क्यों लापरवाही और उपेक्षा का शिकार बना उर्दू का प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान ‘मकतबा जामिया’

दिल्ली-6 के उर्दू बाज़ार में स्थित उर्दू के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान 'मकतबा जामिया' की शाखा बीते दिनों बंद हो गई.

दिल्ली-6 के उर्दू बाजार में स्थित मकतबा जामिया लिमिटेड की शाखा. (फोटो साभार: फेसबुक/@masoom.moradabadi)

दिल्ली-6 के उर्दू बाज़ार में स्थित उर्दू के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान ‘मकतबा जामिया’ की शाखा बीते दिनों बंद हो गई.

दिल्ली-6 के उर्दू बाजार में स्थित मकतबा जामिया लिमिटेड की शाखा. (फोटो साभार: फेसबुक/@masoom.moradabadi)

नई दिल्ली: उर्दू में विभिन्न विषयों पर महत्वपूर्ण और कई दुर्लभ किताबें प्रकाशित करने और बेहद कम मूल्यों पर उपलब्ध कराने वाले देश के प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान ‘मकतबा जामिया लिमिटेड’ की उर्दू बाज़ार (जामा मस्जिद, दिल्ली-6) स्थित शाखा बंद हो गई. इसकी कथित वजह पिछले कुछ दिनों से वहां किसी भी कर्मी का न होना बताई गई है.

कुछ उर्दू अख़बारों के मुताबिक़, जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के हिस्से के तौर पर काम करने वाला यह लगभग 100 साल पुराना संस्थान घोर लापरवाही और उपेक्षा का शिकार है.

बताया गया कि जहां गत 4-5 वर्षों से इसकी महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका ‘किताब नुमा’ और बाल साहित्य को उल्लेखनीय तौर पर बढ़ावा देने वाली पत्रिका ‘पयाम-ए-तालीम’ का प्रकाशन तक ठप है. वहीं, ‘मकतबा जामिया’ की विभिन्न शाखाओं पर बहुत मामूली वेतन पर कार्यरत कर्मियों को कई महीनों से तनख़्वाह नहीं दी गई है.

सूत्रों के अनुसार, लंबे समय से ‘किताब नुमा’ का एक अंक छपने के लिए तैयार रखा हुआ है, जिसमें प्रसिद्ध साहित्यकार फ़रहत एहसास का गेस्ट एडिटोरियल भी शामिल है, लेकिन फ़िलहाल इसकी सुध लेने वाला भी कोई नहीं है.

उल्लेखनीय है कि उर्दू बाज़ार स्थित शाखा पर 2014 में ही सेवानिवृत्ति के बाद से 10 हज़ार रुपये की तनख़्वाह पर कार्यवाहक के तौर पर कार्यरत अली ख़ुसरो ज़ैदी ने पिछले हफ़्ते लंबे समय तक वेतन की अदायगी न होने और इस सिलसिले में अपमानजनक व्यवहार का आरोप लगाते हुए ख़ुद को संस्थान से अलग कर लिया था.

पिछले कई महीने से ख़ुसरो व्यावहारिक तौर पर इस शाखा को चलाने वाले ‘अकेले कर्मी’ थे.

ख़ुसरो ने द वायर को बताया, ‘आधिकारिक तौर पर यहां 4 लोगों की नियुक्ति है, लेकिन हमारे एक सहकर्मी, जिन्हें 6 महीने से तनख़्वाह नहीं मिली थी, ने मायूस होकर आना बंद कर दिया. बचे दो में से एक कर्मचारी को साज़िशन मुख्यालय बुला लिया गया, फिर दूसरे ने भी आना बहुत कम कर दिया और सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर आ गई.’

वो कहते हैं, ‘इधर मुख्यालय ने किताबें भेजनी भी बंद कर दी थीं, किसी बात का सही जवाब नहीं दिया जा रहा था. इस तरह की स्थिति झेलते हुए मैंने 7 माह तक काम किया और अंत में तंग आकर मुझे अलग होना पड़ा.’

वो सवाल उठाते हैं कि मकतबा के साथ ऐसा व्यवहार क्यों हो रहा है, जबकि पैसे भी हैं और बिक्री भी अच्छी होती है.

शाखा के कथित तौर पर बंद होने के सवाल पर उन्होंने कहा, ‘सुना मैंने भी है कि जबसे मैं छोड़ आया हूं शाखा बंद पड़ी है, अब आगे क्या करना है ये मुख्यालय को ही सोचना है.’

गौरतलब है कि प्रकाशन का मुख्यालय नई दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया के परिसर में ही है.

