रूपेश कुमार सिंह: 731 दिन की क़ैद, शोषण और जेल व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष

झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को माओवादियों से कथित संबंधों के आरोप में 17 जलाई 2022 को गिरफ़्तार किया गया था. इन दो सालों में उन्होंने चार जेलों में समय बिताया है. पढ़िए उनके संघर्ष की कथा...

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रूपेश कुमार सिंह. (फोटो साभार: फेसबुक)

झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह की गिरफ़्तारी को 17 जुलाई को 2 साल यानी 731 दिन पूरे हो जाएंगे. 17 जुलाई 2022 को दोपहर 1.30 बजे अपने घर से गिरफ्तार होने के बाद, इन 2 सालों में रूपेश ने चार भिन्न जेलों में समय बिताया है. साथ ही, उन्होंने इन सभी जेलों की स्थिति में सुधार के लिए भी संघर्ष किया है.

उनकी जेल यात्राओं की शुरुआत 18 जुलाई 2022 को झारखंड के सरायकेला- खरसांवा के जेल से हुई, जहां रूपेश को तमाम खानापूर्ति के बाद शाम करीब 5.30 बजे कोर्ट में पेश करने के बाद सरायकेला जेल भेज दिया गया था.

वहां सबसे पहले उन्हें संक्रामक रोग वाले कैदियों के साथ रखा गया था. बाद में आपत्ति जताने पर एक टूटे-फूटे पुराने महिला वार्ड में रखा गया, जिसे वहां के बंदी भूत बंगला कहते थे, और जहां बरसात आते ही लगभग पूरी छत से पानी टपकने लगता था. रूपेश कई बार जेल अधीक्षक से इस मुद्दे पर बात करना चाहते थे, पर उनकी बात कभी सुनी नहीं गई.

रूपेश हमेशा ही शोषण और जुल्म के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, जेलों की इस शोषणयुक्त व्यवस्था के खिलाफ भी वे आवाज उठा रहे थे. सारे प्रयास विफल होने के बाद जेल के बड़े जमादार सियाराम शर्मा से 9 अगस्त को ही अपनी तीन मांगों को रखते हुए रूपेश ने 15 अगस्त से भूख हड़ताल करने की बात कही थी, और 15 अगस्त को वे भूख हड़ताल पर बैठे भी. जिसके बाद उनकी मांगें मानने का आश्वासन दिया गया.

फिर उनके वार्ड की छत पर प्लास्टिक बांधा गया और एक बंदी लड़के को उनके साथ रहने को भी भेजा गया, बाद में कुछ और को भी. पर कुछ दिनों के बाद स्थिति फिर से ‘ढाक के तीन पात’ वाली हो गई. रहने, खाने-पीने से लेकर बात करने, मुलाकात करने तक हर जगह भ्रष्टाचार, शोषण व्याप्त था. अंततः रूपेश ने इस संबंध में बंदियों के लिए 5 मांगों को रखते हुए राष्ट्रपति को एक आवेदन लिखा. साथ ही, 13 सितंबर को शहीद जतींद्रनाथ दास के 93वें शहादत दिवस पर भूख हड़ताल पर जाने की बात भी बताई तथा जेल की स्थिति में सुधार न होने की स्थिति में अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने की बात भी लिखी, और इस आवेदन को प्रेषित करने के लिए जेल अक्षीधक को सौंप दिया. जिसके परिणामस्वरूप 12 सितंबर को रूपेश को रांची के होटवार स्थित बिरसा केंद्रीय कारावास भेज दिया गया, जिसकी कोई सूचना तक परिवार को नहीं दी गई.

अब शुरू हुआ दूसरी जेल के अंदर शोषण. चूंकि स्थानांतरण के समय पहला जेल प्रशासन अगले जेल प्रशासन को उस बंदी की जानकारी दे देता है, नए जेल में उसी हिसाब से उसके साथ व्यवहार होता है. रूपेश के राष्ट्रपति को आवेदन लिखे जाने और भूख हड़ताल की खबर भी होटवार जेल प्रशासन को मिल चुकी थी. अतः यहां रूपेश को एक लगभग 8.5 × 7 फीट के कमरे में, जिसमें करीब 6×2 फीट का पक्का बिस्तर बना था, एक सप्ताह तक रखा गया. न किसी इंसान को देखना (केवल खाना देते वक्त सिपाही को छोड़कर), न किसी से बात, न कोई बाहरी दृश्य, न मुलाकात, न कॉल करने का अधिकार, न और किसी तरह की सुविधा, पूरा एक सप्ताह एक बंद कमरे में रात-दिन, बिल्कुल अकेले.

