यह साल 2025 की 30 जनवरी है. भारत के विभाजन के बाद लगी आग में दस लाख से अधिक लोगों की हत्या हुई थी, और उसके बाद गांधीजी की शहादत जिसे अब 77 साल बीत चुके हैं. पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र के रूप में अलग हो गया था. इन महीनों में गांधीजी ने अपने जीवन की सबसे पीड़ादायक लेकिन नैतिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी, जिसकी वजह से हमें अंधकार और तबाही के बीच से निकलने का रास्ता मिला. वे एक स्वतंत्र राष्ट्र के निर्माण के लिए आगे बढ़ रहे थे. उन्होंने यह लड़ाई यह सुनिश्चित करने के लिए लड़ी कि मुस्लिम भी इस देश के निवासी हैं और स्वतंत्र भारत में उनके पास भी समान अधिकार हैं.
राजधानी में रहने वाले शरणार्थियों में ग़ुस्सा और पीड़ा था, जिन्हें पाकिस्तान बनने के बाद उनके घरों से हमेशा के लिए निकाल दिया गया था. उन लोगों में मेरे परिवार के भी बहुत से सदस्य शामिल थे.
हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने दशकों तक ब्रिटिश औपनिवेशिक आक़ाओं के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि एक ऐसे भारत के लिए लड़ाई लड़ी थी, जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों को दूसरे दर्जे की नागरिकता दी जाएगी, उनके पास कोई अधिकार नहीं होंगे. 30 जनवरी 1948 की सर्दियों की शाम को जब गांधीजी अपनी दैनिक सर्वधर्म प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे, तो इसी विचारधारा में डूबा एक युवक आगे बढ़ा. उसने गांधीजी के पैर छुए, फिर सीधा खड़ा हुआ और महात्मा की छाती में गोलियां दाग़ दीं.
77 बाद, हम लोग महात्मी गांधी के शहादत दिवस पर मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर अंतर-सामुदायिक मार्च के लिए अजमेर में क्यों जमा हुए?
मुईनुद्दीन चिश्ती 13 वीं शताब्दी के सूफ़ी संत और दार्शनिक हैं, जिनकी दरगाह को अजमेर दरगाह शरीफ़ के नाम से जाना जाता है. इसके पीछे तीन कहानियां छिपी हैं. ये कहानियां कई शताब्दियों से चलती चली आ रही हैं. पहली कहानी तेरहवीं शताब्दी में मिट्टी से बने इस साधारण सूफ़ी दरगाह की स्थापना की महाकाव्यात्मक कहानी है जो सदियों से सभी धर्मों की एकता के उदाहरण के रूप में इसके अभूतपूर्व विकास से संबंधित है.
दूसरी कहानी गांधीजी के अंतिम और जीवन के सबसे महत्वपूर्ण उपवास की है, जो जनवरी 1948 में उनकी हत्या से बमुश्किल दो सप्ताह पहले शुरू हुआ था.
और तीसरी कहानी 21वीं सदी का दावा है, जिसे स्थानीय अदालत में स्वीकार किया गया कि अजमेर शरीफ़ दरगाह, सूफ़ी संत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का मक़बरा, पहले से मौजूद एक हिंदू (शिव) मंदिर के ऊपर बनाया गया था, जिसे ध्वस्त कर दिया गया था, और उस मंदिर को उसी स्थान पर बहाल किया जाना चाहिए.
§
पहली कहानी के लिए, हम इस समय से नौ शताब्दी पीछे चलते हैं वर्ष 1141 में, जब ईरान के सिजिस्तान में मोईनुद्दीन नाम के एक लड़के का जन्म हुआ. 14 साल की उम्र में अनाथ हो जाने के बाद एक भटकते हुए फ़क़ीर से उनकी मुलाक़ात हुई, जिन्होंने उन्हें अकेलेपन, मौत और विनाश से परे आध्यात्मिक खोज की ओर अग्रसर किया.
