अधूरेपन का एहसास जनतांत्रिकता की बुनियाद है

जनतंत्र तरलता और निरंतर गतिशीलता से परिभाषित होता है. न तो व्यक्ति कभी अंतिम रूप से पूर्ण होता है, न कोई समाज. लेकिन अपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि आप अपने साथ कुछ करते ही नहीं, ख़ुद को पूर्णतर करने का प्रयास लगातार चलता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 31वीं क़िस्त.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)
(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

…और, जब
मेरा सिर दुखने लगता है,
धुंधले-धुंधले अकेले में, आलोचनाशील
अपने में से उठे धुएं की ही चक्करदार
सीढ़ियों पर चढ़ने लगता हूं.

और हर सीढ़ी पर लुढ़की पड़ी एक-एक देह,
आलोचन हत मेरे पुराने व्यक्तित्व,
भूतपूर्व, भुगते हुए, अनगिनत ‘मैं’.

अनेक शवों, अर्ध-शवों पर ही रखकर
निज सर्व-स्पृश पैर,
मेरे साथ चलने लगता भावी-कर-बद्ध
मेरा वर्तमान !

किंतु, पुनः-पुनः
उन्हीं सीढ़ियों पर नए-नए आलोचक-नेत्र
(तेज़ नाक वाले तमतमाए-से मित्र)
खूब काट-छांट और गहरी छील-छाल,
रंदों और बसूलों से मेरी देखभाल,
मेरा अभिनव संशोधन अविरत
क्रमागत.
अभी तक
सिर में जो तड़फड़ाता रहा ब्रह्मांड,
लड़खड़ाती दुनिया का भूरा मानचित्र
चमकता है दर्दभरे अंधरे में वह क्रमागत काण्ड.
उसमें नए नए सवालों की झखमार ;
थके हुए, गिरते-पड़ते, बढ़ने का दौर;
मार-काट करती हुई सदियों की चीख;
मुठभेड़ करते हुए स्वार्थों के बीच
भोलेभाले लोगों के माथों पर घाव.

अंधियाली गलियों में घूमता है,
तड़के ही, रोज़ कोई मौत का पठान
मांगता है ज़िंदगी जीने का ब्याज;
अनजाना क़र्ज़ मांगता है चुकारे में, प्राणों का मांस.
हताहत स्वयं को ही दर्दीली रात-
जोड़-तोड़ करती हुई गहरी काट-छांट;
रोज़ नई आफ़त, कोई नई वारदात.
पूरे नहीं हो सके हैं मानवीय योग,
हर-एक के पास अपने-अपने व गुप्त रोग.
(परेशान चिंतकों की दार्शनिक झींख)

उजली-उजली सफ़ेदी में
कोख़ों की शर्म;
(अधबने समाधानों)
भ्रूणों का, अंधरे में, क्रमागत जन्म;
सृजन-मात्र उद्गार-धर्म
सत्ताधारी, अर्थाकांक्षी
शक्ति के कृत्य,
और मेरे प्राणों में
सत्यों के भयानक
केवल व्यंग्य-नृत्य,
व्यंग्य-नृत्य!!

उसी विश्व यात्रा में, चट्टानों बीच,
किसी झुकी संवलाई सांझ
मुझे मिला (हृदय-प्रकाश-सा) अकेले में
बिजली से जगमगाता घर
जिसके इर्द-गिर्द
कुछ अंधियाले पेड़
मानो सधे हुए, घने
बहुत घने, बड़े-बड़े दर्द.

अचानक घर में निकल आया एक
चौड़े माथेवाला, भोला, प्रतिभा का पुत्र
पहचाना मुझे, और हंसा चुपचाप
मेरे ख़ाली हाथों में रख गया दीप्तिमान रत्न-
भयानक वीरानों में घूमकर
खोजा था जो सार-सत्य
आत्म-धन
छटपटाती किरणों का पारदर्शी क्वार्ट्ज़,
किरनें कि आलोचनाशील, धारदार
उपादान
जिनकी तेज़ नोकों से अकस्मात्
मेरी काट-छांट छील-छाल
लगातार.

