2022-23 में मनरेगा डेटाबेस से 5.2 करोड़ नाम हटाए गए, बीते वर्षों की तुलना में 247 फीसदी की वृद्धि

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम में जॉब कार्ड हटाना और नए जॉब कार्ड जारी करना नियमित प्रथा है, लेकिन हाल ही में हटाए गए कार्डों की बड़ी संख्या ने चिंता पैदा कर दी है. इन नामों के हटने के पीछे का मुख्य कारण आधार-आधारित भुगतान प्रणाली का कार्यान्वयन बताया जा रहा है.

(फोटो साभार: UN Woman/Gaganjit Singh/Flickr)

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम में जॉब कार्ड हटाना और नए जॉब कार्ड जारी करना नियमित प्रथा है, लेकिन हाल ही में हटाए गए कार्डों की बड़ी संख्या ने चिंता पैदा कर दी है. इन नामों के हटने के पीछे का मुख्य कारण आधार-आधारित भुगतान प्रणाली का कार्यान्वयन बताया जा रहा है.

(फोटो साभार: UN Woman/Gaganjit Singh/Flickr)

नई दिल्ली: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) अपने डेटाबेस से श्रमिकों के नाम हटने की एक महत्वपूर्ण समस्या का सामना कर रहा है. वित्त वर्ष 2022-23 में 5.2 करोड़ से अधिक श्रमिकों को सिस्टम से हटा दिया गया था, जो पिछले वर्षों की तुलना में 247 फीसदी की वृद्धि दर्शाता है.

ग्रामीण विकास मंत्रालय के आंकड़ों का हवाला देते हुए इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) ने अपनी रिपोर्ट में यह जानकारी दी है.

हालांकि, जॉब कार्ड हटाना और नए जॉब कार्ड जारी करना नियमित प्रथा है, लेकिन हाल ही में हटाए गए कार्डों की बड़ी संख्या ने चिंता पैदा कर दी है. मृत या पलायन कर चुके श्रमिकों के जॉब कार्ड हटा दिए जाते हैं और रोजगार चाहने वाले नए श्रमिकों को अपना नाम जुड़वाना पड़ता है या नया जॉब कार्ड बनवाना पड़ता है.

रिपोर्ट के अनुसार, इन नामों के हटने के पीछे का मुख्य कारण आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) का कार्यान्वयन है, जिसने प्रणाली में जटिलता बढ़ा दी है.

मनरेगा ग्रामीण परिवारों को 100 दिनों के काम की गारंटी देता है.

जनवरी 2023 में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 1 फरवरी 2023 से मनरेगा में सभी मजदूरी भुगतानों को जारी करने के लिए एबीपीएस का उपयोग अनिवार्य कर दिया था. हालांकि आदेश के समय केवल 43 फीसदी मनरेगा श्रमिक एबीपीएस भुगतान के लिए पात्र थे.

अल्प अवधि में 100 फीसदी आधार सीडिंग (जोड़ने) और प्रमाणीकरण प्राप्त करने के लिए मंत्रालय के दबाव के कारण मनरेगा डेटाबेस से श्रमिकों के नाम हटाए जाने में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है.

रिपोर्ट में कहा गया है आधार प्रक्रिया के प्रशिक्षण और समझ के अभाव में स्थानीय अधिकारियों ने लक्ष्य पूरा करने के आसान तरीके के रूप में एबीपीएस-अयोग्य कर्मचारियों को रोस्टर से हटाने का सहारा लिया है.

ईपीडब्ल्यू ने अपनी रिपोर्ट में समझाया है कि उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना श्रमिकों को हटाना स्थानीय अधिकारियों के लिए आसान क्यों था. इसने तीन तकनीकी प्रक्रियाओं की व्याख्या की है, जिन्हें समझने की जरूरत है.

1) पहले, श्रमिकों के पास अपने आधार विवरण को अपने जॉब कार्ड से जोड़ने का विकल्प था, लेकिन यह अनिवार्य नहीं था. अब मनरेगा का लाभ उठाने के लिए श्रमिकों को आधार कार्ड की जरूरत होती है. 15 अगस्त तक देशभर में 6 करोड़ से ज्यादा श्रमिकों ने आधार जोड़ने का काम पूरा नहीं किया था. ये अब मनरेगा के तहत काम नहीं कर सकेंगे.

2) आधार प्रमाणीकरण में आधार और श्रमिक के जॉब कार्ड के विवरणों का मिलान किया जाता है. अगर कोई विसंगति पाई जाती है तो प्रमाणीकरण विफल हो जाता है. अधिकारियों को चुनौतियों का सामना इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि उन्हें ऐसे मामलों के समाधान के लिए दिशानिर्देश नहीं मिले हैं.

