आइडिया ऑफ इंडिया में पूर्वोत्तर भी शामिल, लेकिन इसे खुलकर नहीं अपनाया गया: संजय हज़ारिका

साक्षात्कार: पूर्वोत्तर राज्यों पर लिखी संजय हज़ारिका की नई किताब 'स्ट्रेंजर्स नो मोर' पिछली किताब ‘स्ट्रेंजर्स ऑफ द मिस्ट’ के करीब 25 साल बाद आई है. इस बीच इस क्षेत्र ने कई बदलाव देखे, लेकिन हज़ारिका का मानना है कि यहां के मूल मुद्दे अब भी वही हैं, जो तब थे.

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साक्षात्कार: पूर्वोत्तर राज्यों पर लिखी संजय हज़ारिका की नई किताब ‘स्ट्रेंजर्स नो मोर’ पिछली किताब ‘स्ट्रेंजर्स ऑफ द मिस्ट’ के करीब 25 साल बाद आई है. इस बीच इस क्षेत्र ने कई बदलाव देखे, लेकिन हज़ारिका का मानना है कि यहां के मूल मुद्दे अब भी वही हैं, जो तब थे.

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संजय हज़ारिका (फोटो साभार: ट्विटर)

पूर्वोत्तर भारत पर बहुत कम किताबें लिखी गई हैं, अच्छी तरह से शोध कर के लिखी गई किताबें तो और भी गिनी-चुनी हैं. दो दशक पहले पत्रकार और लेखक संजय हज़ारिका ने यह कमी ‘स्ट्रेंजर्स ऑफ द मिस्ट’ लिखकर एक हद तक पूरी की थी.

अब वे अपनी नई किताब ‘स्ट्रेंजर्स नो मोर’ के साथ एक बार फिर से सामने आए हैं. हज़ारिका की किताब पूर्वोत्तर के आठ राज्यों की तफ्सील से बात करती है. इसमें वे वहां की अलग पहचान, अलग मुद्दे और उनकी चुनौतियों के साथ-साथ पूर्वोत्तर के रूप में एक इकाई के तौर पर वहां के बारे में बताते हैं.

इसके अलावा पूर्वोत्तर भारत को चारों ओर से घेरे हुए पड़ोसी बांग्लादेश, म्यांमार और भूटान पर भी उनकी नज़र है. उनका मकसद इस क्षेत्र में लंबे समय से चले आ रहे टकराव और यहां के परेशानियों को एक व्यापक फलक में देखने की है.

द वायर  को दिए इंटरव्यू में हज़ारिका ने बताया कि पिछले ढाई दशक में हालांकि मुद्दे वहीं बने हुए हैं लेकिन अब इसका फोकस दूसरी ओर हो गया है. उनसे हुई इस बातचीत के संपादिक अंश:

पच्चीस साल पहले स्ट्रेंजर्स ऑफ द मिस्ट और अब स्ट्रेंजर्स नो मोर, क्या इसे पिछली किताब की अगली कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए?

स्ट्रेंजर्स नो मोर एक नई किताब है. हालांकि आप इसकी तुलना पिछली किताब से कर सकते हैं लेकिन यह बिल्कुल एक अलग किताब है. मैंने इस किताब का यह शीर्षक इसलिए दिया है क्योंकि पहली वाली किताब की कुछ प्रतिध्वनि इसमें भी मौजूद है.

पिछले 25 सालों में दुनिया बहुत बदल गई है- कई मायनों में यह ख़राब हुई है, लोगों ने इसे ख़राब बना दिया है. लेकिन इसके ख़िलाफ़ एक मज़बूत लड़ाई भी जारी है. मैंने इस किताब में आठों राज्यों के बारे में लिखा है.

पिछली किताब में मैं यह नहीं कर सका था क्योंकि उस वक्त मुझे इतनी जानकारी नहीं थी. इस किताब में मैंने अपनी रुचि के अलग-अलग विषयों पर विस्तार से बात की है. मसलन सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश में मैंने बांधों, पर्यावरण और इससे पैदा होने वाले संघर्ष को दिखाया है.

किताब की भूमिका काफी लंबी हो गई है क्योंकि इसमें इस क्षेत्र की समस्याओं के बारे में विस्तार से बताया गया है. अरुणाचल प्रदेश में पर्यावरण की समस्या के अलावा मैंने बॉर्डर के मसले को भी देखने की कोशिश की है. इसमें मैंने तवांग का एक नया पहलू जोड़ा है और इसे भारत के साथ लाने में नगा फौज़ी अधिकारी बॉब खटिंग की भूमिका के बारे में बताया है.