इतिहासकार मेहरू जाफ़र ने द बुक ऑफ़ मुईनुद्दीन चिश्ती में बताया है कि कैसे 20 साल की उम्र तक उन्होंने बुख़ारा और समरकंद के प्रतिष्ठित मदरसों में धर्मशास्त्र, व्याकरण, दर्शन, नैतिकता और धर्म का अध्ययन किया था. अपनी विस्तृत यात्राओं के दौरान उनकी मुलाक़ात ख़्वाजा उस्मान हारूनी से हुई, जो चिश्ती संप्रदाय के एक सूफ़ी गुरु थे, जिन्हें उन्होंने अपना गुरु और आध्यात्मिक शिक्षक बना लिया. हारूनी ने मोईनुद्दीन को चिश्ती सिलसिले (या सूफ़ी वंश) में शामिल किया. इसके बाद मोईनुद्दीन चिश्ती मुल्तान गए, जहां उन्होंने संस्कृत और हिंदू ग्रंथों का अध्ययन किया. उन्होंने लाहौर, दिल्ली की यात्रा की और 1191 में अजमेर में अपनी यात्रा समाप्त की. उस समय दिल्ली की गद्दी पर बादशाह सुल्तान इल्तुतमिश था.
अजमेर में ही मोईनुद्दीन की मुलाक़ात अपनी पत्नी बीबी उम्मतुल्लाह से हुई और उनके साथ उन्होंने एक साधारण मिट्टी का घर बनवाया. जाफ़र बताती हैं कि कैसे यह घर जल्द ही बेघर और भूखे लोगों के लिए, साथ ही सांत्वना और शांति की तलाश में बेचैन तथा पीड़ित आत्माओं के लिए सुकून की जगह बन गया. उनकी असाधारण उदारता और निस्वार्थ सेवा से जुड़ी कहानियां आम अवाम में प्रचलित हो गईं, जिससे उन्हें ग़रीब नवाज़ की उपाधि मिली, एक ऐसा सम्मान जो आज भी उनके साथ जुड़ा हुआ है.
उनकी ख्याति एक करिश्माई और दयालु आध्यात्मिक उपदेशक तथा शिक्षक के रूप में फैल गई, जिनके आध्यात्मिक प्रवचनों से आकर्षित होकर मुस्लिम और हिंदू दोनों धर्मों के लोग दूर-दूर से आने लगे. उन्होंने सभी धर्मों की एकता और ईश्वर के प्रति प्रेम का उपदेश दिया.

मार्च 1236 में उनके निधन के बाद मोईनुद्दीन को एक महान संत के रूप में व्यापक रूप से सम्मानित किया जाने लगा. सम्राट अकबर को इस दरगाह के प्रति विशेष आस्था थी. अपने शासनकाल के दौरान अकबर ने 14 बार यहां का दौरा किया. 1566 में, उसने अपनी हिंदू पत्नी मरीम-उज़-ज़मानी के साथ नंगे पांव इस दरगाह पर हाज़री लगाई ताकि उन्हें पुत्र की प्राप्ति हो सके. उसने मक़बरे के गर्भगृह का निर्माण करवाया. बाद के सम्राट जहांगीर और शाहजहां, रानी जहांआरा और उनके बाद आने वाले मुग़ल राजकुमारों तथा शासकों ने इस दरगाह का और विस्तार करवाया.
कुमार राव सिंधिया, जो मानते थे कि ख़्वाजा ने उन्हें एक पुत्र का आशीर्वाद दिया था, महारानी बैजा बाई सिंधिया, जोधपुर के महाराजा अजीत सिंह और बड़ौदा के महाराजा उन हिंदू शासकों में शामिल हैं जिन्होंने दरगाह परिसर में निर्माण कार्य करवाया.
अकबर को 1568 में दरगाह को दुनिया की सबसे बड़ी देग़ या कढ़ाई दान करने के लिए भी जाना जाता है, जिसका व्यास 6 मीटर है, जो सात धातुओं के मिश्रण से बने धातु से बना है, जिस देग़ का किनारा कभी गर्म नहीं होता है, भले ही अधिक मात्रा में लंगर के लिए भोजन पकाने के लिए देग़ को आग पर चढ़ाया जाता हो. आज भी कुछ नहीं बदला है.
