अब तक करोड़ों लोगों ने वह वीडियो देख लिया होगा जिसमें बहराइच का रामगोपाल मिश्रा किसी के घर की छत पर चढ़कर एक हरा झंडा नोच रहा है. ऐसा करते हुए वह उस रेलिंग को झकझोर रहा है जिस पर वह झंडा लगा है. वह रेलिंग गिरा देता है, फिर वह भगवा झंडा लहराता है. मकान के बाहर भीड़ उन्माद में नारे लगा रही है और उसे ललकार रही है, शाबाशी दे रही है.
एक दूसरे वीडियो में हम मिश्रा की मृत देह देखते हैं जिस पर छर्रों के निशान हैं. मुझे एक हिंदू विद्यार्थी ने बहराइच की हिंसा से संबंधित एक दूसरा वीडियो भेजा. उसमें एक महिला का इंटरव्यू है जो रामगोपाल मिश्रा की मां है. वह महिला कैमरे के सामने कह रही है कि मुसलमान ‘तिरंगा’ लहराता है ख़ुदावाला. मेरा बेटा चढ़ गया और ख़ुदा वाला ‘तिरंगा’ हटा दिया. तभी पीछे से मुस्लिम आया और उसको मार दिया.
औरत एक तरह के उन्माद में है. बेटे के मारे जाने से किसी मां का विक्षिप्त हो जाना स्वाभाविक है. लेकिन मिश्रा की मां एक दूसरे स्तर पर होशोहवास में है. वह बतलाना चाह रही है कि उसके बेटे ने एक धार्मिक और राष्ट्रवादी काम किया है. उसने ख़ुदावाला तिरंगा नोचकर माताजी वाला तिरंगा लहरा दिया है. वह झंडे की जगह तिरंगा बोल रही है: ख़ुदावाला तिरंगा और माताजी वाला तिरंगा.
पिछले 10 वर्षों में हिंदू अवचेतन में जो परिवर्तन हुआ है, रामगोपाल मिश्रा की मां का यह बयान उसी का एक नमूना है. वह है धर्म और राष्ट्र का घालमेल. कौन-सा प्रतीक धार्मिक है, कौन सा राष्ट्रीय: इसका फर्क मिटा दिया गया है. मिश्रा की मां एक साथ दो बात कह रही है: उसका बेटा धार्मिक काम कर रहा था और एक राष्ट्रवादी दायित्व भी निभा रहा था. लेकिन वह इसके अलावा जो महत्वपूर्ण बात वह कह रही है कि एक हिंदू का धर्म और राष्ट्रवाद तब तक पूरा नहीं होता जब तक वह मुसलमान के ख़िलाफ़ न हो. ख़ुदावाला झंडा नोचकर माताजी वाला झंडा लगाना एक हिंदू का धार्मिक और राष्ट्रवादी काम है.
मिश्रा की मां को यह बिलकुल उचित लग रहा है कि उसके बेटे ने खुदा का झंडा हटाकर माताजी का झंडा लगा दिया. उसकी आपत्ति और नाराज़गी इस पर है कि ऐसा करने पर उस पर हमला क्यों किया गया. यानी वह इसे किसी तरह ग़लत, अनैतिक नहीं मान रही. अपराध मानना तो दूर की बात है.
मिश्रा की मां एक साधारण औरत है. कहा जा सकता है कि वह एक धार्मिक महिला है. कोई और वक्त होता तो शायद वह अफ़सोस करती कि उसके बेटे ने क्यों किसी दूसरे धर्म की निशानी नोच दी. क्यों दूसरे धर्म का अपमान किया? लेकिन अब वह वक्त नहीं रह गया है.
जिस नए वक्त में वह रह रही है उसका ऐलान सर्वोच्च न्यायालय ने 9 नवंबर, 2019 को किया जब उसने बाबरी मस्जिद को तोड़ने वाले अपराधियों को ही बाबरी मस्जिद की ज़मीन मंदिर बनाने के लिए सुपुर्द कर दी. उस दिन यह सिद्धांत स्थापित हुआ कि हिंदुओं को इसका अधिकार है कि वे दूसरे धर्म के प्रतीक को नष्ट करके उसकी जगह अपना प्रतीक स्थापित कर सकते हैं.
