विश्व पुस्तक मेला अब महज़ किताबों की ख़रीद-बिक्री, लेखकों एवं पाठकों का मिलन स्थल ही नहीं रहा बल्कि धर्म के प्रचार का केंद्र भी बन गया है.
पिछले तीन-चार वर्षों से विश्व पुस्तक मेले में धार्मिकता का रंग गाढ़ा होता जा रहा है. कथित धार्मिक स्टॉलों की संख्या बढ़ती जा रही है. उनके स्टॉलों का स्पेस बढ़ रहा है. हाल में उनकी गतिविधियां बढ़ रही हैं. वे अब अपने स्टॉल तक सीमित नहीं रह गए हैं. स्टॉल के सामने गैलरी में उनका पूरा कब्जा होता है.
इतना ही नहीं अनेक बार तो हाल में फेरी, जुलूस और रैली सरीखा दृश्य उत्पन्न हो जाता है. इसकी बानगी पिछले साल भरपूर देखने को मिली थी जब वह बाकायदा हारमोनियम, शंख, मंजीरा आदि वाद्य यंत्रों के साथ जुलूस निकालते थे. भगवा टोली ने बाकायदा ‘एक देश-एक धर्म’, ‘अन्न जहां का हमने खाया…’ सरीखे नारों का जयघोष करते हुए रैली निकाली थी.
वैसे इन स्टॉलों पर लोगों को व्यक्तिगत खुशी, मोक्ष, सेवा का ज्ञान से लेकर धर्म के रास्ते ही सभी समस्याओं का निदान होगा, इसका भरपूर ‘ज्ञान’ दिया जाता है.
पिछले वर्षों की अपेक्षा इस बार धार्मिक स्टॉलों की सक्रियता कहीं ज्यादा है. हिन्दी किताबों वाले हाल नंबर 12 में घुसते ही आप सनातन संस्था के स्टॉल के सामने पहुंच जाते हैं. पिछले मेलों की अपेक्षा इस बार स्टॉल का स्पेस करीब चार गुना बढ़ गया है. उसकी कैच लाइन है, ‘सनातन के ग्रंथ: चैतन्य के भंडार.’
पुस्तक प्रेमी यहां से बिना ज्ञान लिए आगे बढ़ जाएं, ऐसा संभव नहीं है. यहां के गुरु अथवा शिष्य लोगों को घेर लेते हैं. ज्ञान देने लगते हैं कि भारत कैसे हिंदू राष्ट्र बन सकता है. ऐसे विचारों वाला साहित्य उनके स्टॉल पर 17 भाषाओं में मौजूद है, जो धड़ल्ले से बिक रहा है.
पुस्तक प्रेमी सनातन संस्था को इग्नोर कर दाएं गली से आगे बढ़ना चाहें तो वहां बलात्कार के आरोप में जेल की हवा खा रहे आसाराम के भक्त अपनी दुकान सजाए बैठे हैं. पास में दिव्य ज्योति जागृति संस्थान का बड़ा सा स्टॉल है, जहां शिष्य-शिष्याएं अपने ‘संतों’ का महिमा मंडन कर रहे हैं. साहित्य से लेकर आश्रम में बनने वाली अनेक तरह की सामग्री बेच रहे हैं.
आसाराम के शिष्य जहां उन्हें निर्दोष बता रहे हैं वहीं दिव्य ज्योति संस्थान की शिष्याएं आशुतोष महाराज (जिनकी काफी समय पहले मौत हो चुकी है) के आने की बात करती हैं. आगे बढ़ने पर एक स्टॉल पर पावन चिंतन आश्रम का बखान सुनने को मिलता है, लेकिन इस स्टॉल का नाम है-इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन इंडियन.
यह नाम देखकर एकबारगी लगेगा कि यह कोई गंभीर शोध को बढ़ावा देने वाली संस्था है. मगर ध्यान से देखने पर उसकी असलियत पता चलती है. ऐसा शायद इसलिए किया गया है कि लोग रिसर्च के नाम से पहले स्टॉल पर आएं फिर तो वहां मौजूद लोग अपने तरीके से उनको हैंडल कर ही लेंगे.