इस बीच द वायर के दिल्ली, अलीगढ़ और मुंबई स्थित मकतबा की विभिन्न शाखाओं से संपर्क करने पर भी कुछ इसी तरह की जानकारी सामने आई. बताया गया कि पिछले 2 साल से कोई ख़बर लेने वाला नहीं है. हाल में इस बारे में विश्वविद्यालय प्रशासन के साथ 18 जुलाई को बैठक बुलाई गई थी, लेकिन बाद में उसे स्थगित कर दिया गया.

एक शाखा की तरफ से बताया गया, ‘हम चिट्ठियां भेज चुके हैं, मिलने की कोशिश भी की, लेकिन सिर्फ़ मायूसी हाथ लगी है.’

ऐसा भी बताया गया कि मकतबा की इन शाखाओं में कार्यरत कुछ कर्मी ऐसे भी हैं जो पेट पालने की ख़ातिर पार्ट टाइम ई-रिक्शा चलाने को मजबूर हैं.

क्या कहते हैं पदाधिकारी? 

मकतबा की हालत पर जब इसके प्रबंध निदेशक शहज़ाद अंजुम से संपर्क किया गया, तो उन्होंने ये कहते हुए बात करने से मना कर दिया कि उन्हें मीडिया से बात करने की इजाज़त नहीं है.

सूत्र बताते हैं कि मकतबा के मामले को ही लेकर पिछले कुछ महीनों में शहज़ाद तीन-चार बार प्रशासन को इस्तीफ़ा सौंप चुके हैं, लेकिन अभी तक इसे मंज़ूरी नहीं मिली है.

दूसरी तरफ़, बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर में शामिल प्रख्यात उर्दू आलोचक सिद्दीक-उर-रहमान किदवई ने बताया, ‘मैं इसके बोर्ड में हूं, लेकिन फ़िलहाल इस पर कुछ नहीं कहूंगा. जो मामलात हैं उसके तय हो जाने के बाद ही कुछ कह पाऊंगा.’ इस सिलसिले में होने वाली बैठक  के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि मीटिंग होगी.

‘मकतबा ख़त्म हुआ तो बहुत नुक़सान होगा’

मकतबा और उसके भविष्य को लेकर उर्दू आबादी में तरह-तरह की अटकलें हैं और किसी के पास फ़िलहाल कोई सपष्ट जवाब नहीं है.

हाल में इसकी बदहाली के बारे में सबसे पहले सोशल मीडिया और अख़बारों में आवाज़ उठाने वाले उर्दू के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक मासूम मुरादाबादी थे. उनका कहना था कि पिछले कुछ सालों से मकतबा बहुत बुरी हालत में है और चूंकि ये विश्वविद्यालय का एक अंग है तो उसे इसमें दिलचस्पी लेनी चाहिए थी. हालांकि ख़ुद मकतबा के पास अपनी संपत्ति है, ज़मीन है. लेकिन कोई शख़्स ऐसा नहीं है जो ढंग से इसकी देखभाल करे.

वो कहते हैं, ‘इसकी सबसे बड़ी शाखा जो थी वो उर्दू बाज़ार ही थी, जहां सबसे ज़्यादा बिक्री हुआ करती थी. लेकिन एक हफ़्ते पहले इसके इंचार्ज को भी जबरन हटा दिया गया वो 45 साल से यहां काम कर रहे थे. उसके बाद से ये शाखा बंद है.’

उनका दावा है कि कोई जानबूझकर इसको तबाह करना चाहता है. वो कहते हैं, ‘मकतबा आख़िरी सांसें गिन रहा है. अगर ये ख़त्म हो गया तो बहुत बड़ा नुक़सान होगा.’

ऐसा लगता है कि संस्थान इन दिनों मरहूम साहित्यकार शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी द्वारा एक लेख में दर्ज बातों को चरितार्थ करने पर तुला है.

उन्होंने लिखा था, ‘शाहिद अली खां (मकतबा के पूर्व मैनेजर) के अलग होने के बाद मकतबा जामिया के गोया बुरे दिन आ गए. यके बाद दीगरे जिन लोगों को ज़िम्मेदारी सौंपी गई वो पत्रिका निकालने का भी अनुभव नहीं रखते… प्रेस प्रिंटिंग और काग़ज़… की इन्हें क्या जानकारी हो सकती है. बहरहाल, उर्दू के प्रकाशन संस्थानों में मकतबा जामिया का प्रमुख दर्जा उसी दिन ख़त्म हो गया जब शाहिद अली खां वहां से अलग हो गए.’

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