शीर्ष विश्वविद्यालयों में शोधार्थियों की संख्या घटी, शिक्षाविदों ने केंद्रीकृत प्रवेश परीक्षा को बताया जिम्मेदार

नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) में विश्वविद्यालयों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में 2016-17 और 2022-23 के बीच पूर्णकालिक पीएचडी पाठ्यक्रमों में नामांकित छात्रों की संख्या में गिरावट आई है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Pixabay)

नई दिल्ली: देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में नामांकित शोधार्थियों की संख्या में गिरावट देखी जा रही है. द टेलीग्राफ की रिपोर्ट के मुताबिक, शिक्षाविद इस गिरावट का जिम्मेदार ‘एक समान प्रवेश नियम’ लागू करने और ‘केंद्रीकृत प्रवेश परीक्षाओं’ के कारण शैक्षणिक कैलेंडर में उत्पन्न व्यवधान को बता रहे हैं.

नेशनल इंस्टीट्यूशनल रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) में विश्वविद्यालयों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, शीर्ष रैंक वाले विश्वविद्यालयों में 2016-17 और 2022-23 के बीच पूर्णकालिक पीएचडी पाठ्यक्रमों में नामांकित छात्रों की संख्या में गिरावट आई है. इनमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू), हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) और जादवपुर विश्वविद्यालय (जेयू) शामिल हैं.

मालूम हो कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यूजीसी (एमफिल/पीएचडी डिग्री प्रदान करने के लिए न्यूनतम मानक) विनियम, 2016 को अधिसूचित किया था.

नए नियमों के अनुसार, एक प्रोफेसर एक समय में तीन एमफिल छात्रों और आठ पीएचडी छात्रों से अधिक का मार्गदर्शन नहीं कर सकता है. वहीं, एक एसोसिएट प्रोफेसर दो एमफिल और छह पीएचडी छात्रों का मार्गदर्शन कर सकता है, जबकि एक सहायक प्रोफेसर (असिस्टेंट प्रोफेसर) एक एमफिल और चार पीएचडी स्कॉलर का मार्गदर्शन कर सकता है. इसमें बिना पीएचडी डिग्री वाले फैकल्टी सदस्यों को पीएचडी छात्रों का मार्गदर्शन करने से रोक दिया गया था.

बता दें कि यूजीसी ने साल 2018 में घोषणा की थी कि जुलाई 2021 से विश्वविद्यालयों में सहायक प्रोफेसर के रूप में नियुक्त होने के लिए उम्मीदवारों के पास पीएचडी डिग्री होना आवश्यक होगा.

इसके बाद 2021 में यूजीसी ने इस नीति के कार्यान्वयन को दो साल के लिए स्थगित कर दिया और फिर जुलाई 2023 में अपने फैसले को पलट दिया. इसका मतलब है कि राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (एनईटी) और राज्य स्तरीय पात्रता परीक्षा (एसएलईटी) पास करने वाले उम्मीदवारों को सहायक प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, भले ही वे शोधार्थियों का मार्गदर्शन नहीं कर सकते.

जेएनयू शिक्षक संघ (जेएनयूटीए) द्वारा शुक्रवार (30 अगस्त) को जारी ‘स्टेट ऑफ यूनिवर्सिटी’ रिपोर्ट के अनुसार, साल 2016-17 में शोधार्थियोंं की संख्या कुल छात्रों का 62 प्रतिशत थी, जबकि 2022-23 में यह 43 प्रतिशत थी.

रिपोर्ट में कहा गया है, ‘यह गिरावट यूजीसी के नियमों के बिना सोचे-समझे क्रियान्वयन के कारण भी आई है। सबसे पहले इन नियमों ने एक शिक्षक द्वारा पर्यवेक्षण किए जा सकने वाले एमफिल और पीएचडी छात्रों की संख्या पर एक समान सीमा लगा दी। फिर पीएचडी छात्रों की संख्या पर सीमा में संशोधन किए बिना ही एमफिल कार्यक्रम को समाप्त कर दिया गया.’

फरवरी 2022 तक, जब एम. जगदीश कुमार कुलपति थे, जेएनयू ने कई सहायक प्रोफेसरों को बिना पीएचडी डिग्री के नियुक्त किया था.

एक फैकल्टी सदस्य ने कहा, ‘वर्तमान में प्रोफेसर अक्षम हो गए हैं. अगर किसी प्रोफेसर के पास आठ छात्र हैं, तो उन्हें नए छात्रों को लेने के लिए मौजूदा छात्रों के पाठ्यक्रम पूरा होने तक इंतजार करना होगा. इसके अलावा, कई नए फैकल्टी सदस्य मार्गदर्शन नहीं कर सकते. प्रत्येक स्लॉट के लिए कम से कम 10 छात्र आवेदन करते हैं. शोध छात्रों की संख्या में कमी का मतलब विश्वविद्यालय के लिए नुकसान है.’

कंप्यूटर विज्ञान के सेवानिवृत्त जेएनयू प्रोफेसर राजीव कुमार ने अखबार को बताया कि पीएचडी प्रवेश के लिए केंद्रीकृत प्रवेश परीक्षा समय पर आयोजित नहीं की जा रही है, जिससे प्रवेश कार्यक्रम प्रभावित हो रहा है.

उन्होंने कहा, ‘छात्र राज्य और निजी सहित कई विश्वविद्यालयों में प्रवेश के लिए कोशिश करते हैं. केंद्रीय विश्वविद्यालयों द्वारा प्रवेश में हमेशा देरी होती है क्योंकि वे राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी द्वारा घोषित किए जाने वाले प्रवेश परिणामों का इंतजार करते हैं. वहीं, कुछ अन्य लोग एक से अधिक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सीटें ब्लॉक कर देते हैं और अंत में उन्हें छोड़ देते हैं, जिससे सीटें खाली रह जाती हैं.’