कुछ इसी तरह कंत दर्शन पब्लिशर्स स्टॉल पर गुरु महाराज घसीटा राम जी कंत का गान हो रहा है तो वाव पब्लिशर्स प्रा.लि. पर ईश्वर की नौकरी का नुस्खा बेचा जा रहा है. श्रीमद्विजय रत्नसुंदरसुरीश्वरजी के भक्तों ने उनके मुकाम को फोटो से दिखाया है, जहां अपने प्रधान सेवक की एक तस्वीर भी शोभायमान है जो शायद उनके किसी आयोजन में शरीक होने की है.
इस्लामिक इंफार्मेशन सेन्टर में इस्लाम से जुड़ी बातें बताई जा रही हैं तो अहमदिया मुस्लिम जमायत का अपना भव्य स्टॉल है. द गिडियोंस इंटरनेशनल इन इंडिया के स्टॉल पर ईसाई धर्म का प्रसार हो रहा है. जीवन कैसे जिया जाए का मंत्र भी मिल रहा है.
इन शिष्य-शिष्याओं का सबसे अधिक जोर इस बात पर होता है कि ज्यादा से ज्यादा लोगों से कैसे बात की जाए. उनको कैसे स्टॉल पर घेर कर लाया जाए. इसके लिए वे भाग-दौड़ करते दिखते हैं. पीछे पड़कर या कहिए दौड़ा-दौड़ा कर अपना साहित्य और परचा गले में मढ़ते हैं.
कहीं वह दस रुपये में दिया जाता है तो कहीं मुफ्त में बांटा जाता है. उनके स्टॉल पर गलती से नजर डालने या ठिठकने का मतलब है दिमाग का दही बनवाना. किसी ने भगवान को देखा है. किसी के गुरुजी भगवान का अवतार हैं. किसी ने उनसे सीधा साक्षात्कार किया है. यह बात अलग है कि इतना सब कर चुकने के बावजूद वह पुस्तक मेले में भटक रहे हैं.
मेले में इस बार सबसे चकित करने वाली बात यह है कि यहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) का बोलबाला है. उससे जुड़े 12 संस्थानों के प्रकाशन हिन्दी वाले हॉल की शोभा बढ़ा रहे हैं. उन्होंने एक बड़ा सा स्टॉल राष्ट्रीय साहित्य संगम (राष्ट्रीय साहित्य प्रकाशकों का सामूहिक उपक्रम) के नाम से लिया है, जिसके अंदर 12 स्टॉल बनाए गए हैं.
इनमें अर्चना प्रकाशन, सुरुचि प्रकाशन, जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र प्रकाशन, संस्कृति भारती (दिल्ली), लोकहित प्रकाशन (लखनऊ), आकाशवाणी प्रकाशन (जालंधर), ज्ञान गंगा प्रकाशन (जयपुर), कुरुक्षेत्र प्रकाशन (कोची), साहित्य साधना ट्रस्ट (अहमदाबाद), साहित्य निकेतन (हैदराबाद), भारतीय संस्कृति प्रचार समिति (कटक) और श्रीभारती प्रकाशन (नागपुर) शामिल हैं.
बाहर भारत माता की बड़ी तस्वीर के साथ संघ के संस्थापक डॉ. केशव राव बलीराम हेडगेवार व संघ के द्वितीय सरसंघ चालक माधव सदाशिव गोलवलकर के बड़े-बड़े कटआउट लगे हैं. इस कुनबे में काफी चहल-पहल देखने को मिल रही है.
