चीनी उद्योग को मिले 8,500 करोड़ रुपये के पैकेज से किसानों को ​क्या कोई फायदा होगा?

इतिहास यही रहा है कि सरकारें जब भी चीनी उद्योग के लिए राहत पैकेज जारी करती हैं तो उसमें किसानों के हित गौण हो जाते हैं और लाभ मिलों को पहुंचता है.

(फाइल फोटो: रॉयटर्स)

इतिहास यही रहा है कि सरकारें जब भी चीनी उद्योग के लिए राहत पैकेज जारी करती हैं तो उसमें किसानों के हित गौण हो जाते हैं और लाभ मिलों को पहुंचता है.

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(फोटो: रॉयटर्स)

केंद्र सरकार ने चीनी उद्योग के लिए 8,500 करोड़ रुपये का राहत पैकेज मंजूर कर दिया है. इसके तहत गन्ना मिलों को एथनाल उत्पादन क्षमता बढ़ाने के लिए 4,500 करोड़ रुपये के सस्ते कर्ज की सुविधा मिलेगी वहीं चीनी का 30 लाख टन का बफर स्टॉक बनाने की योजना भी परवान चढ़ेगी, जिस पर 1,200 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे.

बताया जा रहा है कि बफर स्टॉक बनने से चीनी उत्पादन में भारी वृद्धि की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी और चीनी मिलें गन्ने का बकाया भुगतान करने की बेहतर स्थिति में होंगी.

केंद्र की मोदी सरकार इस पैकेज को ऐतिहासिक बता रही है, जो असल में 8,500 करोड़ रुपये का नहीं बल्कि 7,000 करोड़ रुपये का ही है. उसने इस पैकेज में पिछले महीने की दो तारीख को गन्ना किसानों को प्रति टन 55 रुपये (5.5 रुपये प्रति कुंटल) की आर्थिक सहायता देने के लिए जो 1,540 करोड़ रुपये मंजूर किए थे, वह भी इस पैकेज में शामिल कर लिए हैं.

सरकार ने यह फैसला प्रमुख गन्ना उत्पादक राज्य कर्नाटक के विधानसभा चुनाव से महज दस दिन पहले लिया था. हालांकि गन्ना किसानों के लिए यह रकम फौरी राहत से ज्यादा कुछ नहीं है.

यह सच है कि देश का चीनी उद्योग इस समय संकट से गुजर रहा है. इस गन्ना सीजन (अक्टूबर-सितम्बर) के अंतिम दिनों में मिल से निकलते समय चीनी का मूल्य 25 से 26 रुपये प्रति किलो चल रहा था. यह मूल्य चीनी की उत्पादन लागत से नीचे का है. चीनी की आपूर्ति बढ़ने से उसका बाजार भाव गिर गया, जिससे मिलों को घाटा होना स्वाभाविक है. ऐसे में मोदी सरकार मिलों की चिंता करते हुए घरेलू बाजार में चीनी की घटती कीमतें रोकने के लिए चीनी के आयात पर दोगुना शुल्क कर उसे 100 फीसदी कर दिया है.

वहीं निर्यात पर शुल्क पूरी तरह समाप्त कर दिया है. सरकार ने मिलों को नकदी प्रवाह बढ़ाने के लिए 20 लाख टन चीनी का निर्यात करने की छूट दी थी, लेकिन मिलें इस पर अमल करने में असफल रही हैं. इसकी वजह अंतरराष्ट्रीय बाजार में चीनी की कीमतों का गिरना है.

सरकार के स्तर पर बात की जाए तो जब समस्या विकराल रूप ले लेती है तब वह कहीं नींद से जागती है. देश में चीनी का पर्याप्त कोटा होने के बावजूद उसने मिल मालिकों को अप्रैल 2017 में पांच लाख टन कच्ची चीनी शून्य सीमा शुल्क पर आयात करने की छूट दे दी, जबकि सीमा शुल्क 40 फीसदी था.

साथ ही पांच सितंबर को 25 फीसदी सीमा शुल्क पर आयात करने की अनुमति दे दी, जबकि इस बार सीमा शुल्क 50 फीसदी था. उस समय इंडियन मिल्स एसोसिएशन की अध्यक्ष सरिता रेड्डी ने कहा था कि देश में 35 लाख टन चीनी का पर्याप्त भंडार है.

अक्टूबर महीने के त्योहारी सीजन में कुल खपत 25 लाख टन चीनी की है. ऐसे में जरूरत के लायक चीनी हमारे पास मौजूद है. अक्टूबर में जब गन्ने की पेराई शुरू हो जाती है तो चीनी का आयात क्यों किया जा रहा है? इस तरह मिल मालिकों को पांच लाख टन कच्ची चीनी पर से 40 फीसदी आयात शुल्क को शून्य करने से 636 करोड़ रुपये और तीन लाख टन कच्ची चीनी से आयात शुल्क में 25 फीसदी छूट देने पर 238.5 करोड़ रुपये की शुद्ध बचत हो गई.

A trader eats a sugarcane as he waits for customers at a sugarcane wholesale market in Kolkata, June 6, 2018. REUTERS/Rupak De Chowdhuri
(फोटो: रॉयटर्स)

जाहिर सी बात है कि इससे मिल मालिकों का मुनाफा बढ़ा, लेकिन गन्ना किसानों की हालत खराब पर खराब होती रही. रही सही कसर पाकिस्तान से चीनी के आयात ने पूरी कर दी. असल में सरकार की नीति जनता के फायदे के लिए नहीं होती. सरकार जिस समुदाय के साथ खड़ी होती है उसी के फायदे के लिए काम करती है.

मौजूदा सरकार एक तरह से किसानों के खिलाफ और मिल मालिकों यानी पूंजीपतियों के पाले में खड़ी है तो जाहिर सी बात है कि उन्हीं के फायदे के लिए काम कर रही है.

द इंडियन एक्सप्रेस की 24 मई 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार मिलों पर 2017 और 18 सीजन का 23,000 करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है. गत उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में 14 दिन में गन्ना खरीदने के बाद भुगतान कराने की बात कही थी तो 2014 के लोकसभा चुनाव के दरमियान प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी महाराष्ट्र से लेकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक की सभाओं में 14 दिन में भुगतान करने के साथ ही किसानों को 500 रुपये कुंटल गन्ना मूल्य दिलाने की बात करते थे, लेकिन पांच सौ तो दूर मौजूदा समय के रेट के हिसाब से भी किसानों को सालों भुगतान नहीं मिल रहा है.

अगर नियम कानून की बात की जाए तो गन्ना अधिनियम में भी 14 दिन में भुगतान की बात कही गई है, लेकिन किसानों को लेकर लगभग सभी सरकारों की नीयत एक जैसी रही है. यही वजह है कि वह इसे लागू नहीं कराती हैं. इतना ही नहीं समय-समय पर किसानों के पक्ष में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय की ओर से दिए गए आदेशों की अवहेलना करने में भी संकोच नहीं करती.

पिछले दिनों कैराना लोकसभा उपचुनाव में गन्ना भुगतान का मसला खूब उछला. बकाया भुगतान की मांग को लेकर बागपत जिले की बड़ौत तहