दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में शामिल होने वाले विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रकाशकों की संख्या में लगातार कमी दर्ज की जा रही है.
विश्व पुस्तक मेले में भाषा के स्तर पर भारत की मौजूदगी का अध्ययन किया जाना चाहिए. हम इस बात का शोर तो सुनते हैं कि हिंदी विश्व की बड़ी भाषाओं में से एक है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? दूसरी बात कि हिंदी का वास्तविक विस्तार तभी संभव है जब वह अपने बीच कम से कम संविधान की आठवीं अनुसूची में दर्ज दूसरी भारतीय भाषाओं के बारे में सोचने का अवसर पैदा करें.
दिल्ली में आयोजित पिछले चार विश्व पुस्तक मेले का मीडिया स्टडीज ग्रुप ने एक तुलनात्मक अध्ययन किया है. भारत सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के तहत 1957 में नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना की गई थी जिसके मुख्य उद्देश्यों में भारतीय भाषाओं में समाज में पढ़ने की रुचि बढ़ाने के लिए विभिन्न स्तरों पर काम करना शामिल है. इसी उद्देश्य के तहत वह हर वर्ष विश्व पुस्तक मेले का आयोजन करता है.
सबसे पहले इन आंकड़ों पर गौर करने की जरूरत है कि पुस्तक मेले में शामिल होने वाले प्रकाशनों की संख्या साल-दर-साल घटती जा रही है. साल 2013 में प्रकाशनों की संख्या जहां 1098 थी वहीं 2014 में यह घटकर 1027 पर पहुंच गई. 2016 में यह 850 थी और 2017 में घटकर 789 हो गई है.
2015 की बात करें तो उस वर्ष शामिल होने वाले प्रकाशनों की डायरेक्टरी नहीं मिल सकी है लेकिन दूसरे स्रोतों से ये पक्की जानकारी है कि भागीदारों की संख्या के 2014 के मुकाबले गिरी.
2013 के विश्व पुस्तक मेले में भाषावार शामिल 1098 प्रकाशकों में अंग्रेजी के 643, हिंदी के 323, उर्दू के 44, संस्कृत के 18, मलयालम के 12, पंजाबी के 06, तमिल के 05, बांग्ला के 05, असमिया के 03, गुजराती के 02, मराठी 02, कश्मीरी 01, मैथिली 01, उड़िया 01, तेलुगू 02 और विदेशी प्रतिभागी 30 थे.
इन आंकड़ों से मेले में भारतीय भाषाओं की पुस्तकों के प्रकाशन और प्रकाशकों के हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है. अंग्रेजी की तुलना में हिंदी के प्रकाशकों की मौजूदगी आधी है लेकिन यह भी सच से काफी दूर है. हिंदी के प्रकाशकों की सही संख्या और भी कम है.
अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी के प्रकाशकों की मेले में जो मौजूदगी दिख रही है उनमें हिंदी के ऐसे बड़े प्रकाशक भी शामिल थे जिन्होंने 10-10 प्रकाशन गृह खोल रखे हैं और उन सभी प्रकाशन गृहों के नाम से मेले में स्टॉल आवंटित किए गए जबकि मेले में उनकी मौजूदगी उन बड़े प्रकाशन गृहों के नाम से नहीं होती है, बल्कि वे किसी एक प्रकाशन के बड़े बैनर के तहत जगह घेरने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले नाम भर हैं.
ऐसा हिंदी के नाम पर मिलने वाली रियायत का फायदा उठाने के लिए किया जाता है. 2013 में ऐसे 11 प्रकाशकों ने 93 स्टॉल लगाए. आंकड़ों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि इन 11 प्रकाशकों ने ही हिंदी के कुल स्टॉल्स में से 30 प्रतिशत स्टॉल लगाए. यानी लगभग तीन प्रतिशत हिंदी के प्रकाशकों के अधीन 30 प्रतिशत स्टॉल थे.
विश्व पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं की मौजूदगी ज्यादा से ज्यादा सुनिश्चित हो सके, इस तरह के प्रयास को भी काफी पीछे छोड़ा दिया गया है. इसके स्पष्ट संकेत भी मिलते हैं. इस तुलनात्मक अध्ययन में मेले में तीन प्रतिशत हिंदी के प्रकाशकों द्वारा 30 प्रतिशत स्टॉल लेने की आदत को आगे शामिल नहीं किया गया है क्योंकि यह एक स्थायी प्रवृत्ति बन चुकी है.
हिंदी के स्टॉलों के लिए दी जाने वाली सुविधाओं का लाभ कई प्रकाशन गृहों के नाम पर बड़े प्रकाशक ले लेते हैं और उन्हें इसकी एक तरह से स्वीकृति प्राप्त है. लिहाजा भारतीय भाषाओं और प्रकाशनों की संख्या के कम होते जाने का तुलनात्मक अध्ययन आगे दिया जा रहा है.