दावा किया जा रहा है कि इनके पास हिन्दी समेत आठ भाषाओं के करीब डेढ़ हजार टाइटिल उपलब्ध हैं. छोटे बच्चों से लेकर बड़े और उम्रदराज पाठक तक इनका लक्ष्य हैं. इनके समूह में कांग्रेस पर केंद्रित एक किताब अंग्रेज भक्ति से राज सत्ता तक उपलब्ध है, जिसमें यह बताने का प्रयास किया गया है कि इसकी स्थापना एक अंग्रेज ने की थी सो पहले अंग्रेजों की राज भक्ति फिर सत्ता भक्ति ही उसका प्रमुख उद्देश्य रहा है.
इसी के साथ संपादकाचार्य गणेश शंकर विद्यार्थी पर केंद्रित किताब भी इनके खजाने में है. कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता आंदोलन में जिस शख्स ने सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ लड़ते हुए अपनी जान दे दी उसको भी आरएसएस हथियाने में लगा है.
संघ का खुद का इतिहास अंग्रेजों की चाटुकारिता और माफी का रहा है लेकिन वह अब कांग्रेस को अंग्रेजों की राज भक्ति वाला संगठन बता रहा है. यह महज एक बानगी है. उनके स्टॉलों पर इसी तरह के साहित्य की भरमार है. सोचिए, इस तरह का साहित्य पढ़कर आज की पीढ़ी का कैसा मानस बनेगा?
ऐसे हालात देखकर यह कहना उपयुक्त होगा कि विश्व पुस्तक मेला अब महज किताबों की खरीद-बिक्री, लेखकों एवं पाठकों का मिलन स्थल ही नहीं रहा बल्कि धर्म के प्रचार का केंद्र भी बन गया है. इसी के तहत अनेक बाबाओं, मौलवियों, पादरियों से लेकर धर्म और राष्ट्र के ठेकेदारों की दुकानें सजी हैं. वे स्टॉलों की महंगी कीमत चुका रहे हैं.
वैसे इन ठेकेदारों के पास अकूत पैसा है सो बड़े से बड़ा स्टॉल लेने में उन्हें किसी तरह की गुरेज नहीं है. उनके स्टॉल से कहीं मुफ्त में चालीसा बंट रहा है. कहीं गुटका बट रहा है. कहीं कुरान बंट रही है तो कोई नाम-पता-मोबाइल-मेल लिखा प्रोफार्मा बांट रहा है. उसे भरिए. मुफ्त सामग्री लीजिए. थोड़ा सा ज्ञान लेने के साथ आगे बढ़िए.
एक तरह से धर्म और नीति का प्रचार मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों और गिरजाघरों से निकल कर मुफ्त बाइबल, कुरान व गीता बेचने वालों की शक्ल में लोगों को अपनी ओर खींच रहा है. एकबारगी लगता है कि यही मुक्ति के नए सांस्कृतिक दूत हैं, लेकिन यह महज मन का भ्रम है.
इस तरह मेला घूमते-घूमते ऐसी तमाम ‘पवित्र’ कही जाने वाली सामग्री आपके झोले में जमा हो जाएगी कि आपका मन करेगा कि शौचालय जाने के बहाने किसी को पकड़ा दें और जान-बूझकर वहां से कन्नी काटकर निकल आएं. अपने गुरुओं के बड़े-बड़े कटआउट और तस्वीर लगाकर फूल माला से सजे इनके स्टॉल किताबों की दुकान कम तांत्रिकों के रहस्यमयी ठिकाने ज्यादा लगते हैं.
इन्हें देखकर लगता है कि लोग एक नए धार्मिक सांप्रदायिक पुनरुत्थान के दौर में पहुंच गए हैं. धार्मिक स्टॉलों पर हो रही हरकत को देखकर लगता है कि पुस्तक मेला एक तरह से फंसने और फंसाने का उपक्रम भी है.
