यूजीसी की ‘डीरिज़र्वेशन’ योजना आरक्षण को बेहद चालाकी से ख़त्म कर देने का इंतज़ाम है

क्या भाजपा सरकार 'योग्य उम्मीदवार' न मिलने का बहाना बनाकर रफ़्ता-रफ़्ता इस संविधानप्रदत्त अधिकार को ख़ारिज करने की योजना बना रही है?

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यूजीसी के मसौदा दिशानिर्देशों के खिलाफ छात्र संगठनों का इसके दिल्ली स्थित मुख्यालय पर प्रदर्शन. (फोटो: अतुल होवाले/द वायर)

क्या भाजपा सरकार ‘योग्य उम्मीदवार’ न मिलने का बहाना बनाकर रफ़्ता-रफ़्ता इस संविधानप्रदत्त अधिकार को ख़ारिज करने की योजना बना रही है?

यूजीसी के मसौदा दिशानिर्देशों के खिलाफ छात्र संगठनों का इसके दिल्ली स्थित मुख्यालय पर प्रदर्शन. (फोटो: अतुल होवाले/द वायर)

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हाल के वक्त़ में अक्सर सुर्खियों में रहता आया है. अकादमिक वजहों से कम बल्कि गैर-अकादमिक विवादास्पद वजहों से. फिलवक्त़ यह आकलन करना मुश्किल है कि क्या यह सिलसिला तभी से बढ़ा है, जबसे प्रोफेसर एम. जगदीश कुमार उसके चेयरमैन बने हैं. याद रहे छह साल तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति थे और वहां पर भी अपने कई प्रस्तावों से और कार्यप्रणाली से अलोकप्रिय हो चुके थे- जिनमें एक यह प्रस्ताव भी था कि शिक्षा संस्थानों के परिसरों में फौजी टैंक खड़ा करना चाहिए ताकि छात्रों में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ सके.

अभी दिसंबर माह की ही बात है जब आयोग द्वारा अलग-अलग शिक्षा संस्थानों को यह प्रस्ताव भेजा गया था कि वह अपने परिसरों में खास-खास जगहों पर भारत की उपलब्धियों के बारे में युवाओं को जागरूक करने के लिए एक पूर्व निर्धारित तरीके से सेल्फी पॉइंट बनाए जिसमें प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर भी हो. साफ है कि एक तरफ जहां छात्रों के मुद्दे लटके रह जाते हैं, उस पृष्ठभूमि में ‘शिक्षा के इस राजनीतिकरण’ का काफी विरोध हुआ.

इस सेल्फी पॉइंट से उठी बहस ठंडी भी नहीं हुई थी कि उसकी तरफ से एक दूसरे मुद्दे को खोला गया. डीरिजर्वेशन को लेकर अर्थात आरक्षित पदों को समाप्त करने को लेकर लोगों की राय जानने के नाम पर एक मसविदा प्रस्ताव भेजा गया, जिस पर 28 जनवरी तक अपनी राय भेजनी थी. इस प्रस्ताव का निचोड़ यही था कि अगर किसी आरक्षित पद के लिए ‘सूटेबल’ उम्मीदवार न मिले तो इस पद को आरक्षण से हटा दिया जाए और वहां आम भर्ती हो सके.

बेहद मासूम से दिखने वाले इस प्रस्ताव- जिसमें केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के आरक्षण समाप्त करने के कई गोपनीय और कहीं प्रत्यक्ष प्रयासों की बू आ रही थी- का अलग-अलग स्तरों पर विरोध हुआ. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से लेकर देश के कुछ अन्य शिक्षा संस्थानों में पिछले दरवाजे से आरक्षण समाप्त करने के इस प्रस्ताव की भर्त्सना की और इसे वापस लेने के लिए कहा.

गौरतलब था कि कांग्रेस पार्टी से लेकर अन्य विपक्षी पार्टियों ने भी संविधान द्वारा सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबकों के लिए प्रदत्त आरक्षण की नीतियों को कमजोर करने या उन्हें खोखला करने के सत्ताधारी सरकार के प्रयासों का विरोध किया.

अग्रणी अध्यापक संगठनों तथा वंचित जातियों के प्रतिनिधियों ने अपने बयान में सरकार के सामने स्पष्ट किया कि

‘एफर्मेटिव एक्शन/ आरक्षण से जुड़ी नीतियों से सम्बन्धित संवैधानिक प्रावधान महज शब्द नहीं हैं, लेकिन एक संवैधानिक प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति है.. आज़ादी के बाद इस दिशा में हम लोगों ने जो कुछ प्रगति की है, उसे समाप्त करना चाहती है. डीरिजर्वेशन को लागू करने का प्रस्ताव अपने आप में अत्यंत अनर्गल/असंगत/बेहूदा कार्रवाई है. डीरिजर्वेशन का प्रावधान दरअसल आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवारों के खिलाफ खुल्लमखुल्ला भेदभाव को बढ़ावा देगा.’

