बॉम्बे हाईकोर्ट ने दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा समेत पांच को बरी किया

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा, जो 90 फीसदी से अधिक शारीरिक अक्षमता का शिकार हैं और ह्वीलचेयर पर रहते हैं, पर यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए थे. साल 2014 में गिरफ़्तार किए गए साईबाबा के अब रिहा होने की संभावना है.

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जीएन साईबाबा, बैकग्राउंड में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा, जो 90 फीसदी से अधिक शारीरिक अक्षमता का शिकार हैं और ह्वीलचेयर पर रहते हैं, पर यूएपीए के तहत आरोप लगाए गए थे. साल 2014 में गिरफ़्तार किए गए साईबाबा के अब रिहा होने की संभावना है.

जीएन साईबाबा, बैकग्राउंड में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट)

मुंबई: बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने मंगलवार (5 मार्च) को दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा समेत पांच अन्य लोगों को माओवादियों से संबंध मामले में बरी कर दिया.

जस्टिस विनय जी. जोशी और जस्टिस वाल्मीकि एस. मेनेजेस की खंडपीठ ने साईबाबा के साथ-साथ पत्रकार प्रशांत राही, महेश तिर्की, हेम केशवदत्त मिश्रा और विजय एन. तिर्की को सभी आरोपों से बरी कर दिया.

मामले में आरोपित छठे व्यक्ति पांडु नरोटे, जिन्हें 2017 की शुरुआत में दोषी ठहराया गया था, की जेल में इलाज में कथित देरी के कारण अगस्त 2022 में मृत्यु हो गई थी.

अदालत का विस्तृत आदेश अभी नहीं आया है. आदेश की प्रति उपलब्ध होने पर खबर को अपडेट किया जाएगा.

इससे पहले अदालत ने पिछले साल सितंबर में सुनवाई पूरी कर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. दो साल में यह दूसरी बार है जब नागपुर पीठ ने साईबाबा और अन्य को बरी किया है.

14 अक्टूबर 2022 को जस्टिस रोहित बी. देव और अनिल पानसरे की उसी अदालत ने गढ़चिरौली सत्र अदालत के उस फैसले को पलट दिया था, जिसमें टिकरी को छोड़कर (जिन्हें 10 साल की कठोर सजा सुनाई गई) अन्य को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.

2022 में सभी पांच आरोपियों को बरी करते हुए जस्टिस देव ने कहा था कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए कथित खतरे’ के नाम पर कानून की उचित प्रक्रिया को ताक पर नहीं रखा जा सकता. यदि याचिकाकर्ता किसी अन्य मामले में आरोपी नहीं हैं तो उन्हें जेल से तत्काल रिहा किया जाए.

साईबाबा और अन्य की ओर से पेश बचाव पक्ष के वकीलों ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के कड़े प्रावधानों के तहत मुकदमा चलाने के लिए जारी मंजूरी आदेश की वैधता को चुनौती दी थी. उन्होंने यूएपीए की धारा 41 (ए) पर भरोसा किया था जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि, ‘कोई भी अदालत केंद्र सरकार या केंद्र सरकार द्वारा इस ओर से अधिकृत किसी अधिकारी की पूर्व मंजूरी के बिना किसी भी अपराध का संज्ञान नहीं लेगी.’

2022 में हाईकोर्ट ने वैध मंजूरी आदेश की अनुपस्थिति को ‘कानून की दृष्टि से खराब और अमान्य’ कहा था.

मामले के वकीलों में से एक, वकील निहालसिंह राठौड़ ने मंगलवार के फैसले को ‘साहसिक’ बताया. उन्होंने आगे कहा कि ‘फैसला अभियोजन पक्ष को ही एक्सपोज़ करता है. यह फैसला 33 वर्षीय पांडु नरोटे, एक बेगुनाह व्यक्ति, जिसने इस फैसले के इंतजार में जेल में जान गंवा दी, को श्रद्धांजलि है.

प्रशांत राही की बेटी शिखा, जो एक युवा फिल्म पेशेवर है और बीते एक दशक से न्याय की लड़ाई लड़ रही हैं, ने द वायर से कहा, ‘मेरे पास अभी शब्द नहीं हैं. मैं बस अब उन्हें जेल से बाहर निकलते हुए देखना चाहती हूं.

मल्लों हो कि पिछली बार हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद नागपुर केंद्रीय जेल अधिकारियों ने उन्हें तुरंत रिहा करने से इनकार कर दिया था और इस बीच राज्य सरकार आदेश पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई थी.

क्या था मामला

मार्च 2017 में महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की एक सत्र अदालत ने कथित माओवादी संबंधों और देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसी गतिविधियों में शामिल होने के लिए साईबाबा और अन्य, जिनमें एक पत्रकार और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्र शामिल थे, को दोषी ठहराया.

यह मामला महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले के अहेरी थाने में दर्ज किया गया था. अभियोजन पक्ष ने दावा किया था कि साईबाबा रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट (आरडीएफ) के सचिव थे, जो प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का एक कथित फ्रंटल संगठन है. ओडिशा और आंध्र प्रदेश में आरडीएफ पर प्रतिबंध है.

इस मामले में साईबाबा को मुख्य आरोपी बनाया गया था. सरकार ने दावा किया था कि 2013 में उनके घर से जब्त किए गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में से कम से कम 247 पेज ‘आपराधिक’ पाए गए थे. पुलिस का दावा यह भी था कि हेम मिश्रा के पास से जब्त किए गए मेमोरी कार्ड में कुछ दस्तावेज थे जो प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन की गतिविधियों में साईबाबा की भागीदारी को ‘स्थापित’ करते थे.

निचली अदालत की सजा 22 गवाहों के बयानों पर आधारित थी, जिनमें से केवल एक स्वतंत्र गवाह था; बाकी सभी पुलिस गवाह थे.

अदालत ने साईबाबा और अन्य को कड़े यूएपीए और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के विभिन्न प्रावधानों के तहत दोषी ठहराया था.

साईबाबा, जो 90 फीसदी से अधिक शारीरिक अक्षमता का शिकार हैं और ह्वीलचेयर पर रहते हैं, ने कैद के दौरान कई बार चिकित्सीय अनदेखी का आरोप लगाया है. बीते एक दशक में साईबाबा को गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा.

उनकी पत्नी वसंता ने उनकी बिगड़ती स्वास्थ्य स्थिति के कारण उनकी रिहाई के लिए सरकारों और उच्च न्यायालयों से कई अपीलें कर चुकी हैं. एक अपील में तो उन्होंने यहां तक कहा था कि अगर साईबाबा को तुरंत जेल से रिहा नहीं किया गया, तो उनकी मृत्यु हो सकती है.

भारतीय जेलों में मौत की संभावना अवास्तविक नहीं है. राष्ट्रीय अपराध रिपोर्ट ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, पर्याप्त चिकित्सा उपचार की कमी के कारण हर साल करीब 2000 लोग जेल में जान गंवा देते हैं. साल 2020 में साईबाबा के एक सह-आरोपी पांडु पोरा नरोटे की जेल में स्वाइन फ्लू की चपेट में आने से मौत हो गई थी. उनके वकील ने दावा किया था कि समय पर चिकित्सा सहायता प्रदान नहीं की गई, जिससे उनकी हालत बिगड़ती गई.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)