मैंने नगा शांति समझौते की प्रक्रिया में निभाई भूमिका और 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के पहली बार नगालैंड आने पर उनके लिए लिखे गए दो भाषणों की भी चर्चा इसमें की है.

इसके अलावा लेबर पार्टी के नेता क्लेमेंट एटली जब साइमन कमीशन के हिस्सा थे, तब नगाओं ने उनसे याचिका की थी कि उन्हें सीधे ब्रिटिश हुकूमत के अंदर ही रखा जाए. नगाओं ने वाकई में 1947 में आज़ादी की घोषणा के बाद कभी भारत का झंडा नहीं फहराया और न ही उन्होंने कभी दिल्ली की हुकूमत को कोई टेलीग्राम ही भेजा जैसा कि आमतौर पर माना जाता है.

लेकिन करीब 12 टेलीग्राम भेजे जाने से रोके गए थे. इन सब बातों का जिक्र आपको मेरी इस किताब में मिलेगा.

इसके अलावा मैंने रानी गाइदिन्ल्यू की भी चर्चा की है जिन्होंने ईसाइयत को नहीं मानते हुए एक हेराका आस्था पर यकीन करते हुए एक संप्रदाय की शुरुआत की थी. हेराका को हिंदू धर्म और मूर्ति पूजा के साथ जोड़ा जाता रहा है. पंडित नेहरू ने उन्हें रानी का दर्जा दिया था.

मैंने बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार जैसे पड़ोसी देशों को लेकर भी अपनी इस किताब में चर्चा की है और यह भी बताया है कि कैसे केंद्र सरकार से शांति वार्ता का विरोध करने वाले उल्फा (स्वतंत्र) प्रमुख परेश बरुआ का अब भी पलड़ा भारी है.

इस किताब में आप 25 साल बाद के पूर्वोत्तर की बात कर रहे हैं, तब से अब तक क्या बदलाव पाते हैं?

हालांकि मुख्य मसले वही बने हुए हैं लेकिन फोकस अब दूसरे मुद्दों की ओर हो गया है. नगालैंड, मणिपुर और असम में भी 25 साल पहले उग्रवाद अपने चरम पर था. लेकिन अब ऐसा नहीं रहा. मणिपुर में संघर्ष पहले जैसा उग्र नहीं रहा है. अगर आज आप देखेंगे तो पाएंगे कि जिन क्षेत्रों में संघर्ष हुआ करता था वहां या तो वो खत्म हो गया है या फिर अब उतना कट्टर नहीं रहा.

मसलन नगालैंड को ही देखिए. सारी आंखें इस ओर टिकी हुई है कि बीते मार्च में हुए विधानसभा चुनाव के बाद वहां क्या होने जा रहा है. क्या नेफियू रियो के लिए ये परीक्षा की घड़ी है? क्या एनएससीएन (इसाक-मुइवा) और भारत सरकार 2015 में हुए ऐतिहासिक गुप्त नगा समझौते को इसकी तीसरी सालगिरह तक कारगर तरीके से ज़मीन पर उतार पाएगी?

अब फोकस राज्य सरकार और हथियारबंद विद्रोहियों के बीच संघर्ष को न लेकर पड़ोसी राज्यों के बीच हो गया है. खासतौर पर असम में, जहां अब सांप्रदायिकता अपने संगठित स्वरूप में चरम पर है हालांकि पहले भी यहां सांप्रदायिकता थी लेकिन दबे हुए स्वरूप में थी, अब ये संगठित स्वरूप से सामने आ रही है. इसीलिए मैं कह रहा हूं कि मूल मुद्दे अब दूसरी ओर भटक रहे हैं.

नगा और भारत के बीच कभी द्विपक्षीय मुद्दे थे, अब वो भारत के अंदरूनी मामले बन चुके हैं. यह एक बहुत बड़ा फर्क है. मैं इसलिए यह कह रहा हूं क्योंकि मुझे नहीं लगता कि अब वे भारतीय गणराज्य से बाहर की कोई भी मांग उठा रहे हैं.

एक बात है जो अब तक नहीं बदली है, वो है इस क्षेत्र में अप्रवासी और ‘हर ओर मौजूद बांग्लादेशियों’ को लेकर संदेह और चिंता क्योंकि इसे लेकर कई तरह के अर्थ निकाले जाते हैं. लोग फर्क नहीं कर पाते हैं कि एक बांग्लादेशी वो है जो बांग्लादेश बनने के बाद वहां से आया है.

आप किसी के प्रति इसलिए भेदभाव नहीं कर सकते कि वह बांग्ला मूल का मुसलमान है. अगर विस्तृत तौर पर देखें तो इस तथ्य को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है कि ऐसे भी लोग हैं जो भारतीय हैं और बांग्ला मूल के मुसलमान हैं. हर कोई बाहर से नहीं आया हुआ है.

तो फिर ये जो दिन-रात अवैध रूप से बांग्लादेश से आने वाले लोगों की संख्या के आंकड़े दिए जा रहे हैं, ये बिना किसी शोध के कहां से आ रहे हैं? मुझे नहीं लगता कि हम इस पर तार्किकता और गहराई से विचार कर रहे हैं.

हम इसे सिर्फ भावनात्मक नजरिए से देख रहे हैं और इससे प्रभावित हो रहे हैं. आख़िर में हमारी भावनाएं , हमारे नेता और हमारी व्यवस्था ही हमें नीचे गिराते हैं और हम वहीं पहुंच जाते हैं, जहां से शुरू हुए थे.

असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) अपडेट से क्या गैर-असमियों की संख्या में कोई गिरावट होगी?

मुझे लगता है कि एनआरसी प्रक्रिया में झोल है. इसे मेरे द्वारा सुप्रीम कोर्ट की अवमानना कहा जा सकता है लेकिन सच तो यह है कि बहुत सारे लोगों के नाम एनआरसी के पहले मसौदे में मौजूद नहीं है जो 31 दिसंबर 2017 को जारी हुआ था. इसमें पुराने और चर्चित असमिया राधा गोविंदा बरुआ के पोते-पोतियों के नाम गायब है.

संभवत: असमिया मूल के लाखों लोग, जब शिलांग असम का हिस्सा था, तब वहां बस गए हों. तो इन्हें असम के मूल बाशिंदों के तौर पर नहीं देखा जाएगा. पहले ड्राफ्ट में मेरा नाम भी नहीं है फिर भी मैं एक असमिया हूं. मेरे जैसे लोगों के पास अपने वंशावली से जुड़े फॉर्म भरने का समय नहीं है इसलिए मैं एनआरसी के आंकड़े से बाहर हूं.

मुझे लगता है कि एनआरसी अपडेट से जुड़ा महत्वपूर्ण सवाल बिना किसी राज्य का होना है, जो किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है, न ही भारतीय संविधान और क़ानून के अंतर्गत और न ही किसी भी अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति में. यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां भी इसे लेकर चिंतित है.

Kamrup: People show their acknowledgement receipts after checking their names in a draft for National Register of Citizens (NRC), in Guwahati on Monday. PTI Photo (PTI1_1_2018_000101B)
गुवाहाटी में एनआरसी का पहला ड्राफ्ट आने के बाद इसमें अपना नाम दिखाते स्थानीय लोग (फोटो: पीटीआई)

लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि बांग्लादेश में अभी विपक्ष में मौजूद बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के लिए आगामी चुनाव में यह मुद्दा हो सकता है, जहां भारत की दोस्त सत्तारूढ़ पार्टी अवामी लीग की शेख हसीना की फिर से सत्ता में आने की कोशिश रहेगी. हिंदुओं, बौद्ध और जैन को नागरिकता देते हुए मुसलमानों को सताने का खेल पूरी दुनिया में चल सकता है.

मेरा कहना है, जो मैंने किताब में भी कहा है और ऐसे भी हर कहीं कहता हूं कि ज़मीन पर अवैध कब्जे का मामला अवैध तरीके से किए गए प्रवासन के मुद्दे से अलग है. ज़मीनों पर अवैध कब्जा किए हुए लोग जरूरी नहीं कि अवैध प्रवासी हों.

ऐसे भी अवैध तरीके से रह रहे अप्रवासी उतने भी नहीं है जितना इसका प्रचार किया जा रहा है. और उतने तो निश्चित तौर पर नहीं हैं जितना असम के पूर्व राज्यपाल सीके सिन्हा ने 1998 में राष्ट्रपति को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा था. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में चालीस लाख का आंकड़ा दिखाया था.

एक जगह तो सीके सिन्हा ने अपनी रिपोर्ट में त्रिपुरा में रह रहे अवैध प्रवासियों की आबादी अस्सी लाख बताई थी, जो तब की त्रिपुरा के आबादी से भी ज़्यादा थी. तो मैं जो कहना चाह रहा हूं वो ये है कि निहित स्वार्थों की वजह नफरत और गलत जानकारियां से फैलाई जा रही हैं.