इस समस्या को समझने के लिए लिबटेक इंडिया ने श्रमिकों को हटाए जाने के प्रावधानों या दिशानिर्देशों के बारे में पूछताछ के लिए सूचना का अधिकार (आरटीआई) अधिनियम के तहत ग्रामीण विकास मंत्रालय में एक आवेदन दायर किया था. उन्हें मनरेगा के वार्षिक मस्टर (हाजिरी) सर्कुलर का केवल आंशिक अंश ही प्रदान किया गया था. इसमें नाम हटाए जाने के लिए व्यापक सिद्धांत शामिल थे, लेकिन लिबटेक इंडिया द्वारा मांगे गए विस्तृत दिशानिर्देशों का अभाव था.

ब्लॉक डेटा एंट्री ऑपरेटरों को समाधान प्रक्रियाओं का ज्ञान तो दूर की बात है, वे आधार जोड़ने या प्रमाणीकरण के बिना श्रमिकों की सूची का पता लगाने तक में सक्षम नहीं थे. यह भ्रम ब्लॉक अधिकारियों तक ही सीमित नहीं है, राज्य स्तर के अधिकारियों को भी आधार प्रक्रियाओं के बारे में भ्रामक सूचनाएं हैं.

3) पहले, मनरेगा का मजदूरी भुगतान एनईएफटी (नेशनल इलेक्ट्रॉनिक फंड्स ट्रांसफर सिस्टम) के माध्यम से स्थानांतरित किया जा सकता था, लेकिन अब आधार-आधारित भुगतान अनिवार्य है.

‘आधार-आधारित भुगतान में वित्तीय पते के रूप में केवल आधार नंबर का उपयोग किया जाता है. इसमें तीन चीजें लिंक होना जरूर हैं: पहला, श्रमिक का आधार नंबर उसके जॉब कार्ड से जुड़ा होना चाहिए. दूसरा, उसका आधार ईकेवाईसी के माध्यम से उसके बैंक खाते से जुड़ा होना चाहिए. तीसरा, कर्मचारी का आधार नेशनल पेमेंट्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (एनपीसीआई) द्वारा बनाए गए मैपर (या डेटाबेस) में उसकी बैंक की संस्थागत पहचान संख्या (आईआईएन) से जुड़ा होना चाहिए, जो केंद्र सरकार के भुगतान जारी करने के केंद्र के रूप में कार्य करता है.’

ईपीडब्ल्यू की  रिपोर्ट कहती है, ‘जब यह सभी जुड़ाव पूरे हो जाते हैं, तब श्रमिक का मजदूरी भुगतान जारी किया जाता है. अनिवार्य आधार-आधारित भुगतान के मामले में भले ही किसी श्रमिक ने मनरेगा के तहत काम किया हो, लेकिन अगर वह इस भुगतान के लिए पात्र नहीं है, तो उसे अपना वेतन नहीं मिल सकता है.’

हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने विलोपित नाम वास्तविक या ‘नकली’ श्रमिकों के थे, व्यापक जमीनी अध्ययन से पता चलता है कि बड़ी संख्या में कमजोर, वास्तविक श्रमिकों को काम और आजीविका के अधिकार से वंचित किया जा रहा है. प्रमाणीकरण और आधार-आधारित भुगतान दोनों ही जटिल समस्याएं पैदा करते हैं, जिन्हें हल करना मुश्किल होता है.

इसके अलावा, राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली (एनएमएमएस) ऐप, जिसे मनरेगा श्रमिकों से परामर्श किए बिना लॉन्च किया गया था, को भी कई समस्याओं का सामना करना पड़ा है.

एनएमएमएस और आधार सीडिंग/प्रमाणीकरण दोनों का उद्देश्य मनरेगा में भ्रष्टाचार से निपटना था, लेकिन उनके कार्यान्वयन में सफलता के साक्ष्यों का अभाव है और इससे श्रमिकों को परेशानी उठानी पड़ी है.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘समस्याओं के समाधान के लिए डिजिटल उपायों को लागू करना आकर्षक हो सकता है, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि नीति निर्माण को तकनीकी-समाधानवाद तक सीमित न किया जाए. तकनीकी हस्तक्षेपों के लिए नीति तैयार करना परामर्शात्मक और श्रमिकों को ध्यान में रखने हुए बनाई जानी चाहिए.’

इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

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