धीरेंद्र झा ने गोलवलकर की जीवनी के ज़रिये भारतीय फ़ासिज़्म की जीवनी लिखी है

धीरेंद्र के. झा की 'गोलवलकर: द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन' साफ़ करती है कि सावरकर के साथ एमएस गोलवलकर को भारतीय फ़ासिज़्म का जनक कहा जा सकता है. इसे पढ़कर हम यह सोचने को बाध्य होते हैं कि क्यों फ़ासिज़्म के इस रूप के प्रति भारत के हिंदुओं में सहिष्णुता है.

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(साभार: Simon and Schuster IN)

गोलवलकर: द मिथ बिहाइंड द मैन, द मैन बिहाइंड द मशीन धीरेंद्र के.  झा की नई किताब है. हिंदुत्ववादी विचारधारा और संगठन का धीरेंद्र झा बरसों से अध्ययन कर रहे हैं. उनकी पिछली किताब महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे की जीवनी थी. उसके पहले उन्होंने साधुओं और अखाड़ों पर किताबें लिखी हैं जो हिंदुत्व की सेनाएं ही हैं. यह ताज़ा किताब किताब माधव सदाशिव राव गोलवलकर की जीवनी है.

गोलवलकर को लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के दूसरे प्रमुख होने के कारण ही जानते हैं. उनका और कोई योगदान भारत के लिए नहीं. गोलवलकर का महत्त्व क्या है? यही कि गोलवलकर उस व्यक्ति का नाम है जिसने घृणा और हिंसा की एक अनवरत चलने वाली मशीन बनाई. आरएसएस ही वह मशीन है. यह कहा जा सकता है कि आरएसएस की स्थापना तो हेडगेवार ने की थी लेकिन यह सच है कि यह संगठन आज जिस रूप में है, उसका श्रेय या उसकी ज़िम्मेदारी गोलवलकर की है. आरएसएस को एकमुख से सैकड़ों मुंहवाली शैतानी मशीन के रूप में तब्दील करने का काम गोलवलकर ने किया.

आरएसएस आज के भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण संगठन है. उसके लोग भारत की संघीय सरकार चला रहे हैं. वे भारत के अनेक राज्यों में सरकार चला रहे हैं. आरएसएस की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी आज भारत का सबसे ताकतवर और धनवान राजनीतिक दल है. भारत के प्रधानमंत्री जैसी सुरक्षा अगर किसी व्यक्ति को मिली है तो वह आरएसएस का प्रमुख है.

आज भारत के लगभग प्रत्येक महत्त्वपूर्ण संस्थान पर आरएसएस का क़ब्ज़ा है. विश्वविद्यालयों से लेकर विज्ञान, समाज विज्ञान और संस्कृति से जुड़े सारे संस्थान अभी आरएसएस के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष क़ब्ज़े में हैं. अब यह संगठन दुनिया के दूसरे देशों में भी कई नामों से काम कर रहा है. इसलिए यह उचित ही है कि हम उस व्यक्ति के बारे में जानें जिसने ऐसे विशाल संगठन की कल्पना की.

इस संगठन का उद्देश्य हिंदुओं का संगठन करना है.लेकिन यह संगठन तीन स्थायी शत्रुओं से हिंदुओं की सुरक्षा के लिए किया जाना है. वे तीन दुश्मन हैं- मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट. यह ध्यान रखने की ज़रूरत है कि आरएसएस कभी भी हिंदू समाज को अपने भीतर झांककर देखने और अपना परिष्कार करने के लिए प्रेरित नहीं करता. वह हिंदुओं के आध्यात्मिक जीवन को लेकर चिंतित नहीं. वह हिंदुओं के सामाजिक जीवन में ऊंच-नीच की भावना से भी, जो जाति की संस्था के रूप में मूर्त होती है, चिंतित नहीं.

आंबेडकर की तरह उसने कभी जाति के विनाश या उसके उच्छेद का लक्ष्य नहीं रखा. गांधी की तरह उसने अस्पृश्यता को ख़त्म करने का आंदोलन कभी नहीं चलाया. उसने बाल विवाह के विरुद्ध भी कोई जागृति का काम नहीं किया. अंतरजातीय विवाह या संबंधों के लिए या हिंदू समाज की अन्य कुरीतियों, जैसे दहेज प्रथा की समाप्ति के लिए भी आरएसएस आंदोलन या अभियान नहीं चलाता.