पुस्तक प्रेमी चाहे जितना सजग होकर हिन्दी के हॉल में जाएं कि इन अमुक स्टॉलों के जाल में नहीं फंसना है. लेकिन बहेलिए के रूप में मौजूद ये स्टॉल वाले ऐसा जाल बिछाए हैं. कुछ इस तरह से दाना डाले हुए हैं कि उसमें लोगों को फंसना ही है. बाद में भले ही वे किसी तरह से निकलने में कामयाब हो जाएं.
हां, इनके जवाब में आंबेडकर व दलित साहित्य से जुड़े कुछ स्टॉल अपनी दमदार उपस्थिति अवश्य बनाए हुए हैं, लेकिन कभी मेले में राष्ट्रवादी, वामपंथी और प्रगतिशील प्रकाशकों की धूम रहती थी, जो अब या तो इतिहास का हिस्सा बन चुके हैं या कहीं कोने में दुबके नजर आते हैं.
जनचेतना को इस हाल में जगह नहीं मिली है तो पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस (पीपीएच), कामगार, गार्गी, समयांतर, साहित्य उपक्रम जैसे प्रकाशक कहीं कोने में सिमट गए हैं. इतिहास बोध तो इतिहास बन चुका है. हां, संवाद प्रकाशन इस बार अवश्य ठीक-ठाक उपस्थिति दर्ज करा रहा है.
सवाल उठता है कि पुस्तक मेला आयोजित करने वाली केंद्र सरकार की संस्था नेशनल बुक ट्रस्ट ने क्या किताबों की जगह धर्म के प्रचार-प्रसार का ठेका ले लिया है? क्या वह यह काम किसी ऊपरी आदेश के तहत कर रहा है?
वैसे जिस तरह धार्मिकता में रचे-पगे स्टॉल बढ़ते जा रहे हैं और उन्हें प्रमुख लोकेशन भी मिल रही है, वह इस बात की चुगली कर रही है कि ट्रस्ट अपने दिमाग से नहीं बल्कि किसी दूसरे ही इशारे पर काम कर रहा है. धर्म की बढ़ती चाशनी और समय में हुए बदलाव से बाहरी लेखकों का मेले के प्रति उत्साह कम होता जा रहा है.
मोदी सरकार बनने के बाद आयोजक संस्था ने फरवरी में लगने वाले मेले को न्यूनतम तापमान के बीच जनवरी के प्रथम पखवाड़े में शिफ्ट कर दिया. सरकारी व्यवस्था को किसी आयोजन या सेवा को बट्टा लगाना होता है और वह सीधे उसे बंद करने की स्थिति में नहीं होती तो पहले वह उसे दाएं-बाएं से प्रभावित करने का काम करती है. फिर जब लोग उससे कटने लगते हैं तो बहाना बनाकर उसे विदा कर देती है.
पुस्तक मेले के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है कि भयानक सर्दी के बीच आयोजित होने के कारण बाहर से आने वाले लेखक और पाठक कन्नी काटने लगे और रही-सही कसर प्रगति मैदान में चल रहे ‘विकास’ कार्यों के धूल और गुबार ने पूरी कर दी है, जहां हॉल के बाहर उठने-बैठने की गुंजाइश तक नहीं है.
इसके साथ ही रेलवे की लेटलतीफी और निरस्त होने वाली गाड़ियों ने भी असर डाला है. फिलहाल मोदी सरकार की प्राथमिकता में पुस्तक मेला से लेकर रेलवे तक कुछ भी नहीं है. यह केवल पुस्तक मेला अथवा संस्कृति का ही नहीं बल्कि सभी सार्वजनिक संस्थाओं के पतन का अभागा समय है. हर क्षेत्र में बौनों के उभरने का समय है सो वह पुस्तक मेले में भी उभर रहे हैं.
क्या हिन्दी वाले हॉल जैसा नजारा अंग्रेजी वाले हॉल नंबर 11 से लेकर सात तक का भी है तो उसका जवाब है नहीं. इसकी वजह यह है कि सरकार और सरकारी व्यवस्था को सबसे अधिक हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों और किताबों से चुनौती मिलती है. उसे पढ़ने और समझने वालों से असुविधा होती है.