2014 के विश्व पुस्तक मेले में 1027 प्रकाशनों में अंग्रेजी के 596, हिंदी के 324, उर्दू के 41, बांग्ला के 09, मलयालम के 09, तमिल के 07, संस्कृत के 05, पंजाबी 04, असमिया 03, मराठी 01, उड़िया 01, सिंधी 01, तेलुगू 01 और विदेशी प्रतिभागी 25 थे. स्पष्ट है कि पुस्तक मेले में प्रकाशनों की भागीदारी की संख्या कम होने की प्रवृत्ति बढ़ने के संकेत हैं जो कि आने वाले वर्षों में और भी स्पष्ट होती है. दूसरा कई भारतीय भाषाओं के प्रकाशकों की मौजूदगी भी खत्म होने के संकेत मिलते हैं.
2016 के पुस्तक मेले में शामिल 850 में से अंग्रेजी के 483, हिंदी के 289, उर्दू के 21, पंजाबी के 10, मलयालम के 06, तमिल के 04, बांग्ला 04, उड़िया 02, असमिया 01, गुजराती 01, मराठी 01, सिंधी 01 और 27 विदेशी प्रतिभागी थे. 2013 की तुलना में 2016 में भारतीय भाषाओं में असमिया प्रकाशन की संख्या घटकर 01 पर पहुंच गई तो बांग्ला की 04, गुजराती की 01 और मराठी की भी 01 पर पहुंच गई.
दूसरी तरफ कश्मीरी, मैथिली, तेलुगू की उपस्थिति मात्र भी खत्म हो गई. तमिल प्रकाशनों की संख्या भी 04 पर पहुंच गई. केवल पंजाबी भाषा के प्रकाशनों की संख्या में इजाफा दिखाई देता है. इसी तरह उर्दू प्रकाशनों की संख्या आधे से भी कम हो गई.
2017 के विश्व पुस्तक मेले में भारतीय भाषाओं की उपस्थिति और भी कम हुई. कुल 789 प्रकाशनों में अंग्रेजी के 448, हिंदी के 272, उर्दू के 16, पंजाबी के 10, बांग्ला के 07, मलयालम के 06, संस्कृत 03, सिंधी 03, गुजराती 01, मराठी 01, उड़िया 01, तमिल 01, तेलुगू 01 और 19 विदेशी प्रतिभागी शामिल थे.
2016 में भारतीय भाषाओं की पुस्तक मेले में मौजूदगी कम होने का जो रुझान दिखाई दिया उसमें सुधार लाने के प्रयास किए गए लेकिन यह 2017 के पुस्तक मेले में दिखाई नहीं देता है. बल्कि उस रुझान की दिशा अपनी गति की तरफ तेजी से बढ़ती दिख रही है. 2013 के बाद 2016 में कुल प्रकाशनों की संख्या में जो कमी देखी गई, वह कमी 2017 में और बढ़ी है.
इस वर्ष मेले में गायब होने वाली भारतीय भाषाओं में असमिया शामिल हो गई जो कि उत्तर-पूर्व के राज्यों की एक बड़ी भाषा है. कश्मीरी, मैथिली में भी कोई सुधार दिखाई नहीं देता है. तेलुगू अपनी गैरमौजूदगी को मौजूदगी के रूप में दर्ज भर कराती है, लेकिन तमिल की संख्या पिछले मेले की तुलना में केवल 25 प्रतिशत रह गई. उड़िया की संख्या भी दो से एक हो गई. सिंधी और संस्कृत के प्रकाशकों की मौजूदगी में थोड़ा सुधार दिखाई दिया.
सिंधी के केवल एक प्रकाशन की उपस्थिति 2016 में थी जो 2017 में संस्कृत के बराबर तीन हो गई. 2016 में संस्कृत मेले से नदारद थी.
मेले में जिन भाषाओं की मौजूदगी लगातार घट रही उनमें से एक उर्दू है. उर्दू के प्रकाशनों की मौजूदगी 2016 के मुकाबले और कम हो गई. अगर 2013 से तुलना करें तो उसकी मौजूदगी 70 प्रतिशत के आसपास कम हुई है. इस तरह पिछले कई वर्षों से पुस्तक मेले में प्रकाशकों की कम होती हिस्सेदारी भारतीय भाषाओं के प्रकाशनों की स्थिति के कमजोर होते जाने का संकेत देती है.
दूसरा, भाषाओं के जरिये भारत विश्व के पटल पर अपने मुक्कमल रूप में मौजूद नजर नहीं आता. भाषावार प्रकाशनों में बड़े प्रकाशकों के व्यवसाय का विस्तार हुआ है. लेकिन भाषाओं के प्रकाशनों की वास्तविक संख्या में बढ़ोतरी देखने को नहीं मिल रही है. वास्तविक संख्या में बौद्धिक विमर्श को विस्तार देने वाली और मौलिक प्रकाशनों की कमी बढ़ रही है.
हिंदी में स्टॉल की जो संख्या दिख रही है, उनका विश्लेषण करें तो बड़ी संख्या में धर्म-कर्म, कर्मकांडी, जादू-टोना, अश्लील साहित्य की दुकानें हैं. पुस्तक मेले में स्टॉल और स्टैंड के बीच भी एक खाई साफ दिखती है. स्टैंड को मेले की फुटपाथी दुकान के रूप में देखा जा सकता है लेकिन स्टैंडों पर बौद्धिक विमर्शों और मौलिक प्रकाशनों की संख्या बढ़ रही है.
(लेखक मीडिया स्टडीज ग्रुप के चेयरमैन व मासिक शोध पत्रिका जन मीडिया के संपादक हैं)