‘गीतों के राजकुमार’ कहलाने वाले हिंदी के अपने वक्त के बेहद लोकप्रिय कवि स्मृतिशेष गोपालदास ‘नीरज’ ने कभी दीपावली के दीयों को लेकर हिदायत दी थी- ‘जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए.’ फिर जैसे खुद से ही कहा था- मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में नहीं मिट सका है धरा का अंधेरा! उतर क्यों न आएं नखत सब नयन के, नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा, कटेंगे तभी यह अंधरे घिरे जब, स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए.
लेकिन विडंबना देखिए कि धरा के अंधेरे के बदस्तूर होने के बावजूद हमने उनकी हिदायत को इस हद तक भुला दिया है कि दीये जलाते वक्त हमें उस माटी और कुम्हार तक का ध्यान नहीं आता, जिनके बगैर दीयों का आकार ग्रहण करना ही संभव नहीं है.
इतना भी याद नहीं रख पाते हम कि इन दोनों से हमारा संबंध सिंधु घाटी की सभ्यता से भी पुराना है और सारी वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद हमारे पास इनका बस एक ही विकल्प है: इन्हें दुर्दिन में धकेले रखकर खुद प्लास्टिक के ग्रास बन जाएं! उस प्लास्टिक के जो भले ही खुद अजर-अमर हो गया है, हमारी नश्वरता में वृद्धि का कोई भी उपक्रम उठा नहीं रख रहा.
इस ‘विकल्प’ के अनर्थों से बचना है, तो याद कीजिए कि समूचे वृहत्तर भारत को अपने अंक में समेटने वाली सिंधु घाटी सभ्यता के लोग दूध, घी व वनस्पतियां वगैरह पकाने के लिए मिट्टी के बरतनों का इस्तेमाल किया करते थे. इसीलिए हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में खुदाई के दौरान मिले सभ्यता के अवशेषों में भी मिट्टी के बर्तन शामिल हैं. उसके परवर्ती इतिहास में कुम्हारों द्वारा माटी को रूंधकर अपना उपयोग सिद्ध करने, सभ्यता के उन्नयन में उल्लेखनीय भूमिका निभाने और जीवन निर्वाह के पुश्तैनी धंधे में बदल देने का लंबा सिलसिला दिखाई देता है.
आजकल हम युवा पीढ़ी का अपनी माटी से जुड़ाव घटते जाने को लेकर जो चिंताएं जताते हैं, उनका एक सिरा भी उन कुम्हारों और उनकी माटी तक जाता ही जाता है, जिन्हें शुरू में कुंंभ यानी घड़े बनाने के कारण कुंभकार, फिर भाषा-विकास के मुख-सुख सिद्धांत के तहत कुम्हार कहा गया और जो आगे चलकर एक ऐसे जातीय समुदाय में बदल गए, जो अपनी जीविका के लिए पूरी तरह इस कला पर ही निर्भर करता था.
कुंभकारों अथवा कुम्हारों और माटी का रिश्ता हमारे देश के दार्शनिकों व भक्त कवियों की भी गहरी दिलचस्पी का सबब रहता आया है और वे अपने लौकिक व दार्शनिक आख्यानों में उनका जमकर इस्तेमाल करते रहे हैं.
संत कबीर के ‘माटी कहे कुम्हार से’ वाले बहुचर्चित दोहे में तो माटी ने कुम्हार से मनुष्य के रूप में उसके मिट्टी के चोले के अंततः मिट्टी में ही मिल जाने की अनिवार्य परिणति के मद्देनजर निरभिमान रहने की जो सीख दी है, उसे कई दर्शनों के सार जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त है: माटी कहे कुम्हार से तू क्या रूंधे मोय. इक दिन ऐसा आएगा, मैं रूंधूंगी तोय.
मुगल बादशाह अकबर के समकालीन कवि रहीम तो कुम्हारों के चाक को भी लोकशिक्षण के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं: रहिमन चाक कुम्हार को, मांगे दिया न देय. छेद में डंडा डारि कै, चहै नांद लइ लेय. इसका अर्थ यह कि कुम्हार अपने चाक से कितनी भी मिनती करता व मांगता रहे कि भाई, मेरे लिए एक दीया तैयार कर दे, चाक उसकी एक नहीं सुनता. लेकिन चाक के छेद में डंडा डालकर उसे घुमा दे तो दीये से सैकड़ों गुनी विशाल नाद तक बनाकर दे देता है. कुम्हार, माटी और चाक के रिश्तों को लेकर पौराणिक कथाओं की भी कोई कमी नहीं है.