वह हमेशा हिंदुओं को बाहर की तरफ़ देखते रहने और चौकन्ना रहने के लिए तैयार करता है: उसे अपनी चौकसी बाहरी दुश्मनों से करनी है जो मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट हैं. इस प्रकार वह हिंदू समाज को एक चिर भयभीत, असुरक्षित और दूसरों के प्रति शंकालु समाज में बदलता है.

इसके साथ ही वह हिंदुओं में श्रेष्ठता की ग्रंथि भी पैदा करता है. हिंदू इस विश्व या ब्रह्मांड के श्रेष्ठतम प्राणी हैं, ईश्वर ने उन्हें अपनी शक्ल में ही गढ़ा है, वे स्वभावतः सहिष्णु और उदार हैं. ऐसे गुण दूसरे किसी धर्म में नहीं हैं. हिंदू इस ब्रह्मांड के पहले प्राणी भी हैं. जब कुछ नहीं था तब भी हिंदू धर्म था. वह प्राचीनतम है, श्रेष्ठतम है और सनातन है. ईश्वर ने इस धर्म के लिए भारत की भूमि को चुना. इस भूमि पर उसका पहला और अंतिम अधिकार है. उसका यानी ख़ुद को हिंदू कहने वालों का. इस तरह हिंदू धर्म से आगे बढ़कर राष्ट्रीयता में बदल जाता है. हिंदू और भारत एकमेक हैं. हिंदू यानी पहला भारतीय. दूसरों को ख़ुद को भारतीय कहने के लिए उससे इजाज़त लेनी होगी.

आरएसएस का हिंदू हमेशा दूसरों की अपेक्षा परिभाषित होता है. वह स्वतःसंपूर्ण नहीं. आरएसएस का हिंदू वही है जो मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों से या तो डरता है या घृणा करता है. इस तरह आरएसएस के हिंदू का अनिवार्य संदर्भ बिंदु ये तीन हैं. आरएसएस के हिंदू में आत्मसमीक्षा की क्षमता नहीं होती क्योंकि उसे विश्वास दिला दिया गया है कि वह सर्वश्रेष्ठ है. अगर कोई उसके सामाजिक जीवन में कोई न्यूनता दिखलाता है तो वह बुरा मान जाता है.

गोलवलकर ने सावरकर से प्रेरणा लेकर हिंदू की परिभाषा इसी रूप में की. ‘वी एंड आवर नेशनहुड डिफ़ाइंड’ में हिंदू के ‘वी’ हम को इसी प्रकार परिभाषित किया गया है. यह कहा जा सकता है कि यही आरएसएस का सैद्धांतिक आधार बना. गोलवलकर का महत्त्व आरएसएस के वैचारिक गुरु होने के कारण तो है ही, आरएसएस के आज के संगठन के स्वरूप की कल्पना भी गोलवलकर की है. इसलिए वह एक संगठन नहीं है: संगठनों का संगठन है.

वीडी सावरकर के साथ गोलवलकर. (फाइल फोटो साभार: Simon and Schuster IN)

धीरेंद्र झा की किताब में गोलवलकर की तस्वीर एक ऐसे व्यक्ति की उभरती है जो आत्मग्रस्त, शंकालु, षड्यंत्रकारी है और असत्य जिसके जीवन का आधार है. जिसके जीवन की चालक शक्ति प्रेम नहीं, द्वेष और घृणा है. वह अपने बारे में झूठ गढ़ता और प्रचारित करवाता है.

लोकार्पण कार्यक्रम से निकलकर एक नौजवान ने कहा कि आख़िरकार इसे नहीं भूलना चाहिए कि गोलवलकर जी प्रोफेसर थे. यह किताब बतलाती है कि अपने प्रति आदर पैदा करने के लिए गोलवलकर ने यह पहला बड़ा झूठ गढ़ा और प्रसारित करवाया. गोलवलकर का पद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में डिमांस्ट्रेटर का था, प्रचारित यह किया गया कि कम उम्र में ही गोलवलकर को प्रोफेसर बना दिया गया था.