पूर्वोत्तर में भाजपा की नई शुरुआत हुई है. वे पूर्वोत्तर में आर्थिक उत्थान को प्राथमिकता देने के लिए निजी कंपनियों के मार्फत वहां बिजनेस मॉडल तैयार करने की बात कर रहे हैं. इसकी एक झलक एडवांटेज असम और मणिपुर में हुए नॉर्थ ईस्ट डेवलपमेंट समिट में देखने को मिल चुका है. क्या सोचते हैं कि इससे पूर्वोत्तर को कोई फायदा हो सकता है?

अब तक देखा गया है कि इस तरह के बिजनेस मॉडल में उन्हें काम दिया जाता है जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से आपके करीब होते हैं. आप बाहर से निवेश ला रहे हैं लेकिन इससे स्थानीय क्षमता कैसे विकसित हो रही है? उदाहरण के तौर पर आप देख सकते हैं कि असम में हमेशा से इंडस्ट्रियल पार्क रहे हैं लेकिन वो कभी भी अच्छा नहीं कर पाए.

कई साल पहले वरिष्ठ पत्रकार बीजी वर्गीज ने एक प्रस्ताव दिया था, जिसका मैंने पूरी तरह से विरोध किया था. यह प्रस्ताव पूर्वोत्तर के राज्यों के बीच के विवादित क्षेत्रों को लेकर था. उनकी सलाह थी कि विवादित क्षेत्रों को मिलाकर एक संयुक्त आर्थिक क्षेत्र विकसित किया जाए जिसमें उद्योग धंधे लगाए जाए और इससे दोनों पक्षों को फायदा हो.

अब जब मैं उनके प्रस्ताव के बारे में सोचता हूं तो पाता हूं कि वे एक समझदार आदमी थे और कुछ मामलों में अपने समय से बहुत आगे थे. अगर आप उस विवादित क्षेत्र का व्यापक उद्देश्य के साथ राजनीतिक और आर्थिक मकसद के लिए इस्तेमाल करते है तो इससे आपसी संबंध मधुर हो सकते है. आखिर में इससे उत्पन्न रोजगार से राज्यों को फायदा होगा और उनके बीच संबंध बेहतर होंगे.

मैं वन्य क्षेत्रों में ऐसा करने को नहीं कह रहा हूं बल्कि उन मैदानी इलाकों में करने को कह रहा हूं, जहां राज्यों के बीच विवाद है. पहले एक साझेदारी विकसित करने की जरूरत है फिर एक योजना, जिससे दोनों राज्यों को फायदा हो. अगर ये फायदा बराबरी का नहीं भी हो तो भी संतोषजनक जरूर हो. इसमें मैन्युफैक्चरिंग कार्यकर्मों से लेकर हॉर्टिकल्चर को भी शामिल किया जा सकता है. इस सभी को एक्ट ईस्ट पॉलिसी से जोड़ा जा सकता है.

जहां तक इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का सवाल है, ये लड़खड़ाई हुई है, केवल इसलिए नहीं है कि अलग-अलग राज्यों की वजह से उनके अलग-अलग मुद्दे हैं जिन पर अलग-अलग ध्यान देने की जरूरत है बल्कि इसलिए कि बहुत ही विषम आर्थिक और पर्यावरणीय माहौल में समान आर्थिक दृष्टिकोण अपनाना एक बहुत मुश्किल है.

लेकिन अगर आप इन चीजों पर ध्यान नहीं देते हैं तो आप सिर्फ ऐसे प्रोजेक्टों से उन लोगों को फायदा पहुंचाएंगे जो आपके करीबी हैं. अगर आपके पास कोई बिजनेस मॉडल है तो इसका राजनीतिक और आर्थिक अर्थ होना चाहिए, साथ ही इससे स्थानीय लोगों को लाभ होना चाहिए.

पूर्वोत्तर के बाहर से लाने वाली बात ने कभी भी इस क्षेत्र में काम नहीं किया है. अगर आप कुछ कंपनियों के रिकॉर्ड देखे तो उनकी परियोजनाओं के ख़िलाफ़ बहुत मजबूत विरोध हुआ है क्योंकि वे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले रहे हैं.

वैसे भी अब तक पूर्वोत्तर के संसाधनों का लगातार दोहन किया गया है. इस दोहन को तीन भागों में बांट कर देखा गया है पहला पर्यावरण, दूसरा आर्थिक और तीसरा मानव संसाधनों का.

