बीते दिनों पांच बार विधायक रहे अजय राय को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश का अध्यक्ष नियुक्त किया है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जब से सत्ता से बाहर हुई है, उसका ग्राफ गिरता ही गया है. ऐसे समय और स्थिति में अजय राय यूपी कांग्रेस को कैसे संभालेंगे और आगे ले जाएंगे, यह बड़ा सवाल है.
गोरखपुर: प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए पांच बार विधायक रहे अजय राय को उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद से विश्राम की अवस्था में पड़ी कांग्रेस को जगाने और 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए तैयार करने की बहुत कठिन जिम्मेदारी मिली है.
54 वर्षीय अजय राय ने राजनीति की शुरुआत भाजपा से की थी और सपा से होते हुए कांग्रेस में आए थे. वे वाराणसी में कांग्रेस के जनाधार वाले कद्दावर नेता माने जाते हैं, हालांकि वह दो विधानसभा चुनाव और तीन लोकसभा चुनाव लगातार हारे हैं. फिर भी लगातार सक्रियता, जुझारूपन और कार्यकर्ताओं से अच्छे रिश्ते के साथ-साथ पूर्वांचल में राजनीतिक रूप से ताकतवर भूमिहार बिरादरी से ताल्लुक होना अध्यक्ष पद की योग्यता का आधार बना.
अजय राय 1996 में भाजपा के टिकट पर कोलअसला (वाराणसी) विधानसभा से पहली बार विधायक बने. इसके बाद वह 2002, 2007 में भी जीते. वर्ष 2009 में उन्होंने भाजपा के साथ-साथ विधानसभा छोड़ दी और 2009 का लोकसभा चुनाव सपा के टिकट पर पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी के खिलाफ लड़े. उन्होंने 1,23,874 वोट मिले. उस वक्त कांग्रेस से राजेश मिश्र भी यहां से चुनाव लड़े थे.
लोकसभा चुनाव के बाद उपचुनाव में जीतकर अजय राय फिर विधायक बने. इसके बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए और 2012 विधानसभा का चुनाव कांग्रेस से पिंडारा विधानसभा से जीत कर विधायक बने, लेकिन इसके बाद उनसे चुनावी सफलता रूठ गई. वे 2014 में वाराणसी सीट से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ लड़े. इस चुनाव में अरविंद केजरीवाल भी लड़े थे. अजय राय को 75,614 वोट मिले थे.
अजय राय 2017 और 2022 का विधानसभा चुनाव भी हारे. वर्ष 2019 में वह एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव लड़े. इस बार वह तीसरे स्थान पर रहे, लेकिन 1,52,548 वोट पाने में कामयाब रहे.
अजय राय वाराणसी में सबसे अधिक सक्रिय नेताओं में गिने जाते हैं. जन मुद्दों पर वे आंदोलन-प्रदर्शन में देखे जाते हैं. नागरिक समाज में भी उनकी अच्छी-खासी स्वीकार्यता है.
लेकिन यह भी सही है कि अजय राय की सक्रियता वाराणसी और आस-पास के जिलों तक ही सीमित रही है. उनके संगठनात्मक कौशल की कभी परीक्षा नहीं हुई है. विधानसभा चुनाव के बाद बनाए गए छह जोनल अध्यक्षों में वे भी एक थे, लेकिन एक साल में उनकी पूरे जोन में कांग्रेस संगठन को खड़ा करने में कोई कवायद करते नहीं देखा गया.
2022 के विधानसभा चुनाव में करारी हार से प्रदेश कांग्रेस अभी भी सदमे में है. विधानसभा चुनाव के बाद अक्टूबर 2022 में बसपा से कांग्रेस में आए पूर्व सांसद बृजलाल खाबरी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया और साथ में ही छह जोनल अध्यक्ष बनाए गए. उम्मीद थी कि खाबरी दलितों को कांग्रेस से जोड़ने की कोशिश करेंगे, लेकिन उन्होंने कोई पहलकदमी नहीं ली. कांग्रेस आलाकमान ने भी अपने स्तर से यूपी में कांग्रेस को सक्रिय करने की कोई कोशिश नहीं की.
यूपी की प्रभारी प्रियंका गांधी 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद लगभग तीन वर्ष तक उत्तर प्रदेश में जबर्दस्त रूप से सक्रिय रहीं और अपने जुझारू तेवरों से कांग्रेस को अलग पहचान भी दी, लेकिन विधानसभा चुनाव में हार के बाद उन्होंने भी यूपी से मुंह मोड़ लिया. वे हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सक्रिय रहीं, लेकिन यूपी नहीं आईं. पिछले एक वर्ष से अधिक समय में वे सिर्फ एक बार यूपी आईं. कांग्रेस का दूसरा कोई बड़ा नेता भी यहां नहीं आया.
