संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार देश में दलित महिलाओं के लिए मृत्यु का जोखिम उचित साफ-सफाई, पानी की कमी और समुचित स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में बढ़ जाता है.
देश में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को हर जगह अधिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है, चाहे बात सामाजिक अधिकारों की हो या वेतन की, महिलाएं अधिकतर पुरुषों से पीछे ही नजर आती हैं. अब संयुक्त राष्ट्र (यूएन) की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव केवल लैंगिक नहीं है, बल्कि जाति और आर्थिक स्थिति पर भी आधारित है.
इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, ‘टर्निंग प्रॉमिसेस इन टू एक्शन- जेंडर इक्वॉलिटी इन द 2030’ एजेंडा नाम की इस रिपोर्ट के अनुसार एक सवर्ण महिला की तुलना में एक दलित महिला करीब 14.6 साल कम जीती है. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ दलित स्टडीज़ के 2013 के एक शोध का हवाला देते हुए इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जहां एक ऊंची जाति की महिला की औसत उम्र 54.1 साल है, वहीं एक दलित महिला औसतन 39.5 साल ही जीती है.
रिपोर्ट के अनुसार इसका कारण दलित महिलाओं को उचित साफ-सफाई न मिलना, पानी की कमी और समुचित स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव है.
रिपोर्ट यह भी कहती है कि दलित महिलाओं की मृत्यु की उम्र तब भी कम है, जब मृत्यु दर से जुड़े उनके अनुभव उच्च जातीय महिलाओं जैसे ही थे. ‘अगर सामाजिक स्थिति के भेद को भी देखा जाए, तब भी दलित और सवर्ण महिला की मृत्यु के बीच 5.48 साल का अंतर दिखता है.’
इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ दलित स्टडीज के शोधकर्ताओं ने पाया था कि अगर ऊंची जाति और दलित महिलाओं की साफ-सफाई और पीने के पानी जैसी सामाजिक दशाएं एक जैसी भी हैं, तब भी सवर्ण महिलाओं की तुलना में दलित महिलाओं के जीवन की संभावना में करीब 11 साल का अंतर दिखता है.
रिपोर्ट में कहा गया है, ‘समाज में पिछड़ने वालों में कई बार वो महिलाएं और लड़कियां होती हैं, जिन्हें लिंग या अन्य किसी तरह की असमानता के आधार पर नुकसान उठाना पड़ता है.’ रिपोर्ट के अनुसार जिसकी वजह से उन्हें न अच्छी शिक्षा मिल पाती है, न उचित काम और न ही पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं.
रिपोर्ट कहती है कि असमानता की बढ़ती खाई के लिए आर्थिक स्थिति और जगह/परिवेश जैसे पहलू भी जिम्मेदार हैं. उदाहरण के लिए किसी ग्रामीण घर की 20-24 साल की लड़की की शादी 18 साल की उम्र से पहले होने की संभावना शहर में रहने वाली की तुलना में 5 गुना होती है. शहरी परिवेश की महिला की तुलना में ग्रामीण महिला के कम उम्र में मां बनने, अपने पैसे का उपयोग न कर सकने या खर्च के बारे में जानकारी न होने की संभावनाएं भी कम ही रहती हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक महिला के गरीब होने की संभावना तब और बढ़ जाती है अगर उसके पास कोई जमीन नहीं है और वो अनुसूचित जाति से आती है. उसकी कम शिक्षा और सामाजिक वर्गीकरण में उसकी स्थिति भी यह तय करती है कि यदि वह कहीं वेतन पर काम करती है तो वहां भी उसे शोषण का सामना करना होगा.
यूएन द्वारा दो साल पहले अपनाए गए सतत विकास के इस एजेंडा में ‘लीव नो वन बिहाइंड’ का नारा दिया गया है, जिसकी प्राथमिकता समाज के सर्वाधिक वंचितों की जरूरतों को उठाना है.