अब पूर्वोत्तर के लोगों ने मौजूदा व्यवस्था की ओर से मुंह मोड़ लिया है और पूर्वोत्तर के इतिहास में पहली बार यह देखा जा रहा है कि यह क्षेत्र बड़े पैमाने पर होने वाले पलायन का केंद्र बन चुका है. केवल बड़े मेट्रो शहरों में ही नहीं बल्कि तमाम छोटे शहरों में भी यहां के प्रवासी देखे जा सकते हैं.

वे भले ही वहां किसी ऊंचे पद पर काम नहीं कर रहे हैं, उसमें से तो कुछ मजदूरी का काम भी कर रहे हैं लेकिन वे फिर भी बाहर आ रहे हैं क्योंकि वे जहां के हैं, वहां अपना कोई भविष्य ही नहीं दिखता. इससे वहां के हालात के बारे में पता चलता है जो कि बहुत अच्छे नहीं है.

इस पलायन को क्षेत्र के लोगों, खासकर युवाओं की मुख्यधारा के भारत से घुलने-मिलने की इच्छा के रूप में देखा जाता है.

मेरा मानना है कि यह संबंध अब भी सिर्फ एक जुड़ाव के स्तर पर है न कि पूर्वोत्तर के लोगों ने इसे खुलकर अपनाया है. मैं कुछ समय पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के तीन कॉलेजों में मनाये गये नॉर्थ ईस्ट डे के कार्यक्रम में शरीक हुआ था. मैंने वहां अपने संबोधन में कहा था कि हर दिन नॉर्थ ईस्ट डे की तरह मनाइए. आप अपने परंपरागत कपड़े एक दिन के लिए पहने हैं, इसे हर दिन पहनिए. लोगों को देखने दीजिए कि आप उनसे अलग हैं लेकिन व्यापक भारत के हिस्सा है.

लेकिन उस आइडिया ऑफ इंडिया को अभी तक खुलकर नहीं अपनाया गया है. यह अभी भी सिर्फ एक जुड़ाव के स्तर पर है. युवाओं के लिए भी ऐसा ही है.

मार्च में हुए मेघालय और नगालैंड के चुनावों में भी भाजपा जीत नहीं सकी. भाजपा पहली बार नेशनल डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) के साथ मिलकर 12 सीट लाने में किसी तरह से कामयाब हो पाई है.

चुनौती तो अब नगा समझौते के मामले में है. क्या तीन अगस्त को ये उसे ज़मीन पर उतार पाएंगे? रियो के ऊपर इसे पूरा करने के लिए भाजपा का दबाव है. अगर वो ऐसा नहीं कर पाएंगे तो फिर वो नगा पीपुल्स पार्टी की तरफ चले जाएंगे जो कि अकेली सबसे बड़ी पार्टी है अभी. इसकी संभावना से आप इनकार नहीं कर सकते.

केंद्र सरकार पूर्वोत्तर को आर्थिक रूप से मज़बूत बनाने के लिए इसे एक्ट ईस्ट पॉलिसी के तहत दक्षिण पूर्व एशिया से जोड़ने की भी बात कर रही है.

लुक/एक्ट ईस्ट पॉलिसी को लेकर ज़मीनी काम के बजाय रिसर्च और बातें ज़्यादा हो रही हैं. लेकिन अच्छा है. हमारे पास 20 सालों का रिसर्च, सेमिनार और वार्ताएं हैं. लेकिन यह विचार अच्छा है. अपने आस-पास के लोगों से जुड़ना चाहिए. इस क्षेत्र का हर व्यक्ति दक्षिण एशिया से जुड़ना चाहता है. हो सकता है कि 20 साल बाद आप गुवाहाटी से कार में बैठे और ड्राइव करते हुए हो ची मिन्ह शहर पहुंच जाए. लेकिन फिलहाल ये संभव नहीं है.

समस्या यह है कि भारत सरकार जो सार्वजनिक बयानबाजी करती है उसे ज़मीन पर उतारती नहीं है. सबसे पहले तो आपको अपने सिस्टम में इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत बनाना होगा. जब बीते 4 सालों में आप दीमापुर और कोहिमा के बीच सड़क तक नहीं बनवा सकते तो इन बातों का क्या मतलब है?

मेरा मानना है कि किसी भी आर्थिक योजना, वो भी अंतरराष्ट्रीय, को साकार करने के लिए आपके पास पर्याप्त रणनीति होनी चाहिए. पहले आपको अपनी सीमा के अंदर के मसलों से निपटना होगा.

पूर्वोत्तर परिषद ने सड़कों के लिए बजट रखा है लेकिन ये सिर्फ मरम्मत और उनके रखरखाव के लिए है. आप इससे नई सड़क नहीं बना सकते हैं. अगर आप अपने घर में ये नहीं कर पा रहे हैं तो फिर अपनी सीमा से बाहर कैसे करेंगे?