कांग्रेस के पिछले अध्यक्ष रहे अजय कुमार लल्लू ने अपने कार्यकाल में कांग्रेस को सड़क पर आंदोलन वाली पार्टी बना दिया था. वह कई बार गिरफ्तार होकर जेल गए, लाठियां खाईं. पश्चिम से पूरब तक उन्होंने जनता के मुद्दे पर आंदोलन की झड़ी लगा दी थी. हालत यह थी कि यूपी में सबसे कमजोर कांग्रेस ही सड़क पर आंदोलन करते नजर आती रही.
लल्लू को प्रियंका का भी खूब साथ मिला. हाथरस कांड, लखीमपुर में किसानों की हत्या, सीएए-एनआरसी आंदोलन में अल्पसंख्यकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न सहित हर मुद्दे पर कांग्रेस आवाज बनती नजर आई.
इस दौरान पूरे प्रदेश में पंचायत से जिले स्तर तक नए सिरे से कांग्रेस का संगठन खड़ा करने की कोशिश हुई. दलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक समाज के युवा नेताओं को संगठन में आगे किया गया. महिला नेताओं को भी काफी तवज्जो दी गई. तमाम निष्क्रिय नेताओं को किनारे लगाकर संगठन में नई जान फूंकने की कोशिश की गई. संघर्ष करने वाले नेताओं को आगे लाने का प्रयास किया गया. इस कोशिश में जितिन प्रसाद जैसे कई नेता नाराज होकर पार्टी छोड़ भी गए.
तमाम कोशिश और प्रियंका गांधी के जान लड़ा देने के बावजूद 2022 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह औंधे मुंह गिर पड़ी. उसके सिर्फ दो विधायक जीते. उसका वोट प्रतिशत तीन फीसदी से भी कम रह गया. कांग्रेस के मुकाबले कई नए व छोटे दल (अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी [सुभासपा], निषाद पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल) ठीक ठाक सीट जीतने में कामयाब रहे.
कांग्रेस की असफलता का कारण नेतृत्व, संगठन और सक्रियता से अलग मतदाताओं का ध्रुवीकरण ज्यादा था. मतदाता भाजपा और एंटी भाजपा में बंट गए. एंटी भाजपा वोट सपा और उसके छोटे दलों के गठबंधन की ओर गया. एंटी बीजेपी मतदाता अपने मत को विपक्षी दलों में बंटने नहीं देना चाहते थे.
यही वजह रही कि कांग्रेस के संघर्ष की प्रशंसा करने के बावजूद वोट उन्होंने सपा गठबंधन को दिया. इसी स्थिति के कारण बसपा जैसी ठोस वोट बैंक वाली पार्टी यूपी में सिर्फ एक सीट (रसड़ा) जीत पाई. यह जीत बसपा की कम वहां से जीते विधायक उमाशंकर सिंह की अपने रसूख की जीत ज्यादा थी.
विधानसभा चुनाव में करारी हार के बाद अजय कुमार लल्लू ने 15 मार्च 2022 को हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था. उनके जाने के साढ़े छह महीने तक तक कांग्रेस आलाकमान यूपी का प्रदेश अध्यक्ष नहीं चुन सका. अक्टूबर 2022 में बृजलाल खाबरी प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए. 11 महीने बाद ही उन्हें हटाकर अब अजय राय को अध्यक्ष बनाया गया है.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जब से सत्ता से बाहर हुई है, उसका ग्राफ गिरता ही गया है. सिर्फ 2009 लोकसभा चुनाव (21 सीट 18 फीसदी वोट) में उसे अच्छी सफलता मिली थी. इसके बाद 2012 के विधानसभा चुनाव में भी 28 (11.65 फीसदी वोट) विधायक चुनकर आए. लगा कि कांग्रेस फिर से खड़ी हो रही है, लेकिन वह फिर बैक गियर में चली गई.
इस दौरान कांग्रेस ने सलमान खुर्शीद, रीता बहुगुणा जोशी, राजबब्बर, निर्मल खत्री को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, लेकिन ये सभी नेता कांग्रेस को उबारने में कामयाब नहीं हो सके.
इस समय कांग्रेस और राहुल गांधी पूरे देश में भाजपा के खिलाफ नई उम्मीद के बतौर उभरे हैं. राहुल गांधी की पदयात्रा और हिमाचल प्रदेश के बाद कर्नाटक में शानदार जीत ने कांग्रेस को 2024 के लिए अच्छी संभावनाएं पैदा कर दी हैं. विपक्षी एकता ने इसे और परवान चढ़ाया है.
कांग्रेस को अलग कर भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने के विचार का जाप खत्म हो गया है. विपक्षी एकता की धुरी अब कांग्रेस बन गई है. विपक्षी दलों की पटना और बेंगलुरु बैठक में लिए गए निर्णयों से लगता है कि कांग्रेस ही अपने अनुसार विपक्षी एकता को शेप दे रही है.
