नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कलकत्ता हाईकोर्ट के उस विवादास्पद आदेश को रद्द कर दिया है जिसमे कोर्ट ने किशोरियों को अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखने की सलाह दी थी.
कोर्ट के फैसले में कहा गया था कि ‘समाज की नजर में उसकी (किशोरी) इज़्ज़त नहीं होती जब वह मुश्किल से दो मिनट के यौन सुख के लिए तैयार हो जाती है.’
जस्टिस एएस ओका और उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने सोमवार (19 अगस्त) को हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (पॉक्सो) और भारतीय दंड संहिता के तहत आरोपी की सजा को फिर से बहाल कर दिया.
हाईकोर्ट की यह विवादास्पद टिप्पणी 18 अक्टूबर, 2023 को युवा लड़की के अपहरण और यौन उत्पीड़न के मामले में निचली अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए व्यक्ति को बरी करते हुए आई थी. लड़के ने बताया था कि वे उस लड़की के साथ रिश्ते में थे और यह सहमति से बनाया गया संबंध था. सुनवाई के दौरान जस्टिस चित्तरंजन दास और जस्टिस पार्थ सारथी सेन की पीठ ने कहा, ‘किशोर लड़कियों को दो मिनट के सुख के बजाय अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए. किशोर लड़कों को युवा लड़कियों और महिलाओं और उनकी गरिमा का सम्मान करना चाहिए.’
बार और बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, हाईकोर्ट ने कहा था कि किशोर लड़कियों को ‘दो मिनट के आनंद में पड़ने’ के बजाय ‘अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए.’
आरोपी को आईपीसी की धारा 363 (अपहरण के लिए सजा) और धारा 366 (अपहरण या किसी महिला को शादी के लिए मजबूर करना आदि) के साथ-साथ पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 (यौन उत्पीड़न) के तहत दोषी ठहराया गया था.
पश्चिम बंगाल सरकार ने हाईकोर्ट के इस फैसले और टिप्पणियों के खिलाफ अपील दायर की थी.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, शीर्ष अदालत ने कलकत्ता हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच द्वारा दर्ज की गई टिप्पणियों/निष्कर्षों के कारण संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत स्वत: संज्ञान लेते हुए रिट याचिका भी शुरू की थी. बताया गया था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) डीवाई चंद्रचूड़ के कहने पर स्वत: संज्ञान कार्यवाही शुरू की गई थी.
स्वत: संज्ञान याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि राज्यों को किशोर न्याय अधिनियम की धारा 30 से 43 के साथ-साथ पॉक्सो अधिनियम की धारा 19 (6) के प्रावधानों को लागू करने के निर्देश जारी किए गए हैं.
जस्टिस ओका ने कहा कि फैसले कैसे लिखे जाने हैं, इस पर भी निर्देश जारी किए गए हैं.
यह पहली बार नहीं था जब शीर्ष अदालत ने हाईकोर्ट की टिप्पणी को गलत बताया। दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने उक्त टिप्पणी को बेहद निंदनीय बताते हुए कहा था कि जजों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे उनके आदेशों और निर्णयों के जरिये ‘उपदेश’ दें.
उल्लेखनीय है कि मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले के जरिये इस बारे में विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए थे कि यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों को कैसे देखा जाना चाहिए. साथ ही शीर्ष अदालत ने जजों और वकीलों के बीच संवेदनशीलता पैदा करने की जरूरत पर भी जोर दिया था. देश की सभी अदालतों को निर्देश दिया गया था कि वे यौन अपराधों के मामलों का फैसला करते समय महिलाओं के कपड़े, व्यवहार, पिछले आचरण, नैतिकता या शुचिता पर टिप्पणी करने से बचें, या किसी तरह का कोई ‘समझौता फॉर्मूला’ न सुझाएं.