तिरंगा और भगवा में घालमेल हमने 2014 के बाद की कांवड़ यात्राओं में देखा जिनमें कांवड़िए तिरंगा लेकर चल रहे थे. यह धार्मिकता और राष्ट्रवाद का सम्मिलन था. धर्म राष्ट्र की सेवा में या राष्ट्र धर्म की सेवा में.
यह अनिवायर्तः अलगाववादी है. इसके सामने या साथ किसी दूसरे धर्म का कोई निशान या उपस्थिति नहीं रहनी चाहिए. यह उत्तर प्रदेश सरकार ने किया जब उसने इस यात्रा के रास्ते में मांस की दुकानों को बंद किया. फिर सारे दुकानदारों को अपना नाम लिखने को कहा जिससे पवित्र हिंदू कर्तव्य के पथिक गलती से मुसलमान का स्पर्श न कर लें. यह एक पूर्णतः अलगाववादी हिंदू भाव निर्मित करने का प्रयास है.
अलगाव ही नहीं बल्कि मुसलमान के साथ केवल शत्रुता का रिश्ता हो सकता है, यह विचार हिंदुओं में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के समय से धीरे-धीरे जड़ जमाने लगा. दूसरा यह कि हिंदुओं को अपने पूर्वजों की ग़ुलामी का बदला लेना है और उसका सही वक्त यही है. इसलिए मुसलमान धार्मिक स्थलों पर क़ब्ज़ा या उनका ध्वंस और मुसलमान बस्तियों पर प्रभुत्व स्थापित करना हिंदूपन के लिए ज़रूरी हो गया.
राष्ट्रीय या धार्मिक अवसर मुसलमानों पर, उनकी रिहाइश की जगहों पर चढ़ाई करना अब नियम-सा बन गया है. तिरंगा लेकर मुसलमान बस्तियों में घुसना और तिरंगा लहराने की ज़िद करना, ईद, बक़रीद के दिन मस्जिद पर तिरंगा लगाने की ज़िद या मदरसों में तिरंगा फहराकर मुसलमानों का राष्ट्रीयकरण किया जाता है. हिंदू धार्मिक अवसरों पर धार्मिक जुलूसों में मुसलमानों को गाली-गलौज करते हुए गाने बजाए जाते हैं और उनके खिलाफ अपमानजनक और हिंसक नारे लगाए जाते हैं. इस तरह हिंदू धार्मिकता बिना मुसलमानों को प्रताड़ित किए सिद्ध नहीं होती.
इसके साथ आप उन राजनीतिक भाषणों को याद कर लें जो भारतीय जनता पार्टी के नेता देते रहते हैं. हिंदू का हित हमेशा मुसलमान हित से अलग है. कब्रिस्तान-श्मशान या श्वेत क्रांति-गुलाबी क्रांति का विरोधी युग्म, उसी तरह शिवाजी-औरंगज़ेब या राणा प्रताप-अकबर का विरोधी युग्म पिछले 10 साल में हिंदू सहज बोध से अभिन्न हो गया है. इसे बहुत आसानी से राजनीतिक भाषा में बदल दिया जाता है: हिंदुओं का गहना लेकर मुसलमानों को दे दिया जाएगा, उनका आरक्षण मुसलमान खा जाएंगे, उनकी नौकरी मुसलमान ले लेंगे, उनकी ज़मीन पर मुसलमान क़ब्ज़ा कर लेंगे, उनकी औरतों पर तो उनकी जाने कब से निगाह है ही.
हिंदू अब आगे बढ़कर कह रहे हैं कि जैसे चाहें, जिस मौक़े पर चाहें, उन्हें मुसलमानों को गाली देने, उन्हें अपमानित करने का अधिकार मिलना चाहिए और मुसलमानों को इसका विरोध करने का हक़ नहीं है. वे मांग कर रहे हैं कि धार्मिक या किसी भी अवसर पर मुसलमानों के पवित्र स्थलों के आगे, उनके मोहल्लों में उन्हें अपमानित करने वाले नारे लगाने की उन्हें छूट मिलनी चाहिए. वे जब चाहें तो किसी मस्जिद पर चढ़ जाएं, उसमें घुस जाएं और जो चाहे करें. इस पर मुसलमानों को ऐतराज़ करने का अधिकार नहीं.