दूसरी चीज़ जिस पर हमारा ध्यान नहीं है वो है नदियों से जुड़े मुद्दे. आवाजाही महत्वपूर्ण है लेकिन ये नदी के दूसरे मुद्दों की क़ीमत पर नहीं हो सकते. प्रधानमंत्री कार्यालय ने पहले ब्रह्मपुत्र नदी से गाद निकालने पर रिसर्च के लिए 100 करोड़ रुपये का बजट तय किया, यह अच्छा फैसला है. सीधे 2 हज़ार करोड़ रुपये खर्च करके कोई नतीजा निकले, यह उससे बेहतर है.

अगर आप नदियों से गाद निकालते हैं तो उसमें रहने वाले जीव-जंतुओं पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ने का खतरा रहता है. ब्रह्मपुत्र नदी में डॉल्फिन पाई जाती है. आखिरी डॉल्फिन दस साल पहले यांग्ज़ी नदी में अत्यधिक आवाजाही की वजह से मर गई थी.

हम इस ग्रह पर अकेले नहीं है. इसलिए हमें चीजों को एक छोटे परिप्रेक्ष्य से लेकर व्यापक परिप्रेक्ष्य तक में देखने की जरूरत है. ऐसे में अगर हम नदियों से गाद निकाल रहे हैं, तो इसे टुकड़ों में करें और ध्यान रखें कि ऐसा करने का वैज्ञानिक आधार है कि नहीं.

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संजय का कहना है कि ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों को लेकर संकुचित रवैया ही क्षेत्र की परेशानियों की वजह है. (फोटो: संगीता बरुआ पिशारोती/द वायर)

ब्रह्मपुत्र की बात आई है तो बता दें कि चीन 27 बांध बना रहा है, जिससे अरुणाचल और असम प्रभावित होंगे.

हां, बिल्कुल पड़ेगा. इनमें से 11 बांध यारलंग सांगपो पर कैस्केड बांधों को जोड़ रहे हैं. वो बांध ब्रह्मपुत्र में आने वाले पानी की मात्रा को कम नहीं करेंगे बल्कि पानी की क्वालिटी बदल देगा. इसके बाद हाइड्रोपावर टरबाइन में एक बालू का कण भी नहीं जाएगा. तो हमारे पास 11 ऐसे बांध होंगे जिससे साफ पानी मिलेगा और यह बिना बालू और रसायन वाला साफ पानी अरुणाचल और असम को मिलेगा. इससे यहां के मछलियों और डॉल्फिन को पोषण मिलेगा.

कोई इसकी तो बात नहीं कर रहा. हम उन मुद्दों पर बात ही नहीं कर रहे हैं, जिनसे हमारा जीवन प्रभावित होने वाला है. हम सिर्फ ये बात कर रहे हैं कि हमें कितना पानी मिलेगा. कुछ कह रहे हैं कि कुल पानी का सिर्फ 10 फ़ीसदी मिलेगा लेकिन अरबों क्यूसेक पानी का 10 फ़ीसदी भी बहुत होता है.

दूसरा पहलू एक यह है कि ये सभी नदियां बहकर बांग्लादेश पहुंचती हैं. ये बहाव के निचले हिस्से में रहने वाले लोगों को प्रभावित करेगा. लेकिन अगर इससे प्रभावित होने वाले लोग, जो कि मूल रूप से कृषि पर ही निर्भर हैं, ऊपर आने लगे, तो यह लाखों लोग होंगे. आप पलायन रोकने के लिए पूरे ब्रह्मपुत्र की घेराबंदी नहीं कर सकते हैं. अभी पलायन (भारत की ओर) हो रहा है लेकिन उस पैमाने पर नहीं हो रहा है. इसलिए हम किसी मुद्दे को सिर्फ इस नजरिए से नहीं देख सकते हैं कि यह अभी हमें कितना प्रभावित कर रहे हैं.

बांग्लादेश की भारत से मुख्य मांग पानी की ही है. हर साल बांग्लादेश के अंदर करीब दो करोड़ लोग नौकरी की तलाश में एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं. अगर ऐसे में जलवायु परिवर्तन होगा तो इससे एक से दो करोड़ लोग प्रभावित होंगे. तब उनके बांग्लादेश में रुकने की कोई वजह नहीं होगी. हमारे भी करीब 20 फ़ीसदी तटीय क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से प्रभावित होंगे. ये एक-दूसरे से जुड़ा हुआ मामला है. आर्थिक परियोजना बनाने के समय हमें इन सब बातों का ख्याल रखना होगा.