यही वजह है कि वह हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं में लिखने-पढ़ने वालों से निपटने में लगी है. उसका स्वरूप बिगाड़ने में लगी है. उसे अंग्रेजी में लिखने-गुनने-बुनने वालों से कोई असुविधा नहीं होती. उसमें अधिकतर लोग देश-दुनिया और समाज के बारे में इस तरह से सोचते भी नहीं.
इसका उदाहरण पिछले चार साल में निशाना बनाए गए या बनाए जा रहे लेखकों और पत्रकारों से भी मिलता है. इसी कारण जहां अंग्रेजी वाले हाल में किसी तरह का व्यवधान नहीं डाला जाता वहीं हिन्दी समेत अन्य भाषाओं वाले हाल को धार्मिक चाशनी में डुबोकर उससे लेखकों और पाठकों को दूर करने का कुचक्र रचा जा रहा है.
इसी का परिणाम है कि मेले में हिन्दी और भारतीय भाषाओं के स्टॉल घटते जा रहे हैं वहीं अंग्रेजी के स्टॉलों की संख्या में उछाल आया है. पिछले साल मीडिया स्टडीज ग्रुप की ओर से किए गए मेले के सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आ चुकी है. जरूरत इस बात की है कि मेले में हिन्दी को बढ़ावा देने के साथ ही भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जाए. हिन्दी की बौद्धिकता का विस्तार का स्रोत अपनी भारतीय भाषाओं से ही होगा.
वैसे विश्व पुस्तक मेला और प्रगति मैदान का नजारा देखकर लगता है कि यह ज्यादा दिन नहीं चलेगा. अगर यही लोग सत्ता में काबिज रहे तो आने वाले कुछ सालों में शायद इस मेले का अंत (यह कभी न हो और मेरी बात झूठी साबित हो, ऐसी कामना करता हूं) हो जाएगा.
इसी चिंतातुर मन में सवाल उठता है कि धर्म की चाशनी से इतर क्या किताबों के लिए इतनी जगह नहीं छोड़ी जा सकती. क्या यह नहीं हो सकता कि हिन्दी के साथ धार्मिक स्टॉल न लगाए जाएं. उनको अलग हॉल देने में क्या दिक्कत है. लेखकों को मंच देने में भेदभाव न किया जाए.
जिस तरह 2015 के मेले में प्रख्यात कवि वीरेन डंगवाल और वरवर राव की सहभागिता वाले कविता पाठ के आयोजन को मंच ही नहीं दिया गया तो लेखकगण आधार प्रकाशन के स्टॉल के सामने ही जमीन पर जम गए. इस पर आयोजक संस्था के अफसरों ने आधार के मालिक को धमकाते हुए कहा था कि वहां जमे लेखकों को हटाइए, जिसे उसने मना कर दिया था.
वीरेन डंगवाल का यह आखिरी पुस्तक मेला था. उस समय वह कैंसर रोग से जूझ रहे थे. लेखकों के विशेष आग्रह पर वह बरेली से आए तो कविता पढ़ने से पहले आयोजकों के व्यवहार को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा था कि शायद यह मेरा आखिरी पुस्तक मेला है. वह इतनी तकलीफ से गुजर रहे थे कि पूरी कविता भी नहीं पढ़ पाए तो आधी कविता संचालक ने पूरी की थी.
ऐसे में आवश्यकता इस बात की है कि लेखकों को मंच मुहैया कराने में विचारधारा की छलनी न इस्तेमाल की जाए. यह न देखा जाए कि अमुक लेखक/पत्रकार जेल जा चुका है इसलिए मंच नहीं दिया जा सकता. राजनीति छोड़कर महज कुछ बातों पर ध्यान दिया जाए तो एक समृद्धशाली परंपरा कितनी जीवंत हो सकती है, क्या इसका अंदाजा सरकार अथवा आयोजक संस्था को नहीं है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)