हाल में कर्नाटक की एक अदालत ने तो कह भी दिया कि मस्जिद सार्वजनिक स्थल है, अगर कोई उसमें घुसकर जय श्रीराम का नारा लगाता है तो किसी मुसलमान को क्यों बुरा लगना चाहिए? क्या मस्जिद वाक़ई वैसी सार्वजनिक जगह है जैसा उसे अदालत बतलाना चाहती है? और जय श्रीराम किस प्रकार का नारा है, क्या अदालत नहीं जानती?
यह सब उस प्रक्रिया का हिस्सा है जिसके लिए एक नया हिंदू अधिकार गढ़ा जा रहा है. दिल्ली की एक अदालत में जब भाजपा के एक नेता के मुसलमान विरोधी बयान पर बहस हो रही थी तो न्यायाधीश ने कहा कि हो सकता है अपने समर्थकों को जुटाने के लिए उस नेता को ऐसा करना पड़ा हो. यानी जन समर्थन के लिए अगर मुसलमान विरोधी बयान दिया जाए तो वह जायज हो जाता है.
उसी तरह दिल्ली की एक धर्म संसद में मुसलमानों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने के उकसावे को पुलिस ने यह कहकर उचित ठहराया कि यह अपने समुदाय की नैतिकता की रक्षा के लिए किया जा रहा था.
गोपाल मिश्रा की मां को भी यह अन्याय लग रहा है कि अगर उसका बेटा किसी मुसलमान के घर घुसकर उसका धार्मिक निशान नोचकर अपना निशान लगा दे और उस मकान को भी तोड़े तो उस पर कोई मुसलमान उग्र प्रतिक्रिया करे. वह एक जायज़ काम कर रहा था!
जब गोपाल मिश्रा यह पराक्रम कर रहा था तो उस मकान के आगे सैकड़ों हिंदुओं की भीड़ थी. इनमें से कोई उसे समझाने नहीं आया, किसी ने उसे नहीं रोका. किसी ने नहीं कहा कि दूसरे के घर नहीं घुसना चाहिए, किसी ने नहीं कहा कि किसी का धार्मिक चिह्न नष्ट नहीं करना चाहिए, किसी ने नहीं कहा कि किसी का घर तोड़ना नहीं चाहिए.
पूरी भीड़ उन्माद में मुसलमानों को गाली-गलौज करते हुए मिश्रा को उकसाती रही. वह उस भीड़ की तरफ़ से, उनके लिए मुसलमान का अपमान कर रहा था. वह एक हिंदू धार्मिक कृत्य कर रहा था, राष्ट्रवादी कर्तव्य पूरा कर रहा था. यह उसका अधिकार था. किसी को उसका विरोध करने का हक़ नहीं. किसी मुसलमान को तो क़तई नहीं.
इस नए हिंदू अधिकार के सहारे कोई हिंदू किसी मुसलमान से किसी भी विषय में पूछताछ कर सकता है. उसे ‘जय श्रीराम’ का नारा लगाने को बाध्य कर सकता है जैसा नोएडा के एक खाते पीते और ‘शिक्षित’ हिंदुओं की कॉलोनी में एक मुसलमान के साथ वहां के हिंदुओं ने किया.
इस हिंदू अधिकार के सहारे कोई हिंदू किसी मुसलमान के घर की जांच-पड़ताल कर सकता है, उसका टिफ़िन खोलकर देख सकता है, उसके फ्रिज की जांच कर सकता है. वह मुसलमान औरत के हिजाब पर ऐतराज़ कर सकता है, उसकी नमाज़ को बाधित कर सकता है. उसे इसका भी अधिकार है कि वह किसी मुसलमान की दाढ़ी-टोपी देखकर भड़क जाए और उस पर हमला कर दे. उसे इसका अधिकार तो है ही कि वह इस्लाम, रसूल को गाली दे. उसे मुसलमान समाज में सुधार लाने का और उसे राष्ट्रवादी बनाने का भी अधिकार है, बल्कि यह उसका राष्ट्रीय कर्तव्य है.
