सोशल मीडिया पोस्ट हटाने से पहले क्रिएटर से जवाब लेना ज़रूरी: सुप्रीम कोर्ट

जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2009 के संबंध में सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर इंडिया द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही है, जिसमें चिंता जताई गई है कि स्रोत की बिना जानकारी के सामग्री को गलत तरीके से सेंसर किया जा रहा है.

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(फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमंस)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (3 मार्च) को कहा कि सोशल मीडिया पोस्ट को उन व्यक्तियों की प्रतिक्रिया के बिना नहीं हटाया जाना चाहिए, जिन्होंने उन्हें प्रकाशित किया है और यदि स्रोत की पहचान नहीं की जा सके, तभी केवल मध्यस्थ (सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म) को हटाने का नोटिस दिया जा सकता है.

हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक, अदालत का यह एक शुरुआती दृष्टिकोण है, लेकिन यह उन व्यक्तियों को कुछ उम्मीद जरूर देता है, जो मानते हैं कि उनकी सामग्री को गलत तरीके से सेंसर किया जा रहा है.

मालूम हो कि जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2009 के संबंध में सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर इंडिया (एसएफएलसी) द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसका प्रतिनिधित्व वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने किया.

इस संबंध में अदालत ने कहा, ‘प्रथमदृष्टया, हमें लगता है कि नियम को इस तरह से पढ़ा जाना चाहिए कि जब भी कोई व्यक्ति पहचाना जा सके, तो उन्हें नोटिस दिया जाना चाहिए. हम इस पर विचार करेंगे.’

पीठ ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए तीन सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है.

शीर्ष अदालत का अवलोकन भारतीय कानून के तहत सामग्री मॉडरेशन ढांचे के संभावित पुनर्गणना का संकेत देता है, जिससे राज्य के हितों को अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकार के साथ संतुलित किया जा सके.

याचिका में सूचना प्रौद्योगिकी (सार्वजनिक रूप से सूचना तक पहुंच को अवरुद्ध करने की प्रक्रिया और सुरक्षा उपाय) नियम, 2009 के तहत प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की मांग की गई है. वकील पारस नाथ सिंह के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि मौजूदा व्यवस्था प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन नहीं करता है, क्योंकि सामग्री उसे बनाने वालों (क्रिएटर) को अक्सर उनके पोस्ट हटाए जाने से पहले सूचित नहीं किया जाता है.

इस संबंध में अधिवक्ता जयसिंह ने अदालत के समक्ष तर्क दिया कि मौजूदा तंत्र प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने में विफल रहता है, क्योंकि सूचना देने वाले को सूचित नहीं किया जाता है. उन्होंने बताया कि नोटिस केवल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे एक्स (पूर्व में ट्विटर) और अन्य मध्यस्थों को भेजे जाते हैं.

इंदिरा जयसिंह ने कहा कि चुनौती यह है कि सूचना देने वाले व्यक्ति के संबंध में प्राकृतिक न्याय के नियमों का पालन नहीं किया जाता है. उन्होंने 2009 के ब्लॉकिंग नियमों के नियम 8 का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि जानकारी ‘व्यक्ति या मध्यस्थ’ को दी जानी चाहिए.

हालांकि, उन्होंने तर्क दिया कि ‘या’ शब्द के उपयोग के कारण, अधिकारी अक्सर मूल सामग्री निर्माता को दरकिनार करते हुए केवल इन  प्लेटफार्मों को सूचित करते हैं.

इस पर पीठ ने सवाल किया कि इस तरह की कार्रवाई से सीधे तौर पर प्रभावित होने वाले किसी व्यक्ति के बजाय एक संगठन ने याचिका क्यों दायर की. कुछ प्रभावित व्यक्ति या पहचान योग्य व्यक्ति हमारे सामने आ सकते थे. यदि कोई व्यक्ति पहचाने जाने योग्य है, तो उस व्यक्ति को नोटिस दिया जाना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति पहचान योग्य नहीं है, तो मध्यस्थ को नोटिस दिया जाना चाहिए. इसे उस तरीके से पढ़ा जा सकता है.

इस पर जवाब देते हुए जयसिंह ने बताया कि नियम 16 ​​के तहत प्राप्त जानकारी या शिकायत के संबंध में सख्त गोपनीयता है, जिससे न्यायिक समीक्षा की कोई गुंजाइश खत्म हो जाती है.

उन्होंने कहा कि मिलाकर प्रभाव यह है कि अनुच्छेद 19(1) के तहत मेरे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध के बावजूद मुझे कोई नोटिस नहीं दिया गया है.

पीठ ने चिंताओं को स्वीकार करते हुए संकेत दिया कि नियम की व्याख्या इस तरह की जानी चाहिए जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि पहचाने जाने योग्य व्यक्तियों को उनकी सामग्री के खिलाफ कोई भी कार्रवाई करने से पहले नोटिस दिया जाए.

पीठ ने संगठन की याचिका की जांच करने पर सहमति जताते हुए कहा, ‘हम इस पर विचार करेंगे.’

अदालत ने इमरान प्रतापगढ़ी के मामले में गुजरात पुलिस को फटकार लगाई

वहीं, एक अन्य मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ दर्ज एक एफआईआर मामले में गुजरात पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि संविधान के बनने के 75 साल बाद भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पुलिस को समझना चाहिए.

ज्ञात हो कि इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ इस साल की शुरुआत में सोशल मीडिया पर ‘ऐ खून के प्यासे बात सुनो’ कविता वाली पोस्ट को लेकर एक मामला दर्ज किया था. धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने और विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए सिटी ए-डिवीजन पुलिस स्टेशन, जामनगर द्वारा उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई थी.

मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस अभय एस. ओका की अध्यक्षता वाली दो जजों की बेंच ने प्रतापगढ़ी की ओर से दायर याचिका पर फैसला सुरक्षित रख लिया. लेकिन अदालत ने मामले की सुनवाई के दौरान कुछ बेहद अहम टिप्पणियां की.

इमरान प्रतापगढ़ी ने 17 जनवरी, 2025 को गुजरात हाईकोर्ट के द्वारा दिए गए आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. इससे पहले हाईकोर्ट ने प्रतापगढ़ी के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने से इनकार कर दिया था.

मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस ओका ने कहा, ‘यह कविता अहिंसा की बात करती है. इसका धर्म से या किसी राष्ट्र-विरोधी गतिविधि से कोई लेना-देना नहीं है. पुलिस ने संवेदनशीलता की कमी दिखाई है.’

गुजरात सरकार की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि ऐसा हो सकता है कि लोगों ने इसका कुछ अलग मतलब समझा हो.

इस पर जस्टिस ओका ने कहा, ‘यही परेशानी है. अब कोई भी क्रिएटिविटी का सम्मान नहीं करता. अगर आप इसे ढंग से पढ़ें तो कविता कहती है कि अगर आपको अन्याय सहना पड़े, तो उसे प्रेम से सहें… जो खून के प्यासे हैं, वे हमारी बात सुनें. अगर न्याय के लिए लड़ते हुए आपको अन्याय का सामना करना पड़े, तो हम अन्याय का जवाब भी प्रेम से देंगे.’

जस्टिस ओका ने कहा कि पुलिस को इस मामले में संवेदनशीलता दिखानी चाहिए थी और कम से कम इसे पढ़कर समझना चाहिए.’