अंततः मानव संसाधन मंत्रालय की तरफ से हस्तक्षेप किया गया और कहा गया कि ऐसा कोई प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है.

गौरतलब था कि चार सदस्यों की एक कमेटी ने इस प्रस्ताव को तैयार किया था, जिसकी अध्यक्षता इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक ने की थी, जिसमें केंद्रीय उच्च शिक्षा संस्थानों में अध्यापकों, अधिकारियों और विश्वविद्यालय कर्मचारियों के लिए आरक्षित पदों पर एक अध्याय था.

मालूम हो कि ‘डीरिजर्वेशन’ के इस मसविदा प्रस्ताव की जबरदस्त विपरीत प्रतिक्रिया देख कर औपचारिक तौर पर कहा गया है कि ऐसी कोई योजना नहीं है, लेकिन संदेह अभी भी बरकरार है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष प्रोफेसर जगदीश कुमार के अस्पष्ट से वक्तव्य से यही बू आ रही थी. उन्होंने वक्तव्य दिया कि मसविदा दिशानिर्देश हटा दिए गए हैं, लेकिन उसकी वजह थी कि उसके लिए तय समयसीमा समाप्त हो गई थी.

वैसे यह सोचना मासूमियत की पराकाष्ठा होगी कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग- खासकर उसके चेयरमैन प्रोफेसर जगदीश कुमार ने आरक्षण समाप्त करने के मामले में गाइडलाइन तैयार करने के लिए पहले शिक्षा मंत्रालय से संपर्क नहीं किया होगा, मंत्रालय से सलाह नहीं ली होगी.

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अभी पिछले साल की ही बात है जब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सुर्ख़ियों में आया था ‘जाति को लेकर अपनी दृष्टिहीनता (caste blindness) की वजह से.

याद रहे विद्यार्थियों की शिकायतें दूर करने के लिए जिन नए नियमों को बनाया गया था उसमें जातिगत विभेद के मसलों को भी आम  शिकायतों से जोड़ा गया था. इन नए नियमों से यह राय बनती दिख रही थी कि यूजीसी जैसी संस्था, जिसे उच्च शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता बनाए रखने के लिए और उन्हें वित्तपोषित करने के लिए बनाया गया है, जहां उसकी जिम्मेदारी है कि वह सभी परिसरों में गैर-भेदभावपूर्ण वातावरण को बढ़ावा दे- वह या तो इस मसले को लेकर अनभिज्ञ है या लापरवाह है.

और यह सब ऐसी तमाम घटनाओं के बावजूद कि हाल के समयों में उच्च शिक्षा संस्थान जाति तथा अन्य उत्पीड़न के नए अड्डे बन रहे हैं, जिसमें कई मामलों की परिणति युवा स्काॅलर्स की आत्महत्याओं में हुई है. अभी ज्यादा माह नहीं बीता जब आईआईटी दिल्ली से तीन छात्रों की आत्महत्या की ख़बर आई, ऐसी ही ख़बरें अन्य आईआईटी से आई.

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के इन नियमों को देखकर यही लग रहा था कि जब पहले से इस मामले में उचित ढांचे बनाए गए हैं, जिसके लिए विशेषज्ञों एवं  शिक्षाविदों की राय ली गई है, तब फिर नए नियम बनाने का क्या औचित्य है? क्या उससे इतनी उम्मीद करना गलत होता कि वह इसके पहले उठाए गए कदमों की पहले पड़ताल कर ले.

याद रहे शिक्षा संस्थानों मे समान अवसर इकाइयां – इक्वल ऑपर्च्युनिटीसेल- भी बनी हैं, जिसकी नींव अखिल भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थान में उजागर हुई जातिगत भेदभाव की घटनाओं के बाद संपन्न जांच में पड़ी थी. याद रहे वर्ष 2006 की शुरुआत में यह संस्थान आक्रामक किस्म के आरक्षण विरोधी आंदोलन का गढ़ बना था, जिन दिनों अनुसूचित जाति-जनजाति के छात्रों के साथ हो रही प्रगट जातिगत भेदभाव की तमाम घटनाएं सामने आई थीं, यहां तक कि कथित वर्चस्वशाली जाति के छात्रों के उत्पीड़न से उत्पीड़ित तबके के छात्रों के अपने आवंटित कमरों को छोड़कर कहीं एक साथ रहने के लिए मजबूर होने की घटनाएं भी सामने आई थी.

उसके बाद प्रोफेसर सुखदेव थोराट की अगुआई में कमेटी बनी थी, जिसने विधिवत जांच के बाद अपनी रिपोर्ट पेश की थी.

शिकायतों को दूर करने के लिए जारी यह नोटिफिकेशन उस वातावरण के साथ भी असंगत लगा, जहां अब निरंतर मांग हो रही है कि शिक्षा संस्थानों में रोहित एक्ट लागू किया जाए.