यहां रूपेश ने लगभग 50 घंटे भूखे बिताए (सरायकेला जेल में 12 सितंबर को सुबह 10 बजे ही खाना खाया था, फिर यहां 14 सितंबर को दोपहर 1.30 बजे भोजन मिला). पीने का पानी मांगने पर बताया गया कि अंदर लैट्रिन वाले नल से ही नहाना, धोना और पीना है. रूपेश ने पानी पीने से ही इनकार कर दिया. तब कुछ घंटों बाद बाहर से साफ पानी बोतल में लाकर दिया गया. कमरे से बाहर पूरे एक सप्ताह तक नहीं निकाला गया, जिससे उनके पैरों की नसों में खिंचाव हो गया था. इस दौरान हमें कुछ भी पता नहीं था, यह भी नहीं कि रूपेश कहां हैं? मैं अपने स्तर पर पता करने की कोशिश कर रही थी, पर कुछ स्पष्ट नहीं हो पा रहा था. एक दिन तो मुझे लगा कि मेरा सचमुच सिर फट जाएगा.

हम समझ सकते हैं यह किस प्रकार की प्रताड़ना थी. यह एक पेशेवर अपराधी के साथ नहीं किया जा रहा था, जनता की जमीनी हकीकत लिखने वाले पत्रकार के साथ किया जा रहा था. यह उस वक्त किया जा रहा था जब उन्होंने राष्ट्रपति को जेल के अंदर की अपनी स्थिति में सुधार की अपील लिखी थी.

इस बीच हम पुरानी जेल में जब उनका सामान पहुंचाने गए, एक सिपाही ने बताया कि रूपेश को कहीं और भेज दिया गया है. हमारा अनुमान था कि होटवार जेल भेजा गया होगा, पर जब हम मुलाकात के लिए होटवार जेल (बिरसा केंद्रीय कारागार) पहुंचे तब मुलाकात के लिए अभी नहीं आने की बात कही गई और पहली मुलाकात जो सरायकेला में हुई थी, उसके 17वें दिन आने को कहा गया.

मैं मुलाकात में फल लेकर गई थी. उस जेल में परिजन चाहे तो प्रत्येक दिन ही बंदी को फल या कुछ निश्चित सामान भिजवा सकते थे, पर मेरे लाए गए फल भी जेल प्रशासन ने रूपेश को नहीं भिजवाए. इसके पीछे का कारण शायद रूपेश को इस जानकरी से अनभिज्ञ रखना था कि हम लोग उनसे मिलने गए थे, ताकि पनिशमेंट सेल (Punishment Cell) में रखने का उद्देश्य अच्छे से पूरा हो. 19 सितंबर को रूपेश को पनिशमेंट सेल से सर्कुलर सेल में भेजा गया.

हमारे बीच इससे पहले सप्ताह में 3 दिन बात हो रही थी, पर अब 9 सितंबर के बाद अभी तक बात नहीं हुई थी, न ही किसी मार्फत कोई खबर ही मिली थी. 17 सितंबर को जेल में मुलाकात के लिए रजिस्ट्रेशन वाली खिड़की में काफी मनुहार के बाद फोटो दिखा कर संबंधित सिपाही ने पुष्टि की कि ये व्यक्ति इस जेल में लाया गया है और सेल में रखा गया है, इसीलिए 17 वें दिन (जो 22 सितंबर को पूरा हो रहा था) को आइए.

20 सितंबर को सरायकेला कोर्ट में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का दिन था, जहां रूपेश ने एक कमरे में बंद किए जाने की बात बताई. मेरे लाए गए फलों, जो झोले में बंद होने से सड़ गए थे, को इसी दिन रूपेश को सौंपा गया. दो दिन बाद जब मैं मुलाकात के लिए गई तो मुझे एक सप्ताह तक एक कमरे में बंद किए जाने की पूरी बात पता चली.

काफी संघर्ष के बाद उन्हें उस बंद कमरे से निकाल कर सर्कुलर सेल में रखा गया, पर वहां भी अपराधिक आरोपों वाले बंदियों के साथ. वहां भी रूपेश ने मुलाकात के जरिए जेल की स्थिति को बताया कि उन्हें सर्कुलर सेल में रखा गया था (जहां कैदियों के लिए 25 कमरे थे), जिसमें रूपेश के अलावा मात्र चार अन्य बंदी रहते थे, सभी बड़े आपराधिक मामलों में शामिल थे.

रूपेश का कमरा लगभग 6×6 का था, जिसमें शौच के लिए भी अलग कक्ष था. इसके अलावा पूरा दिन गुजारने के लिए 20×30 का बरामदा था, जहां पांचों कैदी घूम सकते थे. पढ़ने के लिए किताबों की सूची दी जाती थी, जिसमें अधिकतर किताबें धार्मिक प्रकृति की रहती थीं, एक धर्मनिरपेक्ष देश को मुंह चिढ़ाती हुईं.