पलायन के मुद्दे की तरह भेदभाव और एनआरसी की गड़बड़ी के कारण हो सकने वाली आंतरिक हिंसा का व्यापक असर पड़ेगा. यह असर न केवल हम पर बल्कि एक देश के तौर पर भारत भी पड़ेगा जो विविधता और संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक समानता में यकीन करता है.

जब तक आप हमेशा व्यापक परिप्रेक्ष्य में नहीं सोचेंगे, तब तक हमेशा लोगों पर इसका गलत प्रभाव होगा. और ये लोग इससे नाराज़ होंगे और इससे उन्हें यहां से निकलने का अवसर मिल जाएगा. करीब 25 साल पहले पूर्वोत्तर में हथियारबंद आंदोलन का समय था. अब यहां दूसरे तरह के आंदोलन हैं.

बोडो क्षेत्रीय परिषद को देखिए. गैर बोडो यहां विरोध में क्यों खड़े हैं? ऐसे हालात कहीं नहीं हो सकते, जहां 70 फ़ीसदी आबादी को सत्ता और फंड्स से दूर रखा जाए. क्या देश में कहीं भी इसे बर्दाश्त किया जाएगा? छठी अनुसूची में शामिल क्षेत्र बहुत हद तक खुद को माइग्रेशन की समस्या से बचाकर रखने में कामयाब हुए हैं लेकिन पांचवी अनुसूची में शामिल क्षेत्र ऐसा नहीं कर पाए हैं.

अगर आज असम या पूर्वोत्तर के क्षेत्र में कोई माओवादी आंदोलन नहीं है तो इसकी कोई गारंटी नहीं है कि ज़मीन के मुद्दे को लेकर आगे किसी अन्य तरह का कोई आंदोलन नहीं होगा. क्यों? क्योंकि लोग अधिकारविहीन हैं और इसके लिए सरकार जिम्मेदार है.

हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार बांग्लादेश के साथ कई लंबित मसलों को सुलझाने में सफल रही है.

मोदी एक्ट ईस्ट पॉलिसी को लेकर अवसर भांपना जानते हैं. वे इससे निपटने में सक्षम हैं लेकिन इसमें दूसरे लोगों की भी भूमिका है और यही समस्या है. मुझे लगता है कि भाजपा की इस देश से जुड़ी प्राथमिकताओं के बावजूद वे बांग्लादेश के साथ एक आदर्श रिश्ता कायम करने में सक्षम रहे हैं.

बांग्लादेश अकेला ऐसा देश है इस क्षेत्र में, जो हमारा सबसे करीबी दोस्त है. मोदी ने देखा कि भारत को सुरक्षा के मुद्दों पर बांग्लादेश के साथ जुड़ना जरूरी है, उसे यह एहसास करवाना कि हम उनके साथ हैं, उन्हें आर्थिक मदद देना और राज्यों के स्तर पर बांग्लादेश के बारे में भाजपा की सोच से इसे अलग रखना.

बांग्लादेश के साथ सीमा विवाद सुलझाना बड़ी उपलब्धि है. मुझे लगता है कि उन्हें एनआरसी और अप्रवासियों के मुद्दे पर कदम उठाना होगा.

लेकिन वे म्यांमार के साथ ऐसा करने में सक्षम नहीं होंगे क्योंकि वहां अर्द्ध-सैन्य शासन व्यवस्था है. भारत बांग्लादेश के उलट म्यांमार के विद्रोहियों से निपटने में सक्षम नहीं है. भारत ने कोशिश की भी थी लेकिन बर्मा के लोगों को ये पसंद नहीं आया.

केंद्र सरकार सालों से आधे दर्जन से ज़्यादा हथियारबंद समूहों के साथ शांति वार्ता में लगी हुई है लेकिन कोई समझौता अब तक सामने नहीं आया.

पहली बात जो सरकार इस मामले में अपने बचाव में कहेगी, वो है कि सभी गुटों से बात हो रही है. वे सब सिस्टम के साथ है. वे जंगलों में वापस नहीं जा सकते. सरकार उन्हें भत्ता दे रही है. अब वो इसमें इजाफे की मांग कर रहे हैं, इसलिए किसी ड्रग एडिक्ट की तरह वो पूरी तरह से अब सरकार पर निर्भर हैं.

