क्या उत्तराखंड के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड का सहारा लिया गया है?

उत्तराखंड के सुदूर गांवों, तहसीलों और क़स्बों में आम आदमी और लिखे-पढ़े लोग भी पूरी तरह भ्रमित हैं कि बेशुमार समस्याओं से घिरे इस छोटे-से प्रदेश में अफ़रा-तफ़री में पारित हुए विवादास्पद यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल से उनकी ज़िंदगी किस तरह से बदलेगी.

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(प्रतीकात्मक फोटो: अतुल होवाले/द वायर)

उत्तराखंड के सुदूर गांवों, तहसीलों और क़स्बों में आम आदमी और लिखे-पढ़े लोग भी पूरी तरह भ्रमित हैं कि बेशुमार समस्याओं से घिरे इस छोटे-से प्रदेश में अफ़रा-तफ़री में पारित हुए विवादास्पद यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल से उनकी ज़िंदगी किस तरह से बदलेगी.

(प्रतीकात्मक फोटो: अतुल होवाले/द वायर)

उत्तराखंड के सुदूर गांवों, तहसीलों और कस्बों में आम आदमी और लिखे-पढ़े लोग भी पूरी तरह भ्रमित हैं कि बेशुमार समस्याओं से घिरे इस छोटे-से प्रदेश में विवादास्पद यूनिफॉर्म सिविल कोड कानून (यूसीसी) लाने और इसे इतनी अफरातफरी में विधानसभा में पारित कराने की भाजपा सरकार को इतनी जल्दी क्या थी. आर्थिक अभावों में और चौतरफा चुनौतियों से जूझ रहे लोगों के लिए इसके फायदे क्या होंगे. जनता की चुनी सरकार उन्हें पहले से क्यों नहीं बताती कि इस कानून के पास होने से उनकी जिंदगी और तकदीर किस तरह से बदलेगी.

इस गहरी दुविधा और भ्रम बढ़ने का एक बड़ा कारण यह भी है कि अजीबोगरीब विधेयक पेश और पारित होने के पहले उत्तराखंड के सिविल सोसाइटी, आंदोलनकारी राज्य के कानूनविदों, महिला संगठनों, युवा प्रतिनिधियों में किसी ने प्रावधानों की भनक तक नहीं लगने दी.

आखिर ऐसी क्या वजह कि इतने गंभीर विषय, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों और दूसरे धर्म के आंतरिक कानूनों को निरस्त करने की हद तक जा रहा हो और लोगों की व्यक्तिगत और निजता और पुरुष-महिला की मान मर्यादा के अधिकार में सीधा दखल देता हो, उसे चुटकियों और शेरों-शायरी के हल्के अंदाज में पारित करने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई गई.

विडंबना यह भी है कि सरकार की मंशा पर सवाल उठाने वाले विपक्ष के सवालों का जवाब देने के बजाय आपत्तिजनक टीका-टिप्पणियां करने से जरा भी परहेज नहीं किया गया. इसके प्रावधानों के बारे में विवाद और तेज हो गए हैं.

लोगों को इस बात से आश्चर्य है कि विधेयक के प्रावधानों के बारे में इसे पेश होने के पहले विधायकों को रत्ती भर भी पता नहीं था कि विधेयक में क्या है और सदन में पेश करने के पहले दिन या कुछ दिन पहले इसमें निहित प्रावधानों के बारे में विपक्षी दलों के नेताओं को भरोसे में लेने की चेष्टा क्यों नहीं की गई.

गंभीर प्रश्न हैं कि परिवार में बराबरी का अधिकार, पति की क्रूरता और विवाहेतर रिश्तों समेत कई पारिवारिक विवादों को जिस तरह से एक राज्य की विधानसभा में पारित कर दिया, उसे आखिर पूरे भारत के संविधान के प्रावधानों के समकक्ष कैसे खड़ा किया जाएगा. सवाल इसलिए अहम है कि उत्तरारखंड में नया यूसीसी कानून पारित होने के बाद क्या उत्तराखंड की न्यायिक सेवाएं अब भारत के संविधान के ढांचे से आजाद हो जाएंगी?

इस तरह के सवालों के जवाब उत्तराखंड के आम आदमी के कौन देगा.

