहिलाऊ वफ़ादारी चौबीस घंटे, बिना किसी लाज-शरम या संकोच के, ज़ाहिर करता रहता है.

हमारे धर्म लोकतांत्रिक मूल्यों से पहले ही विरत थे और उनमें स्वतंत्रता-समता-न्याय के संवैधानिक मूल्यों का स्वीकार नहीं था. इस बीच वे, विशेषकर हिंदू धर्म, राजनीति का पिछलगुआ हो गए हैं. उनका अपना सत्व, अध्यात्म और बहुलता उनसे बाहर कर दिए जा रहे हैं. सार्वजनिक जीवन में असहमति-प्रश्नांकन-आलोचना-विरोध-प्रतिरोध की जगह लगातार घट-सिकुड़ रही है और उनको लगभग अपराध माना-क़रार दिया जाने लगा है. लोकतांत्रिक पद्धतियों का उपयोग कर लोकतंत्र में कटौती की जा रही है.

जातीय स्मृति, सांस्कृतिक दाय, परंपरा की सम्यक व्याख्या सभी संकटग्रस्त हो गए हैं. भूलने-भुलाने और तथ्यहीन स्मृति को स्थापित करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है. अनेक अवदान, इतिहास-परंपरा-सृजन-विचार में, भुलाए जा रहे हैं. बहुलता, समरसता, सद्भाव, सहयोग-सहकार सभी हाशिये पर फेंक दिए गए हैं. भय-लालच-स्वार्थ आदि से एक नई सामुदायिकता गठित और विकसित हो रही है.

हमारा समय ज्ञान के हर दिन अपमान और अज्ञान के लगातार महिमामंडन का समय भी है. ज्ञान की संस्थाएं, तरह-तरह से, अपनी स्वायत्तता में सीमित की जा रही हैं. वैसे भी यह संवैधानिक संस्थाओं के अंतःकरण-हीन और उनके नैतिक अध:पतन का समय है. हमारे सार्वजनिक जीवन में गुंडई, लफंगई, दबंगई, लुच्चई, टुच्चई का आतंक बढ़ रहा है और उनकी अभिव्यक्ति लगभग लोकमान्य होती जा रही है.

ऐसे भयावह समय में साहित्य एक तरह से सत्याग्रह है: वह सारे झूठों से घिरे रहकर भी यथासंभव सच कहने, सच पर अड़े रहने और अलोकप्रिय हो जाने, अकेले और निहत्थे पड़ जाने तक का जोखिम उठा रहा है. साहित्य घृणा-हिंसा-झूठ-झांसों के सभी गठबंधनों, उनकी अभिव्यक्ति और सक्रियता के सभी मंचों और अवसरों से असहयोग कर रहा है. जो झूठ-घृणा-हिंसा फैला रहे हैं ऐसे सभी उपक्रमों की, फिर वे सत्ता में हों या मीडिया या धर्मों में, साहित्य आज सविनय अवज्ञा कर रहा है. साहित्य ऐसे समय में अपने स्वराज को स्थगित या किनारे पर नहीं कर सकता: वह उस पर इसरार कर स्वतंत्रता का भूगोल बचाने-बढ़ाने की कोशिश कर रहा है.

साहित्य का परिसर निर्भयता का परिसर होता है: आज के डरावने माहौल में वह स्वयं निर्भय है, निर्भयता का पाठ सिखाता है और निर्भयता का बिरला उदाहरण बन गया है. साहित्य का धर्म इस समय यही है कि वह याद रखे, याद करे और याद दिलाए: सच बोले और सच बोलने वालों की जोखिम में पड़ने वाली बिरादरी का निस्संकोच हिस्सा बने.

राजनीति की सर्वग्रासिता के बरक़्स साहित्य आज जीवन की बहुलता, मानवीय गरमाहट, संभावना-विकल्प-स्वप्नशीलता की रंगभूमि बने और बना रहे. साहित्य इस समय प्रश्नांकन, आलोचना, असहमति का शरण्य, पनाहगाह बने. साहित्य अपना सत्व, अपनी जिजीविषा, अपनी कल्पना-शक्ति को तभी बचा सकता है जब वह इस कठिन समय में अंतःकरण, साहस, प्रतिरोध, अध्यात्म और सत्य का आखिरी दुर्जेय बुर्ज बनकर उभरे और खड़ा रहे, अप्रतिहत.

कुछ को लग सकता है कि यह सब साहित्य से उम्मीद करना कुछ बहुत अधिक की अपेक्षा करना है. यह असाधारण समय है, भारतीय सभ्यता के संकट का क्षण है और इस समय साहित्य से कुछ कम की अपेक्षा रखना उसके महत्व और प्रभाव को कम आंकने जैसा होगा. यह समय साहित्य को मुहलत देने का नहीं, उससे अधिक नैतिक, अधिक सक्रिय होने की अपेक्षा करने का ही है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)

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