नगालैंड में बीस साल बाद निकाय चुनाव होने के क्या मायने हैं?

नगालैंड में चुनावी राजनीति ने महिलाओं का विरोध होता आया है. सरकार ने शहरी निकाय चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिया था, जिसके बाद आदिवासी इकाइयों ने कड़ा विरोध किया है. इस हफ्ते दो दशकों में पहली बार यह चुनाव हुए हैं, जिसमें 80 प्रतिशत से अधिक मतदान दर्ज हुआ.

(इलस्ट्रेशन: द वायर)

नई दिल्ली: नगालैंड में महिला उम्मीदवारों के लिए निकाय चुनावों में 33 प्रतिशत आरक्षण शामिल करने के बाद से दो दशकों में पहली बार उक्त चुनाव आयोजित किए गए. तीन नगर पालिकाओं और 22 नगर परिषदों के लिए हुए चुनावों में 80 प्रतिशत से अधिक मतदान दर्ज किया गया.

राज्य चुनाव आयुक्त टी. जॉन लोंगकुमेर ने कहा कि यह एक शांतिपूर्ण और अच्छा चुनाव रहा. उन्होंने कहा कि हिंसा और गैर चुनावी गतिविधियों को रोकने के लिए सुरक्षा के पुख्ता इंतज़ाम किए गए थे.

हालांकि, पूर्वी नगालैंड पीपुल्स ऑर्गनाइजेशन (ईएनपीओ) द्वारा चुनावों का बहिष्कार किए जाने के बाद छह जिलों के 14 नगर परिषदों में चुनाव नहीं हुए.

ईएनपीओ कई वर्षों से यह दावा करते हुए  ‘फ्रंटियर नगालैंड क्षेत्र’ की मांग कर रहा है, कि इस क्षेत्र की वर्षों से उपेक्षा की गई है. इन्ही मांगों को ले कर ईएनपीओ ने चुनावों का बहिष्कार किया.

बुधवार (26 जून) को 10 जिलों के शहरी निकायों के 214 वार्डों में मतदान संपन्न हुआ था. राज्य चुनाव निकाय के अनुसार, 1,13,521 महिलाओं सहित 2.23 लाख लोग शहरी चुनावों में मतदान करने के योग्य थे. ग्यारह राजनीतिक दल और 523 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा.

राष्ट्रीय पार्टियों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), जनता दल (यूनाइटेड), नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) आदि ने चुनाव लड़े. वहीं एनडीपीपी और राइजिंग पीपुल्स पार्टी जैसे क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी मुकाबले में हैं.

क्यों हो रहा था निकाय चुनावों का विरोध

ज्ञात हो कि साल 2004 के बाद महिलाओं के लिए 33% कोटा के साथ निकाय चुनाव कराने के प्रयासों को सामाजिक और शीर्ष आदिवासी समूहों के विरोध का सामना करना पड़ा.

नगालैंड नगरपालिका और नगर परिषद अधिनियम, 2001 में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित करने के प्रावधान के बिना पारित किया गया था. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 243 टी के तहत महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करना अनिवार्य था. इस अधिनियम के तहत पहला चुनाव 2004 में करवाया गया था, जहां पर महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित नहीं थीं.

2006 में इसमें संशोधन किया गया, और महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित करने का प्रावधान लाया गया, जिसके बाद से ये पूरा विवाद खड़ा हुआ.

आदिवासी समूह महिलाओं को आरक्षण दिए जाने के प्रावधान का इसलिए विरोध करते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि यह बिल नगालैंड को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371 (ए) के अंतर्गत दिए गए विशेष दर्जे के खिलाफ है.

ज्ञात हो कि अनुच्छेद 371 (ए) नगाओं की पारंपरिक धार्मिक और सामाजिक प्रथाओं की सुरक्षा के लिए नगालैंड को विशेष दर्जा देता है.

20 साल बाद हुआ निकाय चुनाव

60 सदस्यीय राज्य विधानसभा ने पिछले साल 9 नवंबर को नगालैंड नगरपालिका अधिनियम, 2023 पारित किया था, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को इस साल अप्रैल तक निकाय चुनावों के लिए चुनावी प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया था.

2022 में नगालैंड से राज्यसभा के लिए पहली महिला के चुनाव और 2023 में विधानसभा में दो महिलाओं के विधायक के रूप में चुने जाने के बाद निकाय चुनावों को ऐतिहासिक माना गया है.

सरकार ने पहले भी कई बार निकायों के चुनावों की घोषणा की थी, लेकिन महिलाओं के लिए आरक्षण और भूमि और संपत्तियों पर कर के खिलाफ आदिवासी निकायों और नागरिक समाज संगठनों के विरोध के बाद चुनाव नहीं हो पाए थे.

ज्ञात हो कि नगालैंड का समाज लैंगिक नजरिये से समावेशी कहा जाता है लेकिन चुनावी राजनीति ने महिलाओं का विरोध होता आया है. इसका एक उदाहरण साल 2017 में देखने को मिला, जब सरकार ने शहरी निकाय चुनावों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का निर्णय लिया.

इसके बाद प्रदेश की आदिवासी इकाइयों ने इनके शीर्ष नगा जनजातीय संगठन नगा होहो के बैनर तले कड़ा विरोध दर्ज करवाया था. इसे लेकर राज्य में हिंसक प्रदर्शन हुए थे, जिसमें दो लोगों की जान भी चली गई.

उनका कहना था कि यह फैसला अनुच्छेद 371 (ए) में निहित नगा प्रथागत कानूनों के खिलाफ था. यह अनुच्छेद राज्य को विशेष दर्जा देता है और जीवन के पारंपरिक तरीके की रक्षा करता है. यह विरोध इतना बढ़ गया था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग को इस्तीफ़ा देना पड़ा था.