जिस समय तमाम संस्थायें देश की स्थिति को लेकर झूठे दावे परोसने में व्यस्त हैं, एक बाल-पत्रिका में प्रकाशित बच्चों के कथनों से आप हमारे समाज को समझ सकते हैं.
भोपाल से बच्चों की दो गैरव्यावसायिक और महत्वपूर्ण पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं – ‘चकमक’ और ‘साइकिल’. ‘चकमक ‘ मासिक है जबकि ‘साइकिल’ द्वैमासिक.
‘साइकिल’ के प्रकाशन के अभी छह वर्ष हुए हैं और ‘चकमक’ का अप्रैल अंक उसका 451वां अंक है यानी यह पत्रिका लगभग 37 वर्ष से भी अधिक पुरानी है. इसे मेरे बच्चों ने भी पढ़ा है, जो अब चालीस से अधिक उम्र के हैं. ‘चकमक’ हिंदी की अब तक की इकलौती बाल विज्ञान पत्रिका है.
इसका एक स्थायी स्तंभ है, ‘क्यों – क्यों’. इसमें बच्चों से हर महीने एक सवाल पूछा जाता है और अगले महीने जवाब प्रकाशित किया जाता है. पत्रिका इन सवालों के जरिये बच्चों की कल्पनाशीलता को उत्तेजित करती है. फरवरी अंक में पूछा गया था कि ‘यदि तुम किसी एक ऐसी चीज को मुफ्त कर सकते हो जो अभी पैसे से मिलती है तो वह कौन सी चीज होगी? और तुम उसे क्यों मुफ्त करना चाहते हो?’
मार्च अंक में प्रकाशित इसके अधिकतर उत्तर पढ़कर स्पष्ट होता है कि इसका जवाब देने वाले बच्चे अभावग्रस्त परिवारों से आए हैं. ये परिवार आज भी बेहद बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं. इन बच्चों को अपना चिंतामुक्त संसार बनाने की सुविधा नहीं है, जो आज सौभाग्य से मध्यम और उच्च वर्ग के बच्चों को हासिल है. ये अपने वरिष्ठ परिजनों को विकट समस्याओं का सामना करते हुए देख रहे हैं और उससे स्वयं भी प्रभावित हैं. ‘चकमक’ ने उन्हें किसी एक चीज को मुफ्त करने का सपना देखने का मौका दिया तो इस बहाने उनके अपने सामाजिक – पारिवारिक संकट सामने आ गये. इनमें से किसी बच्चे की समस्या घर में गेहूं का न होना है. किसी की चिंता परिवार की खराब आर्थिक स्थिति के कारण बिजली का बिल न चुका पाना है या गैस सिलेंडर न खरीद पाना है.
इस तरह बच्चों और बड़ों की चिंताएं एकमेक हो गयी हैं, जिसे किसी समाज की स्वस्थ स्थिति नहीं कहा जा सकता – भले ही यह दावा किया जा रहा हो कि भारत अगले कुछ वर्षों में दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक ताकत बन जाएगा.
शासकीय बजरिया स्कूल, बीना (मध्य प्रदेश ) की छठवीं कक्षा की विद्यार्थी अंकित रैकवार कहती है कि ‘घर में गेहूं खत्म हो जाने पर हमारे दादाजी और पापाजी बहुत परेशान हो जाते हैं. जब ये दोनों परेशान हो जाते हैं तो घर का माहौल बहुत चिंता से भरा हो जाता है, इसलिए गेहूं मुफ्त होना चाहिए ताकि मेरे घर का माहौल भी अच्छा बन सके.’ स्पष्ट है कि घर में अनाज का न होना और उस कारण घर में अशांति का वातावरण और अगले दिन भूख की आशंका से छठी कक्षा की बच्ची अछूती नहीं रह सकी है. यह परिवार न सिर्फ़ गरीब है, बल्कि किन्हीं कारणों से पांच किलो मुफ्त अनाज की सुविधा से भी वंचित है, या आर्थिक रूप से समर्थ होने के बावजूद किसी अन्य कारण से यह संकट झेलता रहता है.
नौवीं कक्षा की जीआईसी केवर्स, पौड़ी गढ़वाल की सलोनी इस तकलीफ को अलग तरह से व्यक्त करती है. वह वैज्ञानिक बन कर ऐसा ‘आविष्कार’ करना चाहती है कि हवा से आटा बनाया जा सके क्योंकि ‘आजकल आटा बहुत महंगा है’.
छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले के सोनतराई गांव की पावनी कच्छप बिजली मुफ्त चाहती है ‘क्योंकि हमारे घर में बिजली के बिल भरने के पैसे नहीं होते.’
लखनऊ का उबेद गैस मुफ्त चाहता है क्योंकि अब लकड़ियां जल्दी मिलती नहीं और चूल्हे पर खाना बनाने से मम्मी की आंखों में धुआं लगता है .
लखनऊ के तरहिया की अनुष्का किताबें मुफ्त चाहती है क्योंकि पुस्तकें बहुत महंगी हैं और उसका सपना किताबें पढ़ कर आईएएस बनना है.
छत्तीसगढ़ के बलौदा बाजार ज़िले में छेरकापुर की चांदनी ध्रुव कहती है कि पुस्तकें और कॉपियां तो सरकार अब देने लगी है मगर कई बच्चों के पास तो बैग खरीदने तक के पैसे नहीं होते. उनके पास बैग नहीं होगा तो वे पुस्तक – कॉपियों को किसमें रखकर स्कूल ले जाएंगे? परसा, सरगुजा, छत्तीसगढ़ की संजना एक्का अत्यंत मार्मिक ख़त लिखती है. ‘हमारा गांव ड्राई ज़ोन (सूखा क्षेत्र) में है. यहां पानी की समस्या हमेशा रहती है. पिछली बार कलेक्टर साहब को भी इस समस्या के बारे में बताया गया था, पर अभी तक कोई कदम उठाया नहीं गया… मैं चाहती हूं कि नल-जल योजना को गांव में लााएं और कोई शुल्क ना लें क्योंकि जल ही जीवन है.’
परसा की एक अन्य छात्रा नंदिनी यादव निशुल्क स्वास्थ्य सेवाएं चाहती है ‘जिससे हर जरूरतमंद व्यक्ति को इलाज मिल सके’.
जीआईसी, केवर्स, पौड़ी गढ़वाल के पवन मंद्रवाल के गांव से पौड़ी तक का बस किराया पचास रुपए है, जो लोगों को बहुत भारी पड़ता है. इस वजह से बहुत से लोग एक तरफ पैदल आने या जाने को मजबूर हैं. फैजाबाद की शिफा खातून ट्रेन किराये को विकट समस्या बताती है. वह कहती है कि इस वजह से बहुत से लोग ट्रेन को दूर से देखते तो हैं मगर उनमें चढ़ कर जा नहीं पाते.
फैजाबाद की महक को शरारा पहनना पसंद है लेकिन इसकी कीमत इतनी ज्यादा है कि उसके पापा का बजट इसकी अनुमति नहीं देता.
पोखरमा, लखीसराय में चौथी कक्षा का विद्यार्थी सत्यम कुमार फ्री में साइकिल चाहता है ‘क्योंकि बहुत से बच्चों का यह सपना है कि मैं कभी साइकिल चलाऊंगा मगर वे खरीद नहीं पाते.’
फैजाबाद का छात्र सत्यम कुमार लिखता है कि उच्चस्तरीय क्रिकेट खेलने के लिए क्रिकेट अकादमी में प्रशिक्षण मिलना ज़रूरी है, मगर इसकी फीस बहुत अधिक होने से बहुत-से बच्चे अपनी काबिलियत साबित नहीं कर पाते.
उल्लेखनीय है कि इस उपक्रम में कुछ संस्थाओं का योगदान भी है जो स्थानीय लाइब्रेरी और फिर बच्चों तक इन पत्रिकाओं को ले जाती हैं.
द वायर से बात करते हुए ‘चकमक’ की संपादक विनता विश्वनाथन ने कहा कि उनका संपादक मंडल यह सुनिश्चित करता है कि उनकी पत्रिका अधिकाधिक गांव और देहातों तक पहुंच जाये. बच्चे तो इन पत्रिकाओं को पढ़ते ही हैं, इन संस्थाओं के कार्यकर्ता भी पत्रिका का सामूहिक पाठ आयोजित करते हैं, पत्रिका में उल्लिखित प्रश्न बच्चों के सामने रखते हैं, और फिर बच्चों के जवाब पत्रिका तक पहुंचाते हैं.
यह हिंदी प्रदेश का सौभाग्य है कि जब बड़े मीडिया घरानों ने हिंदी की पत्रिकाएं लगभग बंद कर दी हैं और जब अंधविश्वासी-सांप्रदायिक सोच चरम पर है, ‘चकमक’ जैसी पत्रिका मौजूद है जो बच्चों को तार्किकता और वैज्ञानिक सोच की ओर ले जाने के लिये विभिन्न विधियां अपनाती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)