इतना ही नहीं, एक समय ऐसा भी था, जब दुर्गापूजा हो, दीपावली, छठ या ईद, कुम्हारों द्वारा माटी से बनाई गई वस्तुओं के बगैर कोई भी त्योहार नहीं मनाया जाता था. परिवारों में जन्म से लेकर मृत्यु तक हर्ष और विषाद के जितने भी महत्वपूर्ण पल आते थे, उनमें भी कुम्हारों की चीजों की बड़ी भूमिका होती थी. कभी वे दीयों, देवी-देवताओं की मूर्तियों और खिलौनों को बनाने में लगे रहते थे और कभी गुल्लकों, गमलों, कुल्हड़ों, प्यालों, तसलों, कमोरियों, खपड़ों और नादों वगैरह को बनाने में.
अफसोस कि इतने समृद्ध अतीत वाली कुम्हारी का वर्तमान दोहरे संकट कहें या दुर्दिन का शिकार है. एक तो प्लास्टिक व फाइबर वगैरह से बनी वस्तुओं ने हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में तेजी से जगह बनाकर कुम्हारों के उत्पादों के पैरों तले की जमीन तक छीन ली है, दूसरी ओर अब उनके काम लायक मिट्टी और आंवा धधकाने लायक ईंधन भी सुलभ नहीं रह गए हैं.
कोई छह साल पहले 2018 में केंद्रीय खादी व ग्रामोद्योग बोर्ड का ध्यान इस ओर गया तो उसने कुम्हार सशक्तीकरण योजना के तहत यह समझते हुए कि हर तरह की मिट्टी कुम्हारी के काम की नहीं होती, कुम्हारों के लिए उपयुक्त मिट्टी की व्यवस्था हेतु खनन के निशुल्क पट्टों की व्यवस्था तो शुरू की ही, उन्हें बेहतर तकनीकी शिक्षा व प्रशिक्षण और उन्नत चाक वगैरह दिलाकर उनके शिल्प को उन्नत करने, उत्पादों की क्वालिटी बेहतर बनाने और ‘मेक इन इंडिया’ के तहत उनकी मार्केटिंग में मदद करने की भी सोची. तब कई राज्यों में कुम्हारी से संबंधित व्यावसायिक गतिविधियों को प्रोत्साहन देने के जतन भी शुरू किए गए. साथ ही कुम्हारों को अपना कारोबार बढ़ाने के लिए बैंकों से ब्याजमुक्त कर्ज की भी व्यवस्था की गई.
फिर भी स्थिति में ऐसा बदलाव अभी दूर है, जिसे कुम्हारों के दुर्दिन के खात्मे का संकेत माना जा सके. इसलिए यह प्रश्न भी अपनी जगह बना हुआ है कि क्या माटी और कुम्हार कबीर के समय के ‘माटी कहे कुम्हार से’ वाले एकालाप से आगे बढ़कर अपने समय से बेहतर व सार्थक संवाद कर सकेंगे?
इसका उपयुक्त उत्तर इस प्रतिप्रश्न के उत्तर से ही निकल सकता है कि आप दीपावली के दीये जलाते वक्त माटी और कुम्हार को याद करते और उनके कृतज्ञ होते हैं या नहीं?
अंत में: बात गोपालदास नीरज की हिदायत से आरंभ हुई थी. समापन एक अन्य कवि राजेश जोशी के शब्दों से, जिनमें वे आपसे पानी पीते वक्त भी कुम्हारों का शुक्रिया अदा करने को कहते हैं:
पानी पियो तो शुक्रिया अदा करो कुम्हारों का/जिन्होंने बनाए पृथ्वी की तरह गोल मटके/और बहुत सुंदर सुराहियां जिनकी गरदनें/सुंदर स्त्रियों की तरह पतली और लम्बी हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)