याद रहे रोहित वैमुला जैसे मेधावी छात्र द्वारा हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के प्रशासन के कथित जातिवादी रवैये के चलते की गई आत्महत्या के बाद, जिस मौत को संस्थागत हत्या (institutional murder)  कहा गया और जिसने एक देशव्यापी आंदोलन को जन्म दिया था. शिक्षा संस्थानों के परिसरों में निर्भया एक्ट की तर्ज पर, वंचित तबकों के छात्रों के सुरक्षित वातावरण को सुनिश्चित करने के लिए रोहित एक्ट को लागू करने की मांग उठती रही है.

दरअसल उच्च शिक्षा संस्थानों में आत्महत्याओं की घटनाओं में कमी न आने के चलते ऐसी मांग अधिक तेज होती गई है.

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा प्रस्तावित इन नियमों – जिनमें आम शिकायतों के साथ जातिगत भेदभाव की शिकायतों को मिला देने का तरीका रखा गया था, से एक तरह से इस मामले में उसकी घोर असंवेदनशीलता और इस हक़ीकत से इनकार को ही प्रतिबिंबित कर रहा था.

वे सभी जिन्होंने हाल के वर्षों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की यात्रा को देखा है और उसके रुख की समीक्षा की है, बता सकते हैं कि इन नियमों में कोई भी बात आश्चर्यजनक नही दिखती.

यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ही प्रख्यात जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जागरूक अध्यापकों की पहल पर बनी छात्रों की अनोखी प्रवेश प्रक्रिया को लगभग खत्म कर दिया, जिसके तहत वहां ‘वंचना के सूचकांकों’ के आधार पर प्रवेश दिया जाता था, जिसका परिणाम था कि जो छात्र अधिक पिछड़े इलाके से या अधिक गरीब परिवार से आया है, उसका प्रवेश तय हो जाता था. यह ऐसी प्रवेश प्रक्रिया थी, जिसने ‘हाशिये पर पड़े लोगों के लिए शिक्षा का अवसर सुगम किया था.’

इस योजना की न केवल अपने मुल्क में बल्कि बाहर भी काफी तारीफ हुई जिसके तहत न केवल महिलाओं बल्कि अन्य सामाजिक और धार्मिक तौर पर हाशिये पर पड़े समूहों से आने वाले छात्रों के लिए विश्वविद्यालय वाकई एक विविधतापूर्ण जगह बनी थी. वैसे आयोग का भले ही प्रतिकूल रुख रहा हो, ख़बर यह भी आई है कि छात्रों एवं अध्यापकों द्वारा जो निरंतर प्रतिरोध जारी रखा गया, इसके चलते अब इसी प्रणाली के वापसी के आसार बन रहे हैं, अलबत्ता देखना होगा कि वह कहां तक बहाल हो पाती है.

अब भले ही विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अधिसूचित यह नियम हों या डीरिजर्वेशन को लेकर जारी ड्राफ्ट गाइडलाइंस  हों, यह नहीं कहा जा सकता कि वह किसी खास नौकरशाह, या कोई अध्यापक/कुलपति या किसी अदद मंत्री के दिमाग की उपज हैं, यह दोनों कदम- फिर चाहे जाति के अस्तित्व को ही धूमिल कर देना है या संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक उत्पीड़न पर आधारित आरक्षण को ही बेहद चालाकी के साथ समाप्त कर देने का इंतज़ाम कर देना हो- एक तरह से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भाजपा के चिंतन का ही प्रतिबिंबन करते हैं

याद रहे कि हिंदू एकता की परियोजना जो भविष्य के हिंदू राष्ट्र का आधार बनेगी, उस जमीन पर लड़खड़ाने लगती है, जहां इस बात को स्वीकारा जाता है कि उसमें आंतरिक असंगतियां हैं और बहिष्करण की प्रणालियां मौजूद हैं- जब बताया जाए कि हिंदू धर्म/हिंदू समाज में उसकी ऐतिहासिक जड़े हैं और किस तरह कथित ऊंची जाति के लोगों ने निम्न कही जाने वाली जातियों पर सदियों से जुल्म और अन्याय बरपा किया है और उनकी बुनियादी मानवता को मानने से भी इनकार किया है.

जाहिर है कि ‘डीरिजर्वेशन अर्थात आरक्षण समाप्त करने से लेकर जारी ड्राफ्ट गाइडलाइंस को वेबसाइट से हटा दिया गया है, शायद उनका मकसद पूरा हो गया, लेकिन हक़ीकत यही है कि उसने तमाम लोगों की राय को एकत्रित किया है. और भविष्य में जब भी अनुकूल स्थिति बनेगी, वह बात को आगे बढ़ने से नहीं चूकेगी.

(सुभाष गाताडे वामपंथी एक्टिविस्ट, लेखक और अनुवादक हैं.)