मध्य प्रदेश में सपा के साथ गठबंधन क्यों कांग्रेस के लिए फायदे का सौदा नहीं था

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन पर बातचीत विफल रहने के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने राज्य की छह सीटों पर उनका जनाधार होने की बात कही थी. हालांकि, सपा के प्रदर्शन का चुनाव दर चुनाव विश्लेषण करने पर कांग्रेस की हिचकिचाहट की वजह साफ हो जाती है.

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ. (फोटो साभार: संबंधित फेसबुक पेज)

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन पर बातचीत विफल रहने के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने राज्य की छह सीटों पर उनका जनाधार होने की बात कही थी. हालांकि, सपा के प्रदर्शन का चुनाव दर चुनाव विश्लेषण करने पर कांग्रेस की हिचकिचाहट की वजह साफ हो जाती है.

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ. (फोटो साभार: संबंधित फेसबुक पेज)

‘मुझे ये पता होता कि कांग्रेस पार्टी के लोग धोखा देंगे तो मैं उनकी बात पर भरोसा नहीं करता. हमें आश्वासन दिया गया था कि हमें छह सीटें दी जाएंगी, लेकिन हमारे खाते में शून्य आया. अगर हमें पता होता कि विधानसभा चुनाव के लिए मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का कोई गठबंधन नहीं है, तो हम अपने लोगों को कांग्रेस के साथ चर्चा करने के लिए नहीं भेजते.

समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव ने यह शब्द बीते दिनों मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस के साथ गठबंधन पर बातचीत के असफल हो जाने के बाद कहे थे. दोनों ही दल केंद्रीय स्तर पर बने विपक्षी दलों के गठबंधन इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस (इंडिया) में साझेदार हैं. इसलिए अखिलेश के इस बयान के बाद ‘इंडिया’ गठबंधन में दरार पड़ने की भी बातें कही जाने लगीं.

अखिलेश ने अपने बयान में मध्य प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और दिग्विजय सिंह द्वारा सपा के साथ बैठक बुलाए जाने का ज़िक्र किया था. आग में घी वाला काम कमलनाथ के उन शब्दों ने कर दिया जब अखिलेश के बयान पर मीडिया द्वारा प्रतिक्रिया मांगे जाने पर उन्होंने खीझते हुए कहा, ‘अरे भाई, छोड़ो अखिलेश-वखिलेश.’

बाद में मामले पर नरम रुख़ अपनाते हुए दिग्विजय ने कहा कि कमलनाथ को इस तरह की बात नहीं करनी चाहिए थी. उन्होंने अखिलेश और उनके पिता पूर्व सपा प्रमुख मुलायम सिंह की तारीफ करते हुए कहा, ‘सपा का एक उम्मीदवार बिजावर से जीता था और दो दूसरे नंबर पर आए थे. इस तरह उनकी 3 सीट हो सकती थीं, लेकिन वह 6 मांग रहे थे. हम उनके लिए 4 सीट छोड़ सकते थे, ऐसा प्रस्ताव बनाकर मैंने कमलनाथ जी को भेज दिया. अब चर्चा कहां बिगड़ी मैं नहीं जानता, लेकिन कमलनाथ जी पूरी ईमानदारी के साथ समझौता करना चाहते थे.’

बाद में कमलनाथ ने मीडिया को बताया, ‘हमने (गठबंधन का) प्रयास किया था. सीटों की बात नहीं थी, प्रश्न था कि कौन-सी सीटें हैं?’

गौरतलब है कि दो दलों के बीच जब राजनीतिक गठबंधन की बात होती है तो अक्सर बात सीटों के बंटवारे पर ही आकर अटक जाती है. पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी का गठबंधन इसी कारण परवान नहीं चढ़ सकता था. कमलनाथ के शब्दों से भी यह स्पष्ट है. इसलिए प्रश्न उठता है कि आखिर वो कौन सी 6 सीट थीं, जिन पर सपा चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन कमलनाथ उन्हें देना नहीं चाहते थे.

इस संंबंध में अखिलेश ने अपने बयान में कहा था;

‘(कांग्रेस के साथ) बैठक में हमने अपना पूरा प्रदर्शन बताया कि किस समय पर सपा के विधायक कहां-कहां जीते, कभी एक जीते, कभी दो जीते, कभी पांच जीते और किस जगह हम नंबर दो पर रहे. उन्होंने (कांग्रेस) आंकड़े देखे और आश्वासन दिया कि हम 6 सीटों पर विचार करेंगे, लेकिन जब सीट घोषित करने के नतीजे आए तो सपा के खाते में शून्य सीट आईं.’

