‘यह एक स्मारक है, जो अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला (जन्म: 19 जनवरी, 1732-निधन: 26 जनवरी, 1775) की रानी उम्मत-उज-जोहरा उर्फ बहू बेगम के लिए बनाया गया. यह गैर-मुगल मुस्लिम स्थापत्य कला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है. इसके पूरे परिसर में चारों ओर हरियाली फैली हुई है और मुहर्रम के समय इसकी भव्यता देखने योग्य होती है. यह फैजाबाद की सबसे ऊंची इमारतों में से एक है और इस परिसर के ऊंचे स्थान से पूरे शहर और उसके आसपास का दृश्य देखा जा सकता है. यह परिसर अब भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन है और शिया बोर्ड समिति द्वारा इसका प्रबंधन देखा जाता है.’
फैजाबाद… माफ कीजिएगा…फैजाबाद तो अब रहा ही नहीं, अयोध्या में नाका रोड पर जवाहरबाग में स्थित बहू बेगम के ऐतिहासिक मकबरे के बारे में ये जानकारियां विकीपीडिया और उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग की आधिकारिक वेबसाइट पर दी गई हैं, जिनमें से एक के अंत में यह भी लिखा है कि ‘दुख की बात है कि यह उपेक्षा का शिकार है और ढह रहा है.’
लेकिन विडंबना यह कि ‘ढह रहा है’ कहने से इसके ढहने का दुख पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं होेता, क्योंकि पूरा सच यह है कि उसे बरबस ढहने दिया जा रहा है- महज उसके हाल पर छोड़कर या उसकी बेकदरी कर के ही नहीं, अतिक्रमण, अवैध कब्जों व गंदगी वगैरह के हवाले करके भी.
तिस पर कोढ़ में खाज यह कि केंद्र व उत्तर प्रदेश सरकारों द्वारा अयोध्या के विश्वस्तरीय विकास और इतिहास की विरासतों व धरोहरों के संरक्षण के लिए खोले गए सरकारी खजाने की तुच्छ-सी धनराशि भी इसकी सार-संभाल के नाम नहीं है. शायद इसलिए कि इससे जो इतिहास जुड़ा है, वह उनके लिए खासा असुविधाजनक है और इसके चलते उसके संरक्षण में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.
शुजा के सपनों का ताज
बहरहाल, 22-23 अक्टूबर, 1764 को ईस्ट इंडिया कंपनी से लड़ी गई बक्सर की ऐतिहासिक लड़ाई हारने के बाद नवाब शुजाउद्दौला ने फैजाबाद को अवध की राजधानी बनाया और इस मकबरे का निर्माण शुरू कराया तो कहते हैं कि इसे आगरा के ताजमहल जैसा बनवाना चाहते थे. लेकिन वे अपनी यह इच्छा पूरी कर पाते, इससे पहले ही उनकी मौत हो गई और उनके बेटे आसफउद्दौला ने राजधानी लखनऊ स्थानांतरित कर दी तो इस मकबरे का निर्माण उसकी प्राथमिकताओं में ही नहीं रह गया.
तब उससे अनबन के कारण फैजाबाद में ही बनी रहकर समानांतर सत्ता चलाने वाली बहू बेगम के नाम से प्रसिद्ध उसकी मां उम्मत-उज-जोहरा ने खुद इसकी जिम्मेदारी संभाली. लेकिन मौत ने उन्हें भी इसका मौका नहीं दिया.
तब कुछ देर को लगा कि अब इस मकबरे का निर्माण शायद ही कभी पूरा हो पाए. लेकिन बाद में लोगों ने जाना कि बहू बेगम इसके लिए धनराशि की व्यवस्था तो कर ही गई हैं, शुजाउदौला के वक्त उनके खास सिपहसालार रहे दाराब अली खान को ताकीद भी कर गई है कि वे हर हाल में उसका निर्माण पूरा कराएं. अनंतर, दाराब अली ने इस जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा से निभाया और बेशकीमती पत्थरों से मकबरे को करीब बयालीस मीटर ऊंचा बनवाया.