उसी प्रकार बाद में ख़ुद अपनी किताब ‘वी’ को लेकर झूठ प्रचारित किया. वह किताब गोलवलकर की लिखी है लेकिन जब उसके चलते ख़ुद पर ख़तरा पैदा हो गया तो यह कहना शुरू कर दिया कि यह अनुवाद है, मेरी किताब नहीं है. धीरेंद्र की किताब बतलाती है कि झूठ गढ़ने में माहिर गोलवलकर के नेतृत्व में आरएसएस ने यह झूठ प्रचारित किया कि नाथूराम गोडसे का आरएसएस से रिश्ता न था जबकि वह बेचारा ख़ुद को आरएसएस का सदस्य ही मानता रहा. यह इसलिए कि गांधी की हत्या के बाद उसकी ज़िम्मेदारी तय करने के क्रम में कहीं आरएसएस पर आंच न आ जाए.

जिस गांधी पर इतना कोप था कि दिसंबर, 1947 में दिल्ली की रोहतक रोड की एक मीटिंग में गोलवलकर ने धमकी दी कि अगर उन्होंने मुसलमानों को भारत में रखने की ज़िद न छोड़ी तो उन्हें ख़ामोश कर दिया जाएगा, उनकी हत्या के बाद ख़ुद को बचाने के लिए गोलवलकर ने 13 दिन के शोक की घोषणा कर दी. जिस गांधी से आरएसएस का हर व्यक्ति घृणा करता है, वही उसके प्रातः स्मरणीय भी हैं.

क्या आरएसएस, जो गोलवलकर का बनाया हुआ है, ऐसे झूठ के सहारे ख़ुद को धोखा दे रहा है या दूसरों को धोखा दे रहा है?

जैसे हिंदू और भारत की गोलवलकर की परिभाषा असत्य है वैसे ही अपने जीवन की जो कहानी गोलवलकर ने प्रचारित करवाई उसमें भी झूठ का काफी मिश्रण है. फिर प्रश्न उठता है कि ऐसे व्यक्ति गोलवलकर की जीवनी की आवश्यकता ही क्यों? वह इसलिए कि गोलवलकर के लगातार महिमामंडन के कारण हम यह जान नहीं पाते कि भारतीय फ़ासिज़्म के बीज कैसे पड़े और कौन इसके लिए ज़िम्मेदार है.

धीरेंद्र की किताब पढ़ते हुए यह सवाल भी उठता है कि आरएसएस या गोलवलकर या उनके पहले सावरकर झूठ बोल रहे थे या मिथक निर्माण कर रहे थे तो वे उसके लिए तर्क दिया जा सकता है कि वे अपने बारे में भ्रम पैदा करना चाहते थे. यह भ्रम इसलिए ज़रूरी था कि वे क़ानून से बच सकें. जैसे, अगर यह साबित हो जाता कि गोडसे आरएसएस का सदस्य था तो उसका नतीजा आरएसएस के लिए निश्चय ही बहुत बुरा होता. इसलिए झूठ बोलना पड़ा कि गोडसे से संघ का कोई संबंध नहीं.

उसी प्रकार अगर यह झूठ बोलना पड़ा कि आरएसएस भारत एक संविधान पर विश्वास करता है तो वह भी उचित है क्योंकि उसे अपने ऊपर पाबंदी हटवानी थी. अगर अपने विश्वास के बारे में एक झूठ बोलकर या झूठी क़सम खाकर यह किया जा सकता है तो इसमें हर्ज ही क्या है?

आरएसएस के नेताओं के झूठ को समझा जा सकता है लेकिन असली सवाल यह है कि उनके झूठ पर भारत के राजनीतिक, अभिजात वर्ग और बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा भरोसा क्यों करता रहा है ? क्यों भारत का प्रभावशाली तबका आरएसएस के झूठ को सच मानने का आग्रह करता रहा है? जैसे हाल के दिनों में क्यों हमारे संपादक, विश्लेषक बार-बार कहते रहे हैं कि आरएसएस के प्रमुख के इरादे नेक हैं, वह तो कुछ भटके हुए लोग हैं जो गड़बड़ कर रहे हैं? क्यों टाटा से लेकर दूसरे प्रभावशाली लोग हेडगेवार भवन में हाज़िरी लगाना ज़रूरी समझते हैं?