देश के बड़े-बड़े लेखकों या विदेशी लेखकों की कोई किताब विरले ही यहां मिल सकती थी, बाहर से किताब भेजने की बात पर बताया जाता था कि अंदर पुस्तकालय है, बाहर से किताबें नहीं जा सकतीं. हालांकि, रूपेश को पुस्तकालय जाने का अधिकार नहीं था, न ही कैंटिन जाने का. एक लिखने-पढ़ने वाले इंसान के लिए यह वाकई में एक यातना गृह था.

जब परिवार उनसे मुलाकात के लिए जाता था तो उन्हें आने में काफी वक्त लगता था. पूछने पर सिपाही ने बताया कि उनका सेल सबसे अंत में है, जहां जाने में वक्त लगता है.

होटवार में बड़े-बड़े अपराधियों को भी सामान्य सेल में रखा गया था, मगर एक पत्रकार को ऐसे सेल में रखा गया था, जहां वे उन चारों बंदियों के अलावा अन्य किसी से नहीं मिल सकते थे और न ही कहीं बाहर जा सकते थे. उस सेल में होने के कारण उन्हें 17वें दिन पर मिलना था, सप्ताह में एक दिन फोन से बात करना था. यह वही जेल था जहां कई गंभीर आरोपों में बंद रसूखदार लोगों को मोबाइल तक चलाने की छूट थी. लगातार संघर्ष के बाद यहां खान-पान की स्थिति में सुधार होने लगा था और रूपेश ने यहां ‘मास्टर्स इन जर्नलिज्म’ और ‘मास्टर्स इन हिस्ट्री’ के कोर्स में इग्नू में दाखिला लेकर पढ़ाई शुरू कर दी थी.

पर तब तक तीसरे जेल में स्थांनातरित करने की तारीख आ गई और रूपेश को 17 अप्रैल को झारखंड की होटवार जेल से बिहार के पटना के आदर्श केंद्रीय कारागार, बेऊर भेज दिया गया. यह कदम रोहतास के एक केस, जिसे एन‌आईए ने टेकओवर कर लिया था, में न्यायालय में पेशी के बाद उठाया गया था.

इस बार भी हमें कोई जानकारी नहीं दी गई. वो तो संयोगवश पटना जिला अदालत में पेशी के दौरान जाते वक्त रूपेश के पहचान के एक वकील साथी से मुलाकात हो गई थी और हमें उसी दिन इस ट्रांसफर के बारे पता चला. यहां से रूपेश ने और उनके लगभग 800 से भी ज्यादा सहबंदियों ने इजरायल द्वारा फिलिस्तीन पर किए जा रहे हमलों को रोकने व पीड़ितों की हरसंभव मदद में देश की सक्रिय भूमिका की उम्मीद व इसके समर्थन में माननीय राष्ट्रपति महोदया को पत्र भेजा था.

वहां इन्होंने ‘मास्टर्स इन हिस्ट्री’ की जून सत्रांत तथा ‘मास्टर्स इन जर्नलिज्म’ की दिसंबर सत्रांत परीक्षा भी दी.

यहां एक दबंग कैदी द्वारा एक गरीब कैदी को मारपीट कर मार डालने की घटना, जिसे एक दुर्घटना के रूप मे दिखाया गया था, का भी रूपेश तथा इनके सहबंदियों ने विरोध किया और जेल प्रशासन को इस पर जांच करने का आवेदन दिया. यहां पढ़ाई भी चल रही थी, और जेल व्यवस्था में सुधार के लिए आवेदन देने जैसी पहल भी.

पर तभी समय आ गया चौथे जेल ट्रांसफर का.

आखिरकार 22 जनवरी 2024 को रात के लगभग 8.30 बजे रूपेश को पटना से भागलपुर के लिए ले जाया गया (उनके साथ 2 अन्य लोगों का भी ट्रांसफर एक ही पत्र के माध्यम से एक ही आरोप के तहत किया गया था). रूपेश को ट्रांसफर के बारे एक दिन पहले ही पता लग गया था क्योंकि एक दिन पहले ही ले जाना था, पर ऐन वक्त पर गार्ड के अनुपस्थित होने के चलते ऐसा न हो सका.

अगला दिन रूपेश से बात करने का था, इसलिए मुझे भी उन्हें भागलपुर भेजे जाने की खबर मिल गई. 23 जनवरी को मैंने रूपेश के मौसेरे और ममेरे भाइयों से, जो भागलपुर में ही रहते हैं, पता करने को कहा कि रूपेश को कहां रखा गया है. उन्होंने पुष्टि की कि रूपेश को शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारावास लाया गया है.