उत्तराखंड हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता बीपी नौटियाल कहते हैं, ‘राज्य की विधानसभा में यूसीसी का जो कानून पारित हुआ उसमें हिंदुओं के कई ऐसे कानून छिन जाएंगे जिनके बार में संयुक्त हिंदू परिवार से संबद्ध कानून में पुख्ता प्रावधान हैं. अगर यूसीसी लागू हुआ तो भारत का संविधान जो पूरे देश का है वह महज एक राज्य के लिए कैसे निष्प्रभावी मान लिया जाएगा.’

बकौल उनके, एक विविध और सेकुलर संविधान के चलते कोई राज्य कैसे विभिन्न धर्मों के कानूनों में अतिक्रमण कर सकता है.

दूसरे विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत के संविधान और सुप्रीम कोर्ट की ढांचे में किसी राज्य के समानांतर कानून, जो संपूर्ण कानूनी व्यवस्था में दखल देते हों, टिक नहीं सकेंगे.

आम लोगों के मन में यह भी सवाल उठ रहे हैं कि क्या उत्तराखंड के ज्वलंत मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए इस तरह के विवादास्पद कानूनों का सहारा लिया गया. पहाड़ के घर-घर में कई लिखे पढ़े बेरोजगार मिलेंगे. विवादास्पद अग्निवीर भर्ती व्यवस्था का सबसे बड़ा हमला उत्तराखंड के उन नौजवानों के परिवारों पर पड़ा है, जो अरसे से सेना में भर्ती होकर परिवार की आर्थिक सुरक्षा का सहारा बनते थे .

अब हालात ये हैं कि सुदूर क्षेत्रों में निरंतर खाली हो रहे गांवों और कस्बों में बेरोजगारों की फौज हर जगह दिख रही है. राज्य बनने के बाद लाखों की तादाद में उत्तराखंड के गांवों और शहरों से पढ़ाई और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की खातिर लोग हमेशा के लिए बाहरी शहरों में चले गए.

कई प्रबुद्ध लोगों में आम धारणा यह भी है कि अयोध्या में चूंकि अब राम मंदिर बन चुका है सो अब 2024 के चुनावों और उसके बाद देशव्यापी उथलपुथल और वोटों के ध्रुवीकरण के लिए अब यूनिफॉर्म सिविल कोड जैसे मुद्दों को हवा देकर देश में तात्कालिक और दूरगामी दोनों ही भाजपा का सोचा समझा एजेंडा है.

उत्तराखंड के कई कानूनविदों को चिंता है कि 2024 में मोदी सरकार के दोबारा सत्ता में आने की सूरत में सर्वोच्च न्यायपालिका के लिए नई चुनौतियों का दौर आ सकता है.

उत्तराखंड कहने को हिमालयी राज्यों में शुमार है, स्थापना के तेईस और अपने मकसद में पूरी तरह विफल हो चुके इस राज्य में ढाई दशक में पांच निर्वाचित सरकारें सत्ता में आईं. लेकिन बेशुमार समस्याओं से घिरे उत्तराखंड में सत्ता में बैठे लोगों और यहां के संसाधनों की बंदरबांट में शामिल सरकार में बैठे लोग और मलाईदार पदों पर काबिज नौकरशाही को छोड़ हर कोई हताश और निराश है.

सुदूर पहाड़ और मैदानी क्षेत्रों में घर-घर का सर्वे करने की सरकार में हिम्मत नहीं. इसलिए कि जो नौजवान राज्य के लिए हुए आंदोलन के दौर और अलग पर्वतीय राज्य की स्थापना के दिनों में जन्में थे, अब शिक्षित और पढ़ाई की डिग्रियां होने के बाद भी उनके पास रोजगार नहीं है. बड़ी तादाद में नौजवानों की शादी की औसत आयु पार हो चुकी है. अब परिवार वाले ऐसे नौजवानों की शादियां करने का जोखिम इसलिए नहीं उठा पा रहे क्योंकि 30-35 आयु पार करने के बाद भी न कोई सम्मानजनक नौकरी है और न कोई कमाई का जरिया हाथ में है.

निस्संदेह उत्तराखंड राज्य बनाने का मौलिक और सबसे बड़ा उद्देश्य ही सुदूर पर्वतीय जिलों मे शिक्षा, अस्पताल, सड़क, बिजली, पानी जैसी मौलिक सुविधाओं को जुटाकर शहरों की ओर पलायन रोकना था. लेकिन राज्य बनने में जितने साल बीते करीब उतने ही गुना पहाड़ों से पलायन तेज होता गया. जनता के साथ नेता और जन प्रतिनिधि भी दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों से सुरक्षित मैदानी क्षेत्रों में पलायन कर गए.

