शीर्ष मुस्लिम नेताओं ने ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में हिंदू पूजा की अनुमति देने वाले वाराणसी अदालत के फैसले पर निराशा व्यक्त की है. उन्होंने कहा कि (अब ध्वस्त) बाबरी मस्जिद स्थल को हिंदू पक्ष को सौंपने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हिंदुत्ववादी ताक़तों को देश भर में मुस्लिम पूजा स्थलों पर दावा करने का रास्ता दिखा दिया है.
नई दिल्ली: भारत के शीर्ष मुस्लिम नेताओं ने बीते शुक्रवार (2 फरवरी) को ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में हिंदू पूजा की अनुमति देने वाले वाराणसी अदालत के फैसले पर कड़ी आपत्ति जताई. उनका मानना है कि यह न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संवैधानिक मूल्यों के सिद्धांतों का न्यायिक पतन है, जिस पर उन्होंने गहरी निराशा व्यक्त की.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल बोर्ड के अध्यक्ष मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने कहा, ‘वाराणसी कोर्ट के जज ने न केवल मुस्लिम समुदाय की याचिका की उपेक्षा की, बल्कि उन करोड़ों हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों की उपेक्षा की जो मानते हैं कि यह देश आस्थाओं और धर्मों का एक गुलदस्ता है.’
उन्होंने आगे कहा कि वाराणसी कोर्ट ने जल्दबाजी में फैसला सुनाया, सबूतों और तथ्यों को नजरअंदाज किया और पूजा स्थल अधिनियम-1991 को मानने से इनकार कर दिया, जो किसी भी पूजा स्थल के स्वभाव और प्रकृति में परिवर्तन पर रोक लगाता है. अगर पूजा स्थल अधिनियम को अदालतों द्वारा बरकरार नहीं रखा जाता है, तो हम इसी तरह के एपिसोड देख सकते हैं, जो देश में अंतहीन सांप्रदायिक संघर्ष को जन्म दे सकते हैं.
जमीयत-उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष सैयद अरशद मदनी ने कहा, ‘भारतीय मुसलमानों ने अंग्रेजों से भारत की आजादी हासिल करने में समान भूमिका निभाई है, लेकिन फिर भी उन्हें समय-समय पर सांप्रदायिक अलगाव का सामना करना पड़ा. हालांकि, वर्तमान समय में न्यायपालिका से किसी राहत के बिना समुदाय के लिए ऐसी परेशानियां तेज हो गई हैं. इससे हमें केवल यह महसूस होता है कि भारत का कानून और अदालतें दोनों ही वर्तमान सरकार के बहुसंख्यकवादी एजेंडे के लिए रास्ता साफ करने हेतु अधिक नरम हो गई हैं.’
उन्होंने कहा कि (अब ध्वस्त) बाबरी मस्जिद के स्थल को हिंदू पक्ष को सौंपने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भानुमती का पिटारा खोल दिया है और हिंदुत्ववादी ताकतों को देश भर में मुस्लिम पूजा स्थलों पर दावा करने का रास्ता दिखा दिया है.
उन्होंने कहा, ‘किसी को तो यह पूछना होगा कि अगर ऐसे हालात हैं, तो यह देश कैसे चलेगा और समृद्ध होगा. सरकार को सोचना होगा कि वह देश को किस दिशा में ले जा रही है.’ साथ ही उन्होंने कहा कि ‘फूट डालो और शासन करो’ की ब्रिटिश नीति भारत में आज भी अपनाई जा रही है.’
इसी तरह जमात-ए-इस्लामी के मलिक मोहतसिम खान ने कहा, ‘मुसलमानों का न्यायपालिका और प्रशासन से भरोसा उठ गया है. ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में हिंदुओं को पूजा करने की सुविधा प्रदान करने में प्रशासन की तत्परता को अदालत के आदेश के कुछ घंटों के भीतर बैरिकेड खोलने के तरीके में देखा जा सकता है, इस तथ्य के बावजूद कि अदालत ने ऐसा करने के लिए सात दिन का समय दिया था.’
खान ने ज्ञानवापी मस्जिद मामले में हस्तक्षेप करने से उच्च न्यायालयों के इनकार के बारे में बात करते हुए हताशा में पूछा, ‘अगर अन्याय और शोषण के शिकार लोग अदालतों में अपील नहीं कर सकते हैं, तो उन्हें कहां जाना चाहिए.’
खान ने कहा, ‘हमने हमेशा मुस्लिम समुदाय से धैर्य बनाए रखने और शांति बनाए रखने की अपील की है. लेकिन हम ऐसा कब तक कर पाएंगे? अगर मुसलमानों ने अपना धैर्य खो दिया तो यह तय है कि उन्हें नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन देश को भी उस हताशा की कीमत चुकानी पड़ेगी.’