जब तक नवाबों का राज रहा, इस मकबरे की भरपूर सार-संभाल होती रही, लेकिन अंग्रेजों द्वारा फरवरी, 1856 में वाजिद अली शाह से नवाबी छीनकर उन्हें कलकत्ता निर्वासित किए जाने और 1857 में शुरू हुए स्वतंत्रता संग्राम के विफल हो जाने के बाद इसकी बेकदरी शुरू हुई तो स्वतंत्र भारत में भी बदस्तूर जारी रही.
दशकों पहले इसके एक हिस्से को एक राजनीतिक पार्टी की गतिविधियों के लिए सौंप दिया गया और अब तो हद ही हो गई है. क्योंकि अब इसके परिसर में इसकी स्थापत्य की नहीं, अतिक्रमण व गंदगी की ‘भव्यता’ ही नजर आती है.
पुरुष वर्चस्व को धता
यह ‘भव्यता’ इस अर्थ में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि बहू-बेगम को अपने दौर में महिलाओं के लिए वर्जित माने जाने वाले राजकाज के क्षेत्र में उतरने, पुरुषों के वर्चस्व को धता बताकर राजनीतिक पैंतरेबाजियों में उन्हें छकाने और साथ ही अपने बेटे आसफउद्दौला की कृदृष्टि से फैजाबाद के वैभव की रक्षा करने के लिए जाना जाता है. इतिहासकार अपने नजरिये के अनुसार उन्हें दरियादिल और क्रूर दोनों बता गए हैं, जबकि जनधारणाओं में नवाबों की सारी बेगमों में उनका दर्जा सबसे ऊपर माना जाता हैं.
1733 में उनका जन्म हुआ तो उनके पिता नवाब मोतमनउद्दौला मुहम्मद इशाक खां गुजरात के गवर्नर थे और दिल्ली के मुगल दरबार में उनका रुतबा खासा बुलंद था. इसे इन परिस्थितियों का पुरस्कार ही कहेंगे कि वे जल्दी ही तत्कालीन मुगल बादशाह मुहम्मद शाह की सबसे प्यारी मुंहबोली बेटी बन गईं. 1745 में मुहम्मद शाह ने ही उन्हें शुजाउद्दौला से ब्याहा. तब वे महज 12 वर्ष की थीं और उनके निकाह के लिए दिल्ली के दारा शिकोह महल में जो जलसा हुआ, उस पर शाही खजाने से 46 लाख रुपये खर्च किए गए थे. आज के नहीं, उन दिनों के 46 लाख रुपये.
ब्याह के बाद वे फैजाबाद आईं तो सास नवाब बेगम ने उन्हें बहू बेगम का नाम दिया. जानकार बताते हैं कि चूंकि वे मुगल बादशाह की मुंहबोली बेटी थीं, रसिक मिजाज शुजाउद्दौला उनसे बहुत डरते थे. इस डर का लाभ उठाते हुए बहू बेगम ने उनसे तय कर लिया था कि जो रात वे उनके महल के बाहर कहीं और गुजारेंगे, उसके लिए उन्हें पांच हजार रुपयों का हर्जाना देंगे. लेकिन यह हर्जाना भी शुजा की रसिक मिजाजी नहीं रोक पाया, जिसके चलते उनके ओर बेगम के रिश्तों में तल्खी तो आई ही, एक समय ऐसा भी आया, जब बहू बेगम की इस हर्जाने से होने वाली आमदनी उनकी जागीरों की आमदनी से भी ज्यादा हो गई.
इस आमदनी से उन्होंने मोती महल नामक अपने महल के सहन में चांदी का चबूतरा बनवाया और 1748 में इसी महल में बेटे आसफुद्दौला को जन्म दिया. लेकिन बक्सर की लड़ाई में शुजाउद्दौला ऐसी बुरी तरह हारे कि उनको एक लंगड़ी हथिनी पर बैठकर छुपकर भागना पड़ा और अंग्रेजों ने उन पर 50 लाख रुपये का तावान-ए-जंग लगा दिया तो बहू बेगम सारी तल्खी भुलाकर उनके बुरे दिनों का सहारा बनीं.