अखिलेश के इस बयान को ही आधार बनाएं, तो सपा ने अब तक राज्य में कुल 12 सीटों पर (13 जीत) ही जीत दर्ज की है. इस दौरान राज्य में पांच बार विधानसभा चुनाव हुए हैं.

1998 में उसे चार विधानसभा सीटों पर जीत मिली थी, जिनमें दतिया, रौन, चंदला और पवई शामिल थीं.

2003 में सपा का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा था. तब उसके खाते में सात सीटें आई थीं. चंदला, छतरपुर, मैहर, गोपदबनास, सिंगरौली, पिपरिया और मुलताई में उसे जीत मिली थी.

2008 में पार्टी सिर्फ एक निवाड़ी की ही सीट जीत सकी. 2013 में तो पार्टी को किसी भी सीट पर सफलता नहीं मिली थी.

2018 में सपा फिर एक सीट अपनी झोली में डाल सकी, जो बिजावर की थी और जिसे जीतने वाले राजेश शुक्ला बाद में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में शामिल हो गए थे.

इस तरह देखा जाए, तो चंदला विधानसभा सीट को छोड़कर सपा किसी भी सीट को एक बार जीतने के बाद दोबारा नहीं जीत पाई है. इन 12 सीट में से दो- रौन और गोपदबनास अब अस्तित्व में नहीं हैं.

यानी कि मध्य प्रदेश की मौजूदा कुल 230 विधानसभा सीटों में से महज 10 सीटें (दतिया, रौन, चंदला, पवई, छतरपुर, मैहर, सिंगरौली, पिपरिया, मुलताई, निवाड़ी और बिजावर) ऐसी हैं, जिन पर सपा ने कभी जीत दर्ज की है.

वहीं, 2018 के पिछले विधानसभा चुनाव में सपा के प्रदर्शन की बात करें तो बिजावर सीट पर जीतने के अलावा पार्टी 2008 में जीती हुई निवाड़ी सीट के साथ ही चार और सीट- पृथ्वीपुर, गुढ़, परसवाड़ा और बालाघाट- पर दूसरे पायदान पर रही थी. अत: गठबंधन पर चर्चा के समय जिन 6 सीट की सपा मांग कर रही थी, वह संभवत: यही रही होंगी.

फिर भी, अगर अखिलेश के उस बयान को आधार बनाया जाए कि उन्होंने गठबंधन पर चर्चा के समय कांग्रेस को सीट आवंटन के लिए सपा द्वारा अतीत में जीती गईं सीटों के भी आंकड़े दिए थे, तो 1998 से 2018 के बीच सपा द्वारा जीती गईं मौजूदा कुल 10 सीट और पिछले विधानसभा चुनाव में दूसरे पायदान पर रहीं चार (निवाड़ी के अतिरिक्त) सीटों को जोड़ दें तो कुल 14 सीट चर्चा के समय सपा ने कांग्रेस को गिनाई होंगी.

कैसा है मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी का जनाधार

उपरोक्त 14 सीटों पर सपा के प्रदर्शन का चुनाव दर चुनाव विश्लेषण करें तो पूरी तरह तस्वीर साफ हो जाती है कि आखिर क्यों कांग्रेस और सपा का गठबंधन अंजाम तक नहीं पहुंचा. पहले जीती हुई सीटों पर बात करते हैं:

दतिया विधानसभा सीट पर सपा को 1998 में जीत मिली थी. पार्टी के उम्मीदवार राजेंद्र भारती थे. 2003 के अगले चुनाव में भारती ने सपा छोड़ दी तो वह पांचवें स्थान पर खिसक गई और इसके उम्मीदवार की ज़मानत भी जब्त हो गई. दूसरी ओर, भारती राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में जाकर तीसरे पायदान पर रहे. 2008 में भारती बसपा से लड़कर दूसरे पायदान पर रहे. 2013 और 2018 में भारती कांग्रेस के उम्मीदवार थे और दोनों ही बार दूसरे पायदान पर रहे. जबकि, सपा को 2008 में महज 2,203 वोट और 2013 में सिर्फ 583 वोट मिले. नतीजतन, 2018 में सपा ने अपना उम्मीदवार ही नहीं उतारा. इस सीट पर लगातार तीन चुनाव से गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा जीतते आ रहे हैं.

चंदला सीट पर 1998 और 2003 के विधानसभा चुनाव में कुंवर बहादुर सिंह बुंदेला ने सपा को जीत दिलाई थी. 2008 में परिसीमन के चलते यह सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हो गई. तब से पार्टी उम्मीदवार की यहां ज़मानत ही ज़ब्त होती आई है. 2013 में तो सपा को केवल 3,023 वोट मिले थे. सपा से अच्छी स्थिति यहां एक अन्य क्षेत्रीय दल बसपा की है. गौरतलब है कि सपा को दो बार यह सीट जिताने वाले बुंदेला भी 2008 के चुनाव से पहले भाजपा में चले गए थे.