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अधिकारी एनए फारूकी ने कहा, ‘हमारी कई अपील के बावजूद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप नहीं किया, वो भी इस तथ्य के बावजूद कि निचली अदालतों के ऐसे फैसलों में देश को मौलिक रूप से बदलने की क्षमता है.’
उन्होंने कहा कि मुस्लिम समुदाय को यह महसूस कराया जा रहा है कि अदालतें भी ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ कहावत को आगे बढ़ा रही हैं.
ज्ञानवापी मस्जिद फैसले के बाद मुस्लिम नेताओं द्वारा न्यायिक निष्क्रियता की निंदा राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले पर 2019 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उनके रुख के बिल्कुल विपरीत है. तब उन्होंने शीर्ष अदालत के फैसले को शालीनता से स्वीकार कर लिया था. उन्होंने मुस्लिम समुदाय से शांति व्यवस्था बनाए रखने की अपील भी की थी.
हालांकि, अदालतों में एक के बाद एक ऐसे फैसले और वाराणसी, मथुरा और अन्य शहरों में मस्जिदों पर अतिक्रमण करने की हिंदुत्ववादियों की आक्रामक योजनाओं ने उन्हें पहली बार न्यायपालिका की निंदा करने के लिए प्रेरित किया है.
नेताओं ने अपने बयान में कहा, ‘हम वाराणसी जिला न्यायाधीश द्वारा सुनाए गए फैसले पर गहरा आश्चर्य और निराशा व्यक्त करते हैं. हमारे दृष्टिकोण में यह निर्णय बेहद गलत और निराधार तर्क पर आधारित लगता है, जिसमें कहा गया है कि सोमनाथ व्यास का परिवार 1993 तक ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने में पूजा करता था और इसे राज्य सरकार के आदेश पर बंद कर दिया गया था. इसके अलावा 24 जनवरी को उसी अदालत ने तहखाने की देखरेख जिला प्रशासन को सौंप दी.’
बयान में कहा गया है कि ‘इस तहखाने में कभी कोई पूजा नहीं की गई’ और फैसला ‘एक बेतुके और निराधार दावे’ पर आधारित है.
बयान में कहा गया है, ‘समान रूप से चिंता का विषय हिंदू पक्ष द्वारा पुरातत्व सर्वेक्षण रिपोर्ट का प्रेस में एकतरफा खुलासा करना भी है, जो समाज में खलबली का कारण है. महत्वपूर्ण बात यह है कि रिपोर्ट वर्तमान में केवल एक दावा है, क्योंकि अदालत में इस पर चर्चा नहीं हुई है या इसकी पुष्टि नहीं हुई है.’
नेताओं ने यह भी कहा कि ‘प्रशासन द्वारा जिला अदालत के आदेश का शीघ्र निष्पादन स्पष्ट रूप से हाईकोर्ट से तत्काल राहत पाने के मस्जिद के अधिकार को कमजोर करने के लिए था.’
लोकतंत्र में अदालतों को ‘न्याय का अंतिम आश्रय’ करार देते हुए मुस्लिम नेताओं ने कहा कि हाल के फैसले ‘बहुसंख्यक न्यायपालिका’ के निर्माण का संकेत देते हैं.
नेताओं ने ‘संवैधानिक अधिकारियों’ से ‘न्यायिक प्रणाली की निष्पक्षता’ सुनिश्चित करने की अपील की.
साथ ही उन्होंने अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ से समय मांगा है.
मालूम हो कि बीते 31 जनवरी को वाराणसी जिला अदालत ने एक पुजारी के परिवार को ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के अंदर ‘व्यास जी के तहखाने’ में पूजा करने का अधिकार दे दिया था.
याचिकाकर्ता के अनुसार, व्यास परिवार द्वारा नियुक्त हिंदू पुजारी 1993 से पहले परिसर के भीतर इस स्थान पर मंदिर में दैनिक अनुष्ठान करते थे, जब तक कि राज्य सरकार के आदेश पर इसे रोक नहीं दिया गया.
इसके बाद 1 फरवरी को वाराणसी की एक अदालत द्वारा ज्ञानवापी मस्जिद के तहखाने के अंदर पूजा करने की अनुमति देने के आदेश के 24 घंटे से भी कम समय में जिला प्रशासन ने उक्त स्थान पर पूजा-अर्चना करवाई थी.
अदालत के इस फैसले को अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, हालांकि बीते 2 फरवरी को अदालत ने तत्काल कोई राहत देने से इनकार कर दिया. मामले को अब नए सिरे से 6 फरवरी को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया गया है.
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