क्यों भारत के अभिजन का बड़ा हिस्सा आरएसएस की घृणा-आधारित हिंसक विचारधारा को हिंसक मानने से इनकार करता रहा?

गांधी और नेहरू आरएसएस को भारत के लिए ख़तरनाक मानते रहे. लेकिन गांधी के परम शिष्यों और मित्रों ने क्यों आरएसएस के मामले में उनकी बात मानने से इनकार कर दिया? क्यों नेहरू के बार बार कहने के बावजूद वल्लभ भाई पटेल या गोविंद वल्लभ पंत जैसे नेताओं ने संघ के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने में लगातार हिचक दिखलाई? पंत और पटेल को ख़ुफ़िया एजेंसियां भी लगातार बतला रही थीं कि आरएसएस हिंसक कार्रवाइयों में शामिल है लेकिन उन जैसे लोगों ने उसे भी गंभीरता से लेने से इनकार किया.

धीरेंद्र झा की किताब में एक तनावपूर्ण प्रसंग का वर्णन है. वे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के हवाले से बतलाते हैं:

यह दिसंबर, 1947 की दिल्ली है. दिल्ली में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा चरम पर है. दिनदहाड़े हमले, आगज़नी, लूट-पाट और हत्या का सिलसिला है. गांधी के साथ पटेल, नेहरू और आज़ाद उस स्थिति पर विचार कर रहे हैं. नेहरू गांधी को बतला रहे हैं कि स्थिति बहुत गंभीर है और मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा बेलगाम है. वे दुखी और लज्जित हैं कि वे कुछ भी नहीं कर पा रहे. पटेल का चेहरा उदासीन और सख़्त है. वे नेहरू का प्रतिकार करते हुए कहते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं. हिंसा की घटनाएं छिटपुट ही हैं और उन्हें इतना बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बतलाना चाहिए.

नेहरू यह सुनकर सन्न रह जाते हैं. वे गांधी को कहते है कि अगर पटेल का यही विचार है तो फिर उन्हें कुछ नहीं कहना.

मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा न रुकती देख गांधी अनशन की घोषणा करते हैं. पटेल इस विकट क्षण में अपने गुरु को छोड़कर पूर्व निर्धारित यात्रा पर निकल जाते हैं. वैसे ही जैसे उत्तर प्रदेश के मुखिया गोविंद वल्लभ पंत सारे सबूतों के बावजूद आरएसएस के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करते और गोलवलकर को बचकर निकाल जाने देते हैं.

यह किताब इस दिशा में विस्तार नहीं करती लेकिन वह पटेल, पंत या अन्य बड़े नेता का मुसलमानों के प्रति जो रुख़ था, उसकी तरफ़ इशारा करती है. पटेल भारत के मुसलमानों को संदेह की नज़र से ही देखते हैं और उन्हें बार-बार भारत के प्रति वफ़ादारी साबित करने को कहते हैं. अगर करोड़ों मुसलमान भारत में किसी वजह से रह गए हैं और वे संदिग्ध हैं तो आरएसएस जैसा संगठन बहुत आवश्यक और उपयोगी हो उठता है.

बावजूद इसके कि आरएसएस की हिंसक गतिविधियों के सबूत सबके सामने थे, उन्हें यह तर्क देकर नज़रअंदाज़ किया जाता रहा कि आरएसएस आख़िरकार देशभक्तों का अनुशासित संगठन है. एक ऐसे संगठन की ज़रूरत मालूम पड़ती रही जो मुसलमानों और ईसाइयों को नियंत्रित रख सकेगा.

सावरकर के साथ गोलवलकर को भारतीय फ़ासिज़्म का जनक कहा जा सकता है. धीरेंद्र झा ने गोलवलकर की जीवनी के माध्यम से भारतीय फ़ासिज़्म की जीवनी लिखी है. इसे पढ़कर हम यह सोचने को बाध्य होते हैं कि क्यों फ़ासिज़्म के इस रूप के प्रति भारत के हिंदुओं में सहिष्णुता है. किताब का यह इशारा विचलित करता है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)