अब 21वीं सदी में भी, यह दरगाह दक्षिण एशिया में सबसे लोकप्रिय तीर्थस्थलों में से एक है, जिसे भारत और दुनिया भर के हज़ारों श्रद्धालुओं – मुस्लिम, हिंदू, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध और जैन- द्वारा पूजा जाता है. प्रतिदिन कम-से-कम 20,000 उपासक प्रार्थना करते हैं, जिनमें से लगभग एक तिहाई मुस्लिम नहीं हैं. वहां प्रतिदिन लगभग सात टन गुलाब की पंखुड़ियां चढ़ाई जाती हैं, जिसे मुख्य रूप से पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर से लाया जाता है. वे पारंपरिक चादर चढ़ाते हैं, पारंपरिक लाल और केसरिया धागे बांधकर वरदान मांगते हैं, तथा लंगर में हिस्सा लेते हैं जो आज भी अकबर और उसके बेटे जहांगीर द्वारा दान की गई देग़ में पकाया जाता है.
यहीं पर 30 जनवरी, 2025 को हम लोगों का एक समूह अंतर-धार्मिक प्रार्थनाओं तथा हिंदू, ईसाई और सिख मंदिरों से मार्च के लिए इकट्ठा हुआ था, जिसका समापन प्रसिद्ध अजमेर दरगाह पर हुआ. अजमेर में इकट्ठा हुए हम लोगों में से कई लोग धार्मिक आस्था वाले लोग भी नहीं थे. मैं एक धर्मनिरपेक्ष संशयवादी हूं, दूसरों की धार्मिक आस्था का सम्मान करता हूं, मगर किसी भी विशिष्ट धार्मिक पहचान से ख़ुद को नहीं जोड़ पाता.
§
इस कहानी के दूसरे अध्याय की तरफ़ बढ़ने के लिए हमें ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ मोईनुद्दीन चिश्ती के निधन से आठ शताब्दी आगे बढ़ना होगा. यह जनवरी 1948 की घटना है जो नए स्वतंत्र भारत की राष्ट्रीय राजधानी में घटी. गांधीजी अपनी हत्या से एक पखवाड़े पहले अपना अंतिम उपवास शुरू करते हैं.
उस पल के बारे में सोचें. यह एक नाज़ुक लेकिन पूरी तरह से विभाजित स्वतंत्र भारत के शुरुआती अशांत दिन हैं. क्रूर हिंसा के कारण अपने वतन से उजड़े हुए हज़ारों शरणार्थियों से देश की राजधानी भरी हुई है. हालिया बनी सीमा के दोनों ओर क़त्लेआम जारी है, और अनगिनत महिलाओं का अपहरण तथा बलात्कार हुआ है. शरणार्थी अपने भविष्य को लेकर नाराज़, क्रोधित और उदास हैं. उनका ज़्यादातर ग़ुस्सा शहर के मुस्लिम निवासियों पर है, जिन्हें वे सीमा के दूसरी ओर अपने सह-धर्मियों पर हो रहे अपराधों के लिए अनुचित रूप से ज़िम्मेदार मानते हैं.
पूरे शहर में मुस्लिम लोगों के ख़िलाफ़ हिंसा हो रही है और उनकी संपत्तियों को नुक़सान पहुंचाया जा रहा है. शरणार्थी शिविर अब मुसलमानों से भर रहे हैं, जिन्हें लगता है कि उनके पास पाकिस्तान जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. गांधीजी, मौलाना आज़ाद और नेहरू अथक प्रयास करते हुए मुसलमानों से भारत में रहने की अपील करते हैं, एक ऐसा देश जिसके बारे में वे वादा करते हैं कि यह देश उनका भी उतना ही रहेगा जितना हिंदू बहुसंख्यकों का है.
इस सुलगते जन आक्रोश और हिंसा के बीच गांधीजी ने अपना अंतिम उपवास शुरू करने का फ़ैसला किया. इस बात के रिकॉर्ड मौजूद हैं कि नेहरू, पटेल और आज़ाद ने भी गांधीजी को इस उपवास के लिए आगाह किया था.
उन्होंने आग्रह किया, ‘जनता बहुत अधिक आक्रोशित है. यह ठीक समय नहीं है.’ गांधीजी का सौम्य लेकिन दृढ़ उत्तर था, ‘यही समय है.‘

आज की हमारी कहानी का संबंध गांधीजी के अपने अंतिम उपवास में की गई दूसरी मांग से है.