रूपेश से यहां मेरी पहली मुलाकात 30 जनवरी 2024 (मंगलवार) को हुई. मुलाकात के दौरान हुई बातचीत से पता चला कि 23 जनवरी 2024, जब रूपेश को पटना के आदर्श केंद्रीय कारा से भागलपुर के शहीद जुब्बा सहनी केंद्रीय कारावास लाया गया था, से उन्हें सेल नंबर 3 में रखा गया, जहां लगभग 20 फीट की ऊंचाई पर 9 वॉट का एक बल्ब सेल के एक तरफ लगा है, जो सेल को नाममात्र केलिए रोशन कर पाता है.

इसके साथ ही, रूपेश से उनकी मिल्टन थर्मोस्टील की बोतल भी ले ली गई. मीडिया में इन बातों के आने के बाद तथा संबंधित जगहों पर मेल करने के बाद इस स्थिति को सुधारा गया. इस जेल में खान-पान में बहुत ही धांधली की जाती रही है. बाहर से भ्रष्टाचार से मुक्त दिखने वाला यह जेल भ्रष्टाचार में पूरी तरह लिप्त है. यहां भी रूपेश ने केवल अपने लिए नहीं, वरन सभी बंदियों के हक के लिए बोलना और लड़ना शुरू कर दिया. पता चला कि यहां लाए गए अधिकांश बंदियो की लाने के साथ ही सबसे पहले पिटाई की जाती है, ताकि बंदियो में भय का माहौल रहे. कई सहबंदियों ने यह बात बताई.

यहां हर मुलाकात में खाने की खराब स्थिति के बारे में ही पता चलता था. यहां हमारी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग भी नहीं करवाई जा रही थी और 350 किलोमीटर दूर आने-जाने से समय, शरीर और पैसे सभी बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे.

अदालत के मौखिक आदेश पर केवल एक दिन (23 फरवरी) ई-मुलाकात करवाकर फिर बंद कर दी गई, जो काफी संघर्ष के बाद पुनः शुरु हुई है.

इस जेल में रूपेश से 18 मार्च को हुई मुलाकात में हमें उनकी आंखों के रंग में थोड़ा-बहुत परिवर्तन दिखा, हमने जेल प्रशासन को इस बाबत खबर देने की बात कही. रूपेश ने जेल अस्पताल में दिखाया भी, जहां से उन्हें बाहर के अस्पताल मायागंज रेफर कर दिया गया. पर जेल प्रशासन ने इस मामले में कोई पहल नहीं की.

इसी बीच, 11 अप्रैल की मुलाकात में रूपेश ने बताया था कि 10 अप्रैल को उन्हें जेल में एक कक्षपाल ने मारने की धमकी देने के साथ- साथ अपशब्द भी कहे थे. इस बाबत मैंने जेल महानिरीक्षक तथा अन्य संबंधित अधिकारियों को ईमेल भेजा था. इस दौरान, सप्ताह में 2 बार आने वाले काॅल भी कभी 8 तो कभी 10 दिन में भी नहीं आ रहे थे, तो कभी आवाज भी नहीं आ पाती थी. पूछने पर बताया गया था कि कुछ तकनीकी समस्या हुई है.

आखिरकार, रूपेश ने जेल से ही 7 मई को तमाम जोखिमों के बावजूद भागलपुर कलेक्टर (डीएम) को एक आवेदन लिखा, जिसमें जेल की तमाम कुव्यवस्थाओं की कहानी कही. इसकी प्रतिलिपि जेल महानिरीक्षक, मुख्य न्यायाधीश, पटना हाईकोर्ट, बिहार के मुख्यमंत्री और गृह सचिव, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग को भी भेजी गई. जिसको संज्ञान में लेते हुए 3 जून को गृह सचिव तथा 12 जून को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा जेल महानिरीक्षक को पत्र भेजा गया है.

वहीं, 29 मई को जिलाधिकारी की तरफ से भी जांच कराई गई थी, जिसके बाद कुछ हद तक सुधार हुआ था. रूपेश इस वर्तमान जेल से 14 जून से ‘मास्टर्स इन हिस्ट्री’ की 2 सेमेस्टर अर्थात अंतिम वर्ष की परीक्षा में भी शामिल हुए थे.

इन सबके बीच, पिछले 2 सालों से सात वर्ष के होने वाले एक बच्चे की हर सुबह इसी उम्मीद में होती है कि उसके पापा को जेल से रिहाई मिल जाएगी और वह बाईक से घर लौटेंगे, फिर पापा-बेटे दुकान से बेटे की पसंद की खरीदारी करेंगे और फिर साथ में खूब खेलेंगे और कभी-कभी साथ मिलकर मां को बुद्धू भी बनाएंगे.

(लेखिका रुपेश कुमार सिंह की जीवनसाथी हैं.)