तावान की अदायगी में शुजा का सारा खजाना खाली हो गया तो 20 लाख रुपये बहू बेगम ने अपने जेवर वगैरह बेचकर दिए. इसके लिए उन्हें अपने सुहाग की नथ तक बेच देनी पड़ी. फिर भी तावान अदायगी की रकम पूरी नहीं हो पाई और शुजा को अपने इलाहाबाद व चुनारगढ़ के इलाके अंग्रेजों के पास गिरवी रखने पड़े. बेईमान अंग्रेजों ने बाद में यह काया रकम अदा किए जाने पर भी ये इलाके खाली नहीं किए.
बेटे से अलहदा हुकूमत
शुजा की मौत के बाद आसफुद्दौला ने नवाब बनते ही फैजाबाद के बजाय लखनऊ को सूबे की राजधानी बना डाला तो इसका एक बड़ा कारण अपनी मां बहू बेगम से उनकी पटरी न बैठना भी था. इसीलिए बहू बेगम ने भी उनके साथ लखनऊ जाना मंजूर नहीं किया और फैजाबाद में अपनी सास नवाब बेगम के साथ अलहदा हुकूमत करती रहीं. कभी-कभार लखनऊ जातीं तो भी अपने खासमहल सुनहरे बुर्ज में ही रहतीं जो रूमी दरवाजे के निकट (किलाकोठी, राजघाट, गोमती के किनारे) स्थित था.
भारत में अपने राज्य की सीमाओं के विस्तार की भूखी ईस्ट इंडिया कंपनी की फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी (बंगाल) का गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स भारत आया तो यह देखकर जलभुन गया कि बहू बेगम ने बनारस के राजा चेत सिंह को (जो अंग्रेजों के विरुद्ध झंडा उठाए हुए हैं) अपना भाई बना रखा है. उसने बहू बेगम व आसफुद्दौला यानी मां-बेटे की अनबन का लाभ उठाकर 28 जनवरी, 1782 को आसुउद्दौला के हाथों ही बेगम को लुटवा लिया. इसके लिए बेगम के मोती महल पर सैनिक कार्रवाई कर उसे कई दिनों तक घेरे रखा गया. इतिहास ने इस लूट को बेगमों की लूट के रूप में दर्ज किया, जिसके लिए ब्रिटिश संसद ने हेस्टिंग्स पर महाभियोग भी चलाया.
अवध में इस लूट को आज भी बेटे द्वारा अपनी मां की लूट के रूप में याद किया जाता है. इसे लेकर आसफउद्दौला पर लगाई जाने वाली कालिख इस तथ्य से और गहरी हो जाती है कि उसकी तंगहाली के दिनों में इसी मां ने उसकी फौज की दो बरस की तनख्वाह अपने पास से दी थी. यह रकम उसने अपने बचपन में अपनी गुड़िया की शादी के दहेज से इकट्ठा की थी. इस अभागी मां को 21 सितंबर, 1797 को अपने इस बेटे की मौत भी देखनी पड़ी. इस दिन आसफुद्दौला का देहांत हुआ तो वह लखनऊ के सुनहरे बुर्ज में ही थी.
बहरहाल, उसके बाद भी उसके बुरे दिन ख़त्म नहीं हुए, जबकि देहांत गाजीउद्दीन हैदर की नवाबी के दौरान 1816 में हुआ. उसकी वसीयत के मुताबिक, उसे फैजाबाद में उसके इसी मकबरे में दफन किया गया, जो तब आधा-अधूरा ही बना था और जिसका अब कोई पुरसाहाल नहीं है.
विडंबना देखिए कि अब वह फैजाबाद तो नहीं ही बचा है, जिसको वह बेगम के रूप में दशकों तक सजाती-संवारती रही, उसका वह मकबरा भी नहीं बच पा रहा, जिसमें वह चिरनिद्रा में सोई हुई है और जो उनके फैजाबाद में उनकी आखिरी निशानी है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)