अब वह दिन दूर नहीं जब 85 प्रतिशत पर्वतीय भूभाग और 15 प्रतिशत से भी कम तराई और मैदानी क्षेत्रों में विकास, अधिकार और संसाधनों के बंटवारे को लेकर सामाजिक संघर्ष की उथलपुथल हो सकती है.

उत्तराखंड के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता और इतिहासकार प्रोफेसर शेखर पाठक कहते हैं, ‘जिस जल्दबाजी में विधेयक पारित किया गया वह निश्चित ही आम चुनावों के वक्त देश में धार्मिक ध्रुवीकरण के एजेंडा के तहत लाया गया. सरकार के इस छिपे एजेंडा का उत्तराखंड राज्य के समक्ष खड़ी चुनौतियों से कोई चिंता नहीं झलकती.’

आम धारणा है कि राज्य में सरकारी नौकरियां बाहरी प्रदेशों के लोगों को मोटा पैसा देकर बेचने का धंधा सरकार में बैठे लोगों और माफिया के नेटवर्क के जरिये वर्षों से चल रहा है. कई लोग जेल भी गए और फिर बाहर आ गए. भ्रष्टाचार और घोटालों के मुद्दे कांग्रेस व भाजपा के लोग सिर्फ चुनावी भाषणों में उठाते हैं और फिर पांच साल तक गहरी नींद सो जाते हैं.

असंतोष की चिंगारियां लोगों के मन में निरंतर सुलग रही हैं. पहाड़ों में शिक्षा, स्वास्थ्य और मूलभूत समस्याओं से जूझ रहे पर्वतीय और शहरी क्षेत्रों में लोग बदहाली और हताशा में जीवन जीने को अभिशप्त हैं. उत्तराखंड में भू कानून लाने, वहां की जल, जमीन, जंगल और नौकरियों पर राजनीतिक सरंक्षण प्राप्त माफिया कब्जा कर चुके हैं. उन्नीस साल की अंकिता भंडारी की डेढ़ साल पहले भाजपा नेता के ऋषिकेश के निकट रिसॉर्ट में हत्या हुई. हत्या के पीछे भाजपा और आरएसएस के जिस रसूखदार वीआईपी का नाम मृतक के परिवार ने सरकार को बताया, उस शख्स की गिरफ्तारी तक नहीं हूई. पूरे हत्याकांड में न्याय पाने की उम्मीदें खत्म कर दी गईं.

आपदाओं से पूरा हिमालयी क्षेत्र त्राहिमाम है. दो साल से जमीन धंसने से खाली कराए गए जोशीमठ में तबाह हुए परिवार अभी खानाबदोश हालात में जीवन जी रहे हैं. हिमालयी क्षेत्रों को तबाह करने वाली विकास योजनाओं का हश्र पूरे देश और दुनिया ने सिलक्यारा में बखूबी देख लिया कि किस तरह सत्ता की गोद में बैठी निर्माण एजेंसियों ने श्रमिकों की जान की परवाह किए बिना ज्यादा मुनाफाखोरी के चक्कर में विवादास्पद चारधाम यात्रा की टनलों में सुरक्षा कदमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाईं और कई सप्ताह सुरंग में फंसे श्रमिकों की जान खतरे में पड़ी. सत्ता के सौदागर अपनी पीठ थपथपाकर चलते बने. पहाड़ों में प्रकृति और जनजीवन से खिलवाड़ करने वाली निर्माण कंपनियों के ठिकानों पर कोई सीबीआई-ईडी नहीं भेजी गई.

सुदूर गांवों में गुलदार और बाघ हर साल दर्जनों महिलाओं व बच्चों को निवाला बना रहे हैं. देहरादून में बैठे लचर और संवेदनहीन सरकारी तंत्र पर कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनकी नजर में खूंखार जंगली जानवरों के हमले ‘रूटीन’ मसले हैं.

वजह यह कि सुदूर पहाड़ों में बसे जिन बेबस लोगों ने लंबे आंदोलन से जो राज्य हासिल किया वह प्रदेश हासिल किया वह अब उनका नहीं, बल्कि दिल्ली से संचालित हो रहे बिचौलियों, माफिया राजनीति के गठजोड़ में जकड़ चुके चंद लोगों की जागीर जैसा बन चुका है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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