हिंदू महासभा और आरएसएस जैसे हिंदुत्व संगठनों द्वारा प्रेरित शरणार्थियों की प्रतिशोधात्मक हिंसा का एक केंद्रीय पहलू मुस्लिम मस्जिदों और दरगाहों, जैसे कनॉट प्लेस मस्जिद और ऐतिहासिक महरौली दरगाह में हिंदू मूर्तियां स्थापित करना था. गांधीजी की दूसरी मांग थी कि हम अपने मुस्लिम भाइयों और बहनों के लिए सभी मुस्लिम मस्जिदों को पूरे सम्मान के साथ बहाल करें. गांधीजी ने समझाया कि किसी भी आस्था से जुड़ा पूजा स्थल किसी दूसरे की आस्था का अपमान करके या हिंसा द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता.
इतिहासकार इरफ़ान हबीब उस समय 19 वर्ष के थे और एक प्रत्यक्षदर्शी के रूप में बताते हैं कि गांधीजी के इस अंतिम संघर्ष ने विभाजन के क़त्लेआम के दौरान उनके जैसे मुस्लिम पहचान वाले लोगों को कितनी सांत्वना और उम्मीद दी. उनके अनशन के पहले दिन, दस हज़ार लोगों ने उनकी मांगों के समर्थन में दिल्ली की सड़कों पर मार्च किया. पांचवें दिन, संख्या बढ़कर एक लाख हो गई. उनकी सभी मांगें मान ली गईं.
हमारे मुस्लिम बहनों और भाइयों को उनके पूजा स्थल वापस दे दिए गए, इस गारंटी के साथ कि वे स्वतंत्र भारत में अपने चुने हुए तरीक़ों से इबादत करने के लिए स्वतंत्र होंगे.
§
हमारी तीसरी कहानी हमें वर्तमान समय में ले आती है. 1991 में भारतीय संसद द्वारा पारित एक क़ानून ने गांधीजी के अंतिम अनशन के बाद की इस ऐतिहासिक गारंटी को मजबूत किया, इस क़ानून के माध्यम से इस बात का प्रावधान किया गया कि किसी भी पूजा स्थल की 1947 में जो स्थिति थी उसे बहाल किया जाएगा, जिसे क़ानूनी रूप से बदला नहीं जा सकता.
लेकिन भारत के एक मुख्य न्यायाधीश ने हैरान करने वाले तर्क के साथ कहा कि क़ानून इन संरचनाओं के धार्मिक चरित्र के बारे में सर्वेक्षण और अध्ययन करने पर रोक नहीं लगाता है, जो सदियों पहले से मौजूद हैं. हिंदुत्व संगठनों ने इस बात का दावा करना शुरू कर दिया कि देश भर में ऐतिहासिक मस्जिदों और दरगाहों के नीचे हिंदू मंदिर हैं. इससे देश के एक बार फिर से टुकड़े-टुकड़े होने की भयावह संभावनाएं पैदा हो गईं.
मस्जिदों के नीचे मंदिर होने के हिंदुत्ववादी ताक़तों के इन दावों के बीच एक दावा जिसने विशेष रूप से सार्वजनिक विवेक को हिला दिया, वह यह दावा था कि अजमेर में मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के नीचे पहले एक जैन मंदिर था और फिर एक शिव मंदिर.
दरगाह के ख़ादिम हाजी सैयद सलमान चिश्ती ने फ़ाइनेंशियल टाइम्स के लिए लिखे अपने एक पीड़ादायक लेख में कई भारतीयों की ओर से अपनी बात रखी.
उन्होंने लिखा, ‘अजमेर दरगाह शरीफ़, ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती का विश्राम स्थल, यह न केवल एक पवित्र स्थल है, बल्कि भारत की अंतरधार्मिक सद्भाव की समृद्ध परंपरा का प्रतीक है. सदियों से, (यह) … श्रद्धेय और पवित्र आध्यात्मिक केंद्र धर्म, जाति या पंथ के बावजूद सभी क्षेत्रों के लोगों को एक साथ लाता रहा है… हिंदू, सिख, ईसाई, जैन और भक्त, मुसलमानों तथा सभी धर्मों के लोगों के साथ, सदियों से आशीर्वाद और आध्यात्मिक शांति की तलाश में इस दरगाह पर आते रहे हैं.’