पवई सीट आपराधिक पृष्ठभूमि से आने वाले अशोक वीर विक्रम सिंह उर्फ भैया राजा ने 1998 में सपा की झोली में डाली थी. भैया राजा 1990 में इसी सीट पर जेल में रहते हुए भी निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर जीत चुके थे. 2003 में भी भैया राजा ही सपा के उम्मीदवार थे और पार्टी दूसरे पायदान पर रही. बाद में भैया राजा गंभीर आपराधिक मामलों में उलझे और उम्रकैद की सज़ा भी मिली. 2008 में पवई में सपा ने अपना उम्मीदवार ही नहीं उतारा था, जबकि भैया राजा की पत्नी आशा रानी भाजपा के टिकट पर बिजावर से चुनाव लड़ी थीं. 2013 में भी पवई में सपा ने उम्मीदवार नहीं उतारा, जबकि 2018 में इसके उम्मीदवार की ज़मानत जब्त हो गई थी.

छतरपुर सीट सपा ने वर्ष 2003 के विधानसभा चुनाव में जीती थी. छतरपुर राजपरिवार से ताल्लुक रखने वाले विक्रम सिंह ‘नातीराजा’ ने कांग्रेस उम्मीदवार को पटखनी देकर यह सीट सपा की झोली में डाली थी. 2008 के अगले चुनाव में नातीराजा कांग्रेस में चले गए और तब से लगातार तीन चुनाव कांग्रेस के टिकट पर राजनगर सीट से जीतते आ रहे हैं. दूसरी ओर, छतरपुर में सपा को 2008 में 2,672 वोट; 2013 में 854 वोट और 2018 में सिर्फ 640 वोट प्राप्त हुए थे. छतरपुर में वर्तमान में कांग्रेस के आलोक चतुर्वेदी विधायक हैं.

मैहर सीट सपा ने 2003 में जीती. नारायण त्रिपाठी विधायक बने. 2008 में भी त्रिपाठी ही पार्टी का चेहरा थे, लेकिन पार्टी तीसरे स्थान पर रही और ज़मानत भी ज़ब्त हो गई. 2013 में त्रिपाठी कांग्रेस और 2018 में भाजपा में जाकर इसी सीट से विधायक बन गए. सपा को 2013 में सिर्फ 697 वोट और 2018 में 11,202 वोट मिले. पिछले तीन चुनावों से पार्टी उम्मीदवार की जमानत जब्त होती आ रही है.

सिंगरौली सीट पर सपा को 2003 में जीत दिलाने वाले दो बार के कांग्रेसी विधायक और दिग्विजय सिंह सरकार में मंत्री रहे बंशमणि प्रसाद वर्मा थे. वर्मा बाद में कांग्रेस में लौट गए. 2008 में सपा ने रेणु शाह को उम्मीदवार बनाया, उन्हें 13 हजार से अधिक वोट तो मिले लेकिन जमानत जब्त हो गई. 2013 का चुनाव रेणु शाह ने बसपा के टिकट पर लड़कर 30 हजार वोट प्राप्त किए. वहींं, सपा को 2013 में 1,042 और 2018 में 4,680 वोट ही मिले. वर्तमान चुनाव में बंशमणि और रेणु शाह दोनों ही कांग्रेस के टिकट पर क्रमश: देवसर और सिंगरौली से उम्मीदवार हैं.

पिपरिया सीट पर सपा ने केवल एक बार 2003 में चुनाव लड़ा था. तब पार्टी उम्मीदवार अर्जुन पलिया की जीत हुई थी. 2008 में परिसीमन के बाद यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हो गई. सपा ने फिर कभी इस सीट पर चुनाव नहीं लड़ा. पलिया ने भी कांग्रेस का दामन थाम लिया.

मुलताई सीट पर 1998 में डॉ. सुनीलम निर्दलीय जीते थे. 2003 में वह सपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे और दूसरी बार जीत दर्ज की. 2008 में वह सपा उम्मीदवार के तौर पर तीसरे स्थान पर रहे और यह सीट कांग्रेस ने जीती. 2013 में सपा प्रत्याशी अनिल सोनी को सिर्फ 1,924 वोट मिले. वर्तमान में यहां से कांग्रेस के सुखदेव पांसे विधायक हैं, जबकि सपा को पिछले चुनाव में मात्र 1,539 वोट मिले थे.