इसीलिए, मेरी मूर्ति
अधबनी अधबनी अभी तक…

जिसे लिए कहां जाऊं सदा का ही प्रश्न
अपने इस अधबने-पने का गरीब
यह दृश्य
पा न जाए, सभाओं में कहीं तिरस्कार

लाख-लाख आंखों से देखता हूं दृश्य
पूरे बने हुओं के ठाठदार अक्स,
ऐसा कुछ ठाठ-
मुझे गहरी उचाट
लगता वे मेरे राष्ट्र के नहीं हैं.

और अब नए-नए मेरे मित्रगण
मेरे पीछे आए हुए युवा-बाल-जन,
धरित्री के धन, खोजता हूं उनमें ही
छटपटाती हुई मेरी छांह,
क्या कहीं वह मेरा रूपक उपमान
छिपी हुई मेरी कोई गहरी पहचान,
समशील, समधर्मा कहीं कोई है?

अच्छा है अटाले में फेंका गया मैं
एक प्रेमपत्र
किताबों में डाल, बंद कर दी गई अक़्ल,
काली-काली गलियों में
फिरती हुई आदमी की शक्ल,

असंख्य-इत्यादि-जनों का मैं भाग
इसीलिए, अनदिखे,
सुलगाता धीरे-से आग,
जिसके प्रकाश में, तांबियाये चेहरों पर आप
संवेदित ज्ञान की कांपती ही
उठती है भाफ चुपचाप…
सच्चा है जहां असंतोष,
मेरा वहीं परितोष.

वहां दिवालों पर टंगते हैं भिन्न मानचित्र,
चिनगियां बरसाते
लगातार विचारों के सत्र,
मेरे पात्र चरित्रों की
आंखों की अंगारी ज्योति
ललककर पढ़ती है मेरा प्रेम-पत्र!
…यथार्थों से चला हुआ
स्वर्गों तक पहुंचता है,
गणितों का किरणीला सेतु
पृथ्वी के हेतु!
लेकिन, हां, उसी के लिए
नए-नए रंदों और बसूलों से
लगातार-लगातार
मेरी काट-छांट
उनकी छील-छाल अनिवार !
ऐसी उन भयानक क्रियाओं में रम
कटे-फटे चेहरों के दाग़दार हम
बनाते हैं अपना कोई अलग दिक्-काल,
पृथक् आत्म-देश-
दृष्टि, आवेश !
क्षमा करें, अन्य-गति
अन्य-मुख मेरे परिजन !!

(‘एक आत्म-वक्तव्य’)

अधबनी मूर्ति है, अधबने समाधान हैं, इस अधबनी मूर्ति की काट-छांट लगातार- लगातार चलनेवाली है, और वह भी नए-नए रंदों और बसूलों से. आख़िर ‘एक आत्म-वक्तव्य’ में मुक्तिबोध किस प्रक्रिया की बात कर रहे हैं? क्या पूर्णता कभी प्राप्त न होगी?

मुक्तिबोध की ही दूसरी या उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता ‘अंधरे में’ याद आती है जिसके आरंभ में ही जिससे मुलाक़ात होती है

वह रहस्यमय व्यक्ति
अब तक न पाई गई मेरी अभिव्यक्ति है,
पूर्ण अवस्था वह
निज-संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिभाओं की,
मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
आत्मा की प्रतिभा.

लेकिन जैसे जैसे कविता आगे बढ़ती है, मालूम होता है कि यह पूर्ण अवस्था कभी भी प्राप्त नहीं होती. हमेशा वह कुछ दूर रह जाती है. वह दरवाज़ा खटखटाती है, लेकिन दरवाज़ा खोलने पर फिर ग़ायब हो जाती है. आख़िर में

उठता हूं, जाता हूं, गैलरी में खड़ा हूं.
एकाएक वह व्यक्ति
आंखों के सामने
गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में
चला जा रहा है.
वही जन जिसे मैंने देखा था गुहा में.
धड़कता है दिल
कि पुकारने को खुलता है मुंह
कि अकस्मात्-
वह दिखा, वह दिखा
वह फिर खो गया किसी जन-यूथ में…
उठी हुई बांह यह उठी हुई रह गई!!