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का नेतृत्व कांग्रेस को अपने पुराने रंग में लाता दिख रहा है. कई प्रदेशों में उन्होंने जिस तरह से बगावती सुरों को साधा है और वर्षों से लटके-अटके कार्यों के बारे में तेजी से निर्णय लिए हैं, उससे उनका नेतृत्व कौशल प्रकट हो रहा है.
एक तरफ कांग्रेस नए आत्मविश्वास में नजर आ रही हैं, वही देश के सबसे बड़े सूबे में कांग्रेस अलग ही स्थिति में है. विधानसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस में कोई हलचल नहीं है. कुछ महीनों से कुछ गतिविधियों अवश्य चल रही हैं, लेकिन उनमें कोई संगति व दिशा नहीं नजर आ रही है.
एक तरफ जिले-जिले में जाति जनगणना के सवाल को लेकर सम्मेलन हो रहा है तो दूसरी तरफ मऊ, गोरखपुर से लगायत वाराणसी तक वीरबहादुर सिंह, कल्पनाथ राय और कमलापति त्रिपाठी के जमाने में यूपी के विकास के लिए हुए बुनियादी कार्यों को याद दिलाते हुए योगी सरकार में महंगाई, बेरोजगारी और ‘नकली विकास’ पर घेरने के लिए सम्मेलन हो रहे हैं. इन दोनों गतिविधियों के अलावा स्थानीय गतिविधियां ही चल रही हैं.
ऐसे समय और स्थिति में अजय राय यूपी कांग्रेस को कैसे संभालेंगे और आगे ले जाएंगे, यह बड़ा सवाल है. उनके सामने बहुत कम समय में सोती कांग्रेस को जगाकर लोकसभा चुनाव की तैयारी में लगाने की चुनौती तो है ही उन्हें विपक्षी गठबंधन के अहम सदस्य सपा के साथ तालमेल बिठाने का भी कौशल दिखाना होगा.
कांग्रेस आलाकमान ने अजय राय को प्रदेश अध्यक्ष के लिए संभवत: इसलिए भी चुना है कि वे अगड़ी जाति से आते हैं. इस समय मुख्य विपक्षी दल सपा पूरी तरह से पिछड़ी राजनीति पर अपने को केंद्रित कर रही है तो वहीं भाजपा पिछड़ों में अपनी पैठ को और गहरी करने में लगी है. अपना दल, निषाद पार्टी और सुभासपा के साथ होने से भाजपा को इस कार्य में आसानी लग रही है.
कांग्रेस को लगता है कि विपक्षी एकता में सपा पिछड़ों को साधे और कांग्रेस अजय राय के जरिये अगड़ों को अपने साथ कर सके तो यूपी में भाजपा को कमजोर किया जा सकता है.
सपा लोकसभा चुनाव के लिए पीडीए यानी पिछड़ा, दलित एलायंस का नारा बुलंद कर रही है. उसकी रणनीति है कि बसपा से निराश दलितों को अपने साथ जोड़ा जाए. अल्पसंख्यक समाज तो अपने साथ है ही. लेकिन सचाई यह है कि अल्पसंख्यक सपा से निराश है, पिछड़ों में यादव के साथ कोई अन्य जाति ठोस रूप से जुड़ती नजर नहीं आ रही है.
दलितों का बड़ा हिस्सा अभी भी बसपा के साथ है और नौजवान दलित बहुत तेजी से चंद्रशेखर आजाद की पार्टी आजाद समाज पार्टी से जुड़ रहे हैं. बसपा एकला चलो की राह पर है तो आजाद समाज पार्टी फिलहाल रालोद के अलावा और किसी से नजदीकी नहीं दिखा रहे हैं.
रालोद को छोड़ अधिकतर छोटे दल भाजपा के साथ जा रहे हैं. अपना दल और निषाद पार्टी पहले से भाजपा के साथ है. अब सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी भी उसके साथ आ गई है. बिंद समाज में पकड़ रखने वाली प्रेमचंद बिंद की प्रगतिशील मानव समाज पार्टी भी भाजपा की लाइन में हैं.
यूपी में भाजपा मजबूत होने के बावजूद लगातार छोटे दलों और पिछड़ों में पैठ रखने वाले नेताओं को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है. पूर्व मंत्री दारा सिंह चौहान को भाजपा में लाना इसी कोशिशों का नतीजा है.
इन परिस्थितियों में बहुत ही सक्षम और दूरदृष्टि नेतृत्व ही कांग्रेस को नई दिशा दे सकता है. देखना होगा कि अजय राय इस जरूरत को पूरा कर पाते हैं कि नहीं.
(लेखक गोरखपुर न्यूज़लाइन वेबसाइट के संपादक हैं.)