निवाड़ी सीट पर सपा की मीरा यादव ने 2008 में जीत दर्ज की थी. वह उत्तर प्रदेश की गरौठा सीट से पूर्व विधायक दीपनारायण सिंह यादव की पत्नी हैं. दीपनारायण को यूपी में अखिलेश सरकार के दौरान बुंदेलखंड का मिनी मुख्यमंत्री कहा जाता था. दीपनारायण ने भी निवाड़ी से 1998 का चुनाव लड़ा था और वह दूसरे स्थान पर रहे थे. 2008 में जीतने वाली मीरा यादव 2013 और 2018 में दूसरे पायदान पर रहीं. इस सीट पर 1998 से अब तक पांच चुनावों में सपा एक बार जीती है और 4 बार दूसरे पायदान पर रही है, जबकि कांग्रेस को यहां आखिरी बार 2003 में जीत मिली थी.

बिजावर सीट पर सपा को 1998 में 6,780 वोट; 2003 में 1,755 वोट; 2008 में 2,764 वोट और 2013 में सिर्फ 2,845 वोट मिले थे. 2018 के चुनाव में कांग्रेस के राजेश शुक्ला ने टिकट न मिलने पर पार्टी से बगावत करके सपा का दामन थाम लिया था और वह यहां से जीत भी गए. इस तरह सपा के खाते में यह सीट आई थी. शुक्ला बाद में बाद में भाजपा में शामिल हो गए और इस चुनाव में भाजपा के टिकट पर मैदान में हैं.

अब बात उन सीटोंं की, जहां 2018 के पिछले विधानसभा चुनाव में सपा दूसरे पायदान पर रही थी (निवाड़ी को छोड़कर);

पृथ्वीपुर सीट 2008 में अस्तित्व में आई. तब कांग्रेस जीती और सपा को महज 1,019 वोट मिले. 2013 में भाजपा जीती और सपा को सिर्फ 9,257 वोट मिले. 2018 में फिर कांग्रेस जीती, तब सपा के शिशुपाल यादव दूसरे स्थान पर रहकर महज 7,620 मतों से हारे थे. बाद में शिशुपाल भाजपा में शामिल हो गए. कांग्रेस विधायक बृजेंद्र सिंह के निधन के बाद 2021 में पृथ्वीपुर में उपचुनाव हुए और शिशुपाल भाजपा के टिकट पर जीत गए. सपा को सिर्फ 1,181 वोट मिले थे.

गुढ़ में सपा को 1993 में 413; 1998 में 2,880; 2003 में 5,559; 2008 में 1,537 और 2013 में 1,084 वोट मिले थे. 2013 में ही कपिध्वज सिंह ने निर्दलीय लड़कर 25,510 वोट हासिल किए थे. कांटे के मुकाबले में वह चौथे पायदान पर रहे, लेकिन कांग्रेस के विजेता सुंदरलाल तिवारी और उनके बीच महज आठ हजार मतों का अंतर था. लिहाजा, 2018 में सपा ने कपिध्वज पर दांव खेला और पार्टी दूसरे पायदान पर रही. इस चुनाव में कपिध्वज सिंह कांग्रेस के उम्मीदवार हैं.

परसवाड़ा में 2018 के चुनाव में सपा प्रत्याशी कंकर मुंजारे थे, जो अतीत में निर्दलीय और कई दलों की ओर से चुनाव लड़कर तीन बार विधायक और एक बार बालाघाट लोकसभा सीट से सांसद भी रह चुके थे. उनके बूते सपा दूसरे पायदान पर रही, अन्यथा 1998 में उसे 659 वोट मिले थे. 2003 में पार्टी ने था प्रत्याशी ही नहीं उतारा था, जबकि 2008 में महज 790 वोट मिले और 2013 में 500 वोट मिले थे. उनकी पत्नी अनुभा मुंजारे वर्तमान चुनाव में बालाघाट सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हैं.

बालाघाट में 2018 में कंकर मुंजारे की पत्नी अनुभा मुंजारे सपा उम्मीदवार थीं. वह स्वयं भी निर्दलीय लड़कर दो बार बालाघाट नगर पालिका अध्यक्ष बन चुकी थीं. उनके जनाधार के चलते सपा दूसरे पायदान पर रही, अन्यथा अन्यथा 1998 में उसे 2,993; 2003 में 603 और 2008 में 507 वोट मिले थे. 2013 में भी अनुभा मुंजारे ही सपा प्रत्याशी थीं, तब भी पार्टी दूसरे पायदान पर रही थी और महज 2,500 मतों से हारी थी. अनुभा यह चुनाव कांग्रेस के टिकट पर लड़ रही हैं.