उन्होंने सही कहा, ‘अजमेर शरीफ़ हमेशा से भारत की बहुलवादी विरासत का प्रतीक रहा है. हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने मानवता के प्रति प्रेम, बहुलता और सेवा का संदेश दिया. उनकी शिक्षाओं ने विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों को एक साथ एकत्रित किया, जिससे अजमेर शरीफ़ आध्यात्मिक सांत्वना का केंद्र बन गया. ऐतिहासिक अभिलेख, पिछली आठ शताब्दियों के लेखन और लाखों श्रद्धालुओं की मौखिक परंपराएं अजमेर दरगाह शरीफ़ की चिश्ती सूफ़ी आध्यात्मिक नींव और इसकी एकीकृत भूमिका के पवित्र प्रमाण हैं.’
‘सेवा, विनम्रता और प्रेम के कार्यों के माध्यम से, सूफ़ी शिक्षाओं ने भारत के विविध समाज में सद्भाव को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. अजमेर दरगाह शरीफ़ इन सिद्धांतों का जीवंत उदाहरण है, जो शांति और आपसी सम्मान का पवित्र स्थल है.’
वे याद करते हैं, ‘हज़रत ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती ने अपना जीवन मानवता की सेवा और प्रेम के लिए लगा दिया, करुणा तथा एकता का संदेश फैलाने के लिए समर्पित कर दिया…आज की दुनिया में ये मूल्य पहले से कहीं ज़्यादा प्रासंगिक हैं, जहां विभाजनकारी ताक़तें व्यक्तिगत और राजनीतिक लाभ के लिए ऐतिहासिक ग़लतियों का फ़ायदा उठाना चाहती हैं…दरगाह शरीफ़ हमेशा से एक ऐसी जगह रही है जहां मतभेद मिट जाते हैं और मानवता के साझा लक्ष्यों को प्राथमिकता मिलती है.’
§
सितंबर 2017 में, जब नफ़रत से भरी लिंचिंग की भयावह घटना ने पूरे भारत को अपनी चपेट में ले लिया, तो हम लोगों ने कारवां-ए-मोहब्बत एक श्रृंखला शुरू करने का फ़ैसला किया, ताकि हम उन सभी परिवारों तक पहुंच सकें, जिन्होंने लिंचिंग और नफ़रत भरी हिंसा में अपने प्रियजनों को खो दिया था, और हम उनके साथ एकजुटता दिखाएं, प्रायश्चित करें तथा उनकी देखभाल की पेशकश करें.
हमारी पहली यात्रा देश के पूर्वी छोर, असम से शुरू हुई और एक महीने से अधिक समय में पश्चिम में अरब सागर के तटवर्ती शहर पोरबंदर पहुंची, जहां गांधीजी का जन्म हुआ था. हमें लगा कि यह उचित होगा कि अपनी यात्रा के दौरान कारवां अजमेर शरीफ़ दरगाह पर रुके. दरगाह के ख़ादिमों ने हमें ठीक उसी तरह सम्मानित किया जिस तरह से वे सरकार के प्रमुखों को सम्मान देते हैं, क्योंकि उन्होंने कहा कि प्रेम और सद्भाव का हमारा संदेश ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की शिक्षाओं के बहुत क़रीब है.
हमने सोचा कि एक बार फिर से दरगाह जाने का समय आ गया है.
मैंने अपनी प्रिय कॉमरेड कविता श्रीवास्तव से संपर्क किया, जो पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टीज़ की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. उन्होंने मुझे बताया कि तीन साल पहले अजमेर में गांधी महोत्सव समिति के बैनर तले लेखकों, पत्रकारों और शिक्षाविदों का एक शानदार समूह इकट्ठा हुआ था. युवाओं में बढ़ती धार्मिक नफ़रत से परेशान होकर उन्होंने स्कूलों और कॉलेजों में गांधीजी की शिक्षाओं को फैलाने का संकल्प लिया. मैं सहमत था कि वे हमारे सामूहिक सद्भाव की कोशिशों के लिए एकदम सही भागीदार होंगे.