गोपाल मिश्रा यह नया हिंदू था, नए हिंदू अधिकार से लैस. यह हिंदू अधिकार वास्तव में वह अपने धार्मिक और राष्ट्रवादी कर्तव्य को पूरा करने के लिए इस्तेमाल कर रहा था.
मिश्रा को कायदे से गिरफ़्तार करना चाहिए था और मुक़दमा चलना चाहिए था. लेकिन क्या पुलिस ऐसा कर सकती है? कुछ साल पहले मुसलमानों पर हमला करने वाले हिंदुओं को नियंत्रित करने वाले पुलिस अधिकारी सुबोध कुमार सिंह की हत्या कर दी गई. फिर इस नये हिंदू को काबू कौन करे? मुसलमान कहां जाएं?
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद सुधीर कक्कड़ ने ‘इंडियन आइडेंटिटी’ नामक किताब में नई हिंदू पहचान को परिभाषित किया था. साध्वी ऋतंभरा के एक भाषण का विश्लेषण करते हुए उन्होंने दिखलाया था कि इस पहचान के दो हिस्से हैं. एक तो नायकों, देवताओं और ऐतिहासिक चरित्रों से निर्मित होता है, जैसे राम, हनुमान, परशुराम, शिवाजी आदि. दूसरा, उसके सहारे जो वह तयशुदा तौर पर नहीं है, यानी मुसलमान. यह हिंदू पहचान स्वनिर्भर नहीं है, स्वतः संपूर्ण भी नहीं. वह मुसलमान के साथ अलगाव के रिश्ते में ही परिभाषित होती है.
लेकिन कक्कड़ की इस परिभाषा में अब सुधार की ज़रूरत है. अब हिंदू पहचान सिर्फ़ मुसलमान से उसके अलगाव से परिभाषित नहीं होती. अब मुसलमान के प्रति घृणा से ही उसका निर्माण होता है.
गोपाल मिश्रा की मां का बयान सुनते हुए मुझे प्रेमचंद की कहानी ‘मंदिर-मस्जिद’ याद आ रही थी. इस कहानी के एक किरदार हैं चौधरी इतरत अली. पक्के मज़हबी. लेकिन हर किसी की पाकीज़गी की हिफ़ाज़त उनके लिए फर्ज है. उन्हें मालूम पड़ता है कि एक मंदिर में कुछ मुसलमान घुसकर उपद्रव कर रहे हैं. वे अपने वफ़ादार ठाकुर भजन सिंह को भेजते हैं कि बदमाशों की शास्ति करें. भजन सिंह उत्साह में उपद्रवियों पर लाठी चलाते हैं. इतरत अली देखते हैं कि जिसे मारा गया वह उनका दामाद है. यानी भजन सिंह के हाथों उनका दामाद मारा गया है.
भजन सिंह को काटो तो खून नहीं. लेकिन प्रेमचंद के इतरत अली कहते हैं: ‘मैं अगर खुद शैतान के बहकावे में आकर मंदिर में घुसता और देवता की तौहीन करता, और तुम मुझे पहचानकर भी कत्ल कर देते तो मैं अपना खून माफ कर देता. किसी के दीन की तौहीन करने से बड़ा और कोई गुनाह नहीं है. गो इस वक्त मेरा कलेजा फटा जाता है और यह सदमा मेरी जान ही लेकर छोड़ेगा, पर खुदा गवाह है कि मुझे तुमसे जरा भी मलाल नहीं है. तुम्हारी जगह मैं होता, तो मैं भी यही करता, चाहे मेरे मालिक का बेटा ही क्यों न होता.’
किसी के दीन की तौहीन से बड़ा पाप नहीं. आज का हिंदू यह क्यों भूल गया है? वह यह क्यों नहीं समझ पा रहा कि न सिर्फ़ किसी के दीन की तौहीन पाप है, बल्कि किसी इंसान, किसी समुदाय की तौहीन भी पाप है. पाप के इस बोध के लुप्त हो जाने का अर्थ है धर्म-बोध का लोप. क्या यह नया हिंदू, अधिकार-युक्त हिंदू पूरी तरह धर्म-बोध विहीन हो चुका है?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)