सपा की 6 सीटों की मांग और ज़मीन पर उसके हाल

कुल मिलाकर सपा की जीती हुई 10 सीट में से दो (छतरपुर और मुलताई) पर कांग्रेस विधायक हैं, इसलिए वो सीटें तो कांग्रेस छोड़ने से रही.

दो सीट (दतिया और पिपरिया) पर पार्टी की हालत इतनी खस्ता है कि पिछले चुनाव में उसने उन पर अपना उम्मीदवार तक नहीं उतारा था, जिनमें पिपरिया में तो पिछले तीन चुनाव पार्टी ने लड़े ही नहीं हैं.

चार सीट (चंदला, पवई, मैहर, सिंगरौली) पर पार्टी पिछले कई चुनाव से अपनी जमानत जब्त होने से भी नहीं बचा पा रही है.

बिजावर सीट भले ही पार्टी ने पिछले चुनाव में जीती, लेकिन उससे पहले उसे किसी भी चुनाव में वहां 3,000 से अधिक वोट नहीं मिले थे. इस सीट को जिताने वाले भी अब भाजपा में हैं.

केवल एक निवाड़ी सीट है, जहां पार्टी पिछले पांच चुनावों से लगातार मुकाबले में बनी हुई है.

वहीं, निवाड़ी के अतिरिक्त जिन सीट पर पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव में दूसरे पायदान पर रही थी, उनमें से तीन (पृथ्वीपुर, गुढ़ और परसवाड़ा) पर सपा की इससे पहले हमेशा जमानत जब्त होती आई थी. बाकी बची एक सीट (बालाघाट) पर भी अनुभा मुंजारे के (2013 में) सपा में आने से पहले तक पार्टी को वहां 500-600 वोट ही मिलते थे.

कुल मिलाकर देखें, तो मध्य प्रदेश में केवल निवाड़ी ही इकलौती ऐसी विधानसभा सीट है जो गठबंधन की स्थिति में समाजवादी पार्टी को दी जा सकती थी. हालांकि, यहां भी पार्टी का जनाधार सिर्फ और सिर्फ दीपनारायण सिंह यादव और उनकी पत्नी मीरा यादव के चलते है.

इन सीटों के विश्लेषण से जो वास्तविकता सामने आती है, वो यह है कि मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी का अस्तित्व केवल दूसरे दलों से आए असंतुष्ट नेताओं और दलबदलुओं के कारण है, अन्यथा पार्टी का स्वयं का वोटबैंक तो इतना भी नहीं है कि वह ‘वोटकटवा’ कहलाने की भी स्थिति में हो. हां, कांग्रेस-भाजपा के असंतुष्ट नेता सपा के चुनाव चिह्न पर लड़कर स्वयं के जनाधार या वोटबैंक के सहारे इन दोनों दलों का खेल जरूर बिगाड़ देते हैं.

बस जब कभी कोई राजेश शुक्ला, कंकर मुंजारे, अनुभा मुंजारे, अर्जुन पलिया, वंशमणि प्रसाद, कपिध्वज सिंह, डॉ. सुनीलम, राजेंद्र भारती, बहादुर बुंदेला या नारायण त्रिपाठी जैसा कांग्रेस-भाजपा से ठुकराया हुआ दलबदलू नेता सपा से टिकट लेकर चुनाव लड़ लेता है तो सपा राज्य की राजनीति में अपनी मौजूदगी दर्ज करा देती है. बाद में उन नेताओं के जाते ही पार्टी एक-एक वोट के लिए तरस जाती है. इन नेताओं का कद पार्टी से बड़ा इस तरह भी समझा जा सकता है कि ये लोग सपा में आने से पहले और सपा छोड़ने के बाद जिस भी दल से या निर्दलीय चुनाव लड़े, सफल ही हुए.

गठबंधन में जो 6 सीट अखिलेश यादव चाहते थे, वास्तव में उन सीटों पर सपा को जो भी वोट मिले वह पार्टी के न होकर पार्टी प्रत्याशी के थे. सपा को सफलता का स्वाद चखाने वाले लगभग ये सभी प्रत्याशी नेता वर्तमान में कांग्रेस और भाजपा में हैं और इनके जाते ही सपा के लिए एक विधानसभा क्षेत्र में 500-1,000 वोट पाना भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है.

इस लिहाज से देखा जाए तो गठबंधन में सपा को चार सीटें भी देना, जैसा कि दिग्विजय सिंह ने प्रस्ताव दिया था, कांग्रेस के लिए घाटे का सौदा होता.

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