और इस तरह, 30 जनवरी 2025 की सुबह मैं अजमेर में था. धूप नरम थी और हवा ठंडी. अजमेर के बाहर से आने वालों में अरुणा रॉय, कविता, निखिल डे, शंकर सिंह और पत्रकार मंदीप पुनिया शामिल थे. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दस निजी स्कूलों के 600 बच्चे, लॉ स्कूल के 25 प्रशिक्षु और 700 से अधिक अजमेर के नागरिक.

मार्च शुरू होने से पहले, विभिन्न धर्मों- हिंदू, ईसाई, मुस्लिम, सिख, बौद्ध और जैन – के पुजारियों और ननों द्वारा प्रार्थनाएं की गईं. गांधीजी को दो मिनट की मौन श्रद्धांजलि के बाद हमारा मार्च शुरू हुआ. हमारा पहला पड़ाव अजमेर गेट पर स्थित 1863 में स्थापित रॉबर्ट मेमोरियल चर्च में था. यहां फ़ादर आशीष जॉर्ज के नेतृत्व में पुजारियों और ननों के एक समूह ने मार्च करने वालों पर फूल बरसाए. इसके बाद गंज स्थित सिख गुरुद्वारा आया. पुजारियों और उपासकों ने फिर से हम पर फूल बरसाए. बटेश्वर महाराज के हिंदू मंदिरों और दिल्ली गेट स्थित शनि मंदिर के बाहर भी ऐसा ही हुआ.
इस चार किलोमीटर की यात्रा का सबसे उत्साहवर्धक हिस्सा वह आख़िरी पड़ाव था जब हम अजमेर शरीफ़ दरगाह के पास पहुंचे. यहां दोनों तरफ की दुकानों के बाहर आम नागरिक खड़े थे, जिनमें से प्रत्येक के पास फूलों की थैलियां थीं. उन्होंने हम पर फूल बरसाए. जिन दुकानों के बाहर वे खड़े थे, उनके नामों से मैं अनुमान लगा सकता था कि उनमें से अधिकांश हिंदू की दुकानें थीं.
अजमेर शरीफ़ दरगाह के प्रवेश द्वार पर औपचारिक परिधानों में सजे-धजे दरगाह के ख़ादिमों ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया. उन्होंने पुरुषों को पगड़ी बांधी और महिलाओं को शॉल भेंट की. फिर वे हमें गर्भगृह में ले गए. यहां, एक ख़ादिम ने मेरी दाहिनी कलाई पर पारंपरिक लाल और केसरिया धागा बांधा और मुझसे वरदान मांगने को कहा. मेरे संशयवादी हृदय ने विरोध नहीं किया. मैंने वैसा ही किया जैसा उसने कहा.
§
हफ़्तों बाद, जब मैं यह लेख लिख रहा हूं, लाल और केसरिया धागा अभी भी मेरी कलाई पर बंधा हुआ है. मैं कभी-कभी इसे देखता हूं और मेरे दिल में ऐसे विचार आते हैं जिन्हें मैं सामान्य समय में आने नहीं देता. मैं ख़ुद को यह कल्पना करने की अनुमति देता हूं कि ब्रह्मांड में कहीं ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ मोईनुद्दीन चिश्ती और महात्मा गांधी हमारी परेशान भूमि पर प्रेम और करुणा की निगाह से देख रहे होंगे, और उनके साथ गौतम बुद्ध, कबीर और नानक जैसे लोग होंगे. मुझे तब एक तरह की तसल्ली और एक आश्वासन महसूस होता है कि नफ़रत के ये दौर बीत जाएंगे, कि अजमेर शरीफ़ दरगाह के अंदर जो वरदान मैंने मांगा था, वह पूरा होगा.
मैंने जो मांगा था, वह यह था कि हम अंततः उस देश पर दावा करेंगे जिसका हमने ख़ुद से वादा किया था, एक ऐसा देश जिसकी दयालुता, समानता और न्यायप्रियता का वर्णन नहीं किया जा सकता.
मैं तस्वीरों के लिए मंदीप पुनिया, शोध सहायता के लिए सैयद रुबेल हैदर ज़ैदी और तस्वीरों को संपादित करने के लिए इमाद उल हसन का आभारी हूं.
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
(मूल अंग्रेज़ी से ज़फ़र इक़बाल द्वारा अनूदित. ज़फ़र भागलपुर में हैंडलूम बुनकरों की ‘कोलिका’ नामक संस्था से जुड़े हैं.)