दूसरी बात, जहां तक उनके विद्रोह की बात है तो विद्रोही गुटों में कुछ ऐसे हैं जो पैसा वसूलने वाले बन गए हैं और उन पर नेतृत्व का कोई नियंत्रण नहीं है. इससे उनके केंद्र के दांव-पेंच का शिकार होने का खतरा और बढ़ जाता है.

जहां तक अलग-अलग समूहों के साथ समझौतों की बात है तो मुझे नहीं लगता कि यह सरकार की प्राथमिकता में है क्योंकि उन्हें पता है कि वे अब 10-15 साल पहले की तरह आक्रमक नहीं रह गए हैं. अब सरकार जानती है कि उनके कैंप कहां है. सरकार जब चाहेगी उन्हें वहां से उठा सकती है. हेब्रॉन (नगालैंड में एनएससीएन का मुख्यालय) वहां है और सब को पता है कि वहां कौन रहता है. यह कोई छुपी हुई बात नहीं है.

इसलिए समझौते का एक पक्ष तो अब धीरे-धीरे कमजोर हो चुका है. लोग अब कुछ समूहों के खिलाफ और कुछ मुद्दों पर बोलने लगे हैं. वे बहस करते हैं कि ये लोग राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा क्यों नहीं बन रहे, और ये सभी मज़बूत आवाजें हैं.

दस साल पहले लोग बोलने से डरते थे. वो डर अब चला गया है जो कि अच्छा है. लोग जुड़ रहे हैं. मुझे लगता है कि केंद्र सरकार नगाओं के साथ समझौता कर भी पायेगी, बहुत कुछ इस पर भी निर्भर करता है. सभी दूसरे गुट भी इस पर नज़र रखे हुए हैं. एनआरसी को लेकर भी यही बात है. पड़ोस में भी इसका बड़ा असर पड़ेगा न सिर्फ पड़ोसी राज्यों पर बल्कि बांग्लादेश पर भी.

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2015 में नगा समझौते के समय नगा नेताओं के साथ प्रधनमंत्री मोदी (फाइल फोटो: पीटीआई)

नगा समझौता में कुछ ज़्यादा ही समय नहीं लग रहा?

नगाओं को लेकर बड़ा सवाल यह है कि अगर 21 सालों की बातचीत के बाद भी आप उन्हें अलग पहचान देने में सक्षम नहीं हैं तो फिर आप उन्हें क्या देंगे? समझौते के लेकर बनाए गये फ्रेमवर्क में दिए तीन बिंदुओं से कोई नुकसान नहीं है. उनके वाकई में कोई मायने नहीं है.

पहला मुद्दा तो यह है कि भारतीय फौज नगा कैडरों की भर्ती नहीं करना चाहती क्योंकि नगा आर्मी की ट्रेनिंग पद्धति अलग है, एक अलग आईडिया है जो भारतीय फौज की नीतियों से मेल नहीं खाता. इससे पहले सेमा नगाओं को सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के बाटालियन में शामिल किया गया था, लेकिन सेना में उन्हें जगह नहीं मिली थी.

या फिर ये समझौता उत्तरी आयरलैंड में हुए गुड फ्राइडे एग्रीमेंट (1998) की तरह होगा जिसमें हथियारों को न सिर्फ समर्पण करवाया गया बल्कि उसे पूरी तरह से खत्म कर दिया गया? उत्तरी आयरलैंड में हथियारों को अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों की मौजूदगी में नष्ट किया गया था, लेकिन भारत किसी अंतरराष्ट्रीय निरीक्षक को अपने यहां तो नहीं ही अनुमति देगा.

1986 में जब मिज़ो नेशनल फ्रंट ने लड़ाई छोड़ने का ऐलान किया था तब उन्होंने अपने हथियार सरेंडर किए थे. हालांकि उन्होंने कोई बहुत अच्छा समझौता नहीं किया था; इसे अब तक पूरी तरह लागू किया जाना बाकी है. तो इस बात की क्या गारंटी है कि नगाओं के साथ किए समझौते को पूरा किया जाएगा?

यह देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है, इसलिए यह मुद्दा सिर्फ नगालैंड ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्यों के लिए भी महत्वपूर्ण होगा. मसलन ज़मीन के मुद्दे से कैसे निपटेंगे जिस पर पूरी समस्या टिकी रहेगी. सभी राज्यों की विधानसाभाओं ने यह प्रस्ताव पास कर दिया है कि वे नगाओं को ज़मीन नहीं देंगे. अगर आप नगाओं को ज़मीन नहीं देते हैं या फिर दूसरे से ज़मीन लेते है तो आप इसे कैसे सही ठहराएंगे?

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