(‘अंधरे में’) 

पूर्णता की खोज अंतहीन है. जो पूर्ण होने का दावा करते हैं या पूरे बने हुए हैं, वे अपने नहीं, अपने देश के नहीं:

लाख-लाख आंखों से देखता हूं दृश्य
पूरे बने हुओं के ठाठदार अक्स,
ऐसा कुछ ठाठ-
मुझे गहरी उचाट
लगता वे मेरे राष्ट्र के नहीं हैं.

अपूर्णता या अधूरेपन का एहसास जनतांत्रिकता की बुनियाद है. जनतंत्र तरलता और निरंतर गतिशीलता से परिभाषित होता है. न तो व्यक्ति कभी अंतिम रूप से पूर्ण होता है, न कोई समाज. लेकिन अपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि आप अपने साथ कुछ करते ही नहीं. ख़ुद को पूर्णतर करने का प्रयास लगातार चलता है. इसका अर्थ है अपने निजत्व को संशोधित करते रहना.

अपूर्णता का एहसास यों तो मनुष्य मात्र के होने का सबूत है. समस्त प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य है जिसे अपने अधूरेपन का पता है. यह एहसास हमें अपनी प्रजातिगत सीमाओं का अतिक्रमण करने की प्रेरणा देता है. मात्र प्रजातिगत नहीं. अपनी हर तरह की सीमा के अतिक्रमण की प्रेरणा.

भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषाई, जेंडर की स्थितियों से परिभाषित सीमाबद्धता का एहसास और उनसे परे जाने की इच्छा ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है. लेकिन यह सब कुछ स्वतः स्फूर्त नहीं. मेरे ‘मैं’ से अलग और ‘मैं’ हैं और वे उतने ही वैध हैं. अनुभव विविध हैं और कई बार एक दूसरे के विरोधी भी. लेकिन यह सब कुछ ख़ुद ब ख़ुद नहीं जाना जाता, यह स्वतः स्फूर्त नहीं.

यह एहसास अर्थपूर्ण तब होता है जब यह ज्ञान की एक प्रक्रिया से गुजरकर हासिल किया जाए:

वहां दिवालों पर टंगते हैं भिन्न मानचित्र,
चिनगियां बरसाते
लगातार विचारों के सत्र,

ये मानचित्र सिर्फ़ धरती का विभिन्न देशों में विभाजन नहीं बतलाते, ये मात्र नदियों, पहाड़ों और जंगलों की सूचना नहीं देते. ये भिन्न संवेदनात्मक या वैचारिक प्रदेशों के बारे में भी बतलाते हैं. सीमाएं हैं, इसका मतलब उन सीमाओं का स्वीकार है और उनके आर-पार आने जाने की संभावना की उत्तेजना भी है.

अपने आग्रहों से मुक्त होना, अपनी आलोचना करते हुए ख़ुद को ही अस्वीकार करना इस प्रक्रिया का अंग है:

और हर सीढ़ी पर लुढ़की पड़ी एक-एक देह,
आलोचन हत मेरे पुराने व्यक्तित्व,
भूतपूर्व, भुगते हुए, अनगिनत ‘मैं’.

उनके शवों, अर्ध-शवों पर ही रखकर
निज सर्व-स्पृश पैर,
मेरे साथ चलने लगता भावी-कर-बद्ध
मेरा वर्तमान !

कई मैं हैं, थे. भूतपूर्व और भुगते हुए मैं. उन पर पैर रखकर ही आगे बढ़ा जा सकता है. लेकिन ये चलने वाले पैर हैं: ‘सर्व-स्पृश पैर’. हर चीज़ को छू पाने की क्षमता. और भावी का हाथ थामे हुए वर्तमान!

यह सब कुछ अकेले में या अकेले के लिए नहीं. साथ की तलाश चलती रहती है:

और अब नए-नए मेरे मित्रगण
मेरे पीछे आए हुए युवा-बाल-जन,
धरित्री के धन, खोजता हूं उनमें ही
छटपटाती हुई मेरी छांह,
क्या कहीं वह मेरा रूपक उपमान
छिपी हुई मेरी कोई गहरी पहचान,
समशील, समधर्मा कहीं कोई है?

बल्कि पूर्णता इस साथ में ही मिलती है. अपनी पहचान अपने समशील, समधर्मा की आंखों में ही मिलती है. उनका मिलना जैसे एक प्रेमी का मिलना है. यह सब कुछ जैसे एक प्रेम निवेदन है. मैं ख़ुद मानो प्रेमपत्र हूं जिसे पढ़ा जाना है:

अच्छा है अटाले में फेंका गया मैं
एक प्रेमपत्र
किताबों में डाल, बंद कर दी गई अक़्ल,
काली-काली गलियों में
फिरती हुई आदमी की शक्ल,

ख़ुद को विशाल मानवता का हिस्सा बनाने की प्रक्रिया में ही अपना उद्घघाटन भी होता है. अपनी गहरी पहचान मिलती है:

असंख्य-इत्यादि-जनों का मैं भाग
इसीलिए, अनदिखे,
सुलगाता धीरे-से आग,
जिसके प्रकाश में, तांबियाये चेहरों पर आप
संवेदित ज्ञान की कांपती ही
उठती है भाफ चुपचाप…
सच्चा है जहां असंतोष,
मेरा वहीं परितोष.

यह आग ज्ञान की है. अपनी गहरी पहचान की खोज ज्ञान और प्रेम, दोनों के साथ ही की जा सकती है. मुक्तिबोध के लिए ज्ञान कभी भी बिना संवेदना के नहीं. बिना दर्द के वह मूल्यवान नहीं:

उसी विश्व यात्रा में, चट्टानों बीच,
किसी झुकी संवलाई सांझ
मुझे मिला (हृदय-प्रकाश-सा) अकेले में
बिजली से जगमगाता घर
जिसके इर्द-गिर्द
कुछ अंधियाले पेड़
मानो सधे हुए, घने
बहुत घने, बड़े-बड़े दर्द.

ज्ञान की बिजली से जगमगाता घर दर्द के पेड़ों से घिरा है.

ज्ञान हमारे संवेदन तंत्र को बदल देता है. वह असंतोष पैदा करता है और असंतोष के कारण ही पैदा भी होता है. लेकिन यह असंतोष भी कुछ चीज़ों के होने न होने से नहीं जुड़ा. यह अपूर्णता का असंतोष है, सच्चे सधर्मा के न मिलने का असंतोष है. इस असंतोष में एक प्रकार का सुख है.

अपूर्णता ही यथार्थ है. फिर पूर्णता क्या स्वर्ग है?

…यथार्थों से चला हुआ
स्वर्गों तक पहुंचता है,
गणितों का किरणीला सेतु
पृथ्वी के हेतु!

ये स्वर्ग कौन से हैं? हालांकि मुक्तिबोध के मुताबिक़ वे स्वर्ग ‘पृथ्वी के हेतु’ हैं, लेकिन मनुष्यता की अब तक की यात्रा बतलाती है कि स्वर्ग की यह आकांक्षा या उसका प्रलोभन ख़तरनाक है. स्वर्ग की तरफ़ पैर बढ़ाने का अर्थ है वर्तमान के यथार्थ का संहार. प्रायः स्वर्ग के लिए वर्तमान की बलि मांगी जाती है. फिर इस कविता में स्वर्ग का आकर्षण क्यों है? एक अंतिम बिंदु की कल्पना क्यों है?

जब निजत्व की अनिवार काट-छांट लगातार-लगातार होनी है तो उसके अधबनेपन को भी स्थायी अवस्था ही मानना होगा. अंतिम रूप से कोई मूर्ति नहीं बन सकती. आख़िरी तौर पर कहीं पहुंचा नहीं जा सकता. फिर स्वर्ग कहां और उसकी कामना ही क्यों?

क्या स्वर्ग वहां हैं जहां कवि के इस प्रश्न का उत्तर आख़िरी तौर पर खोज लिया गया है?

समस्या एक-
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुंदर व शोषण मुक्त
कब होंगे?

यह प्रश्न ही जनतंत्र का पहला और आख़िरी प्रश्न है. सभ्यता क्या है, सुख क्या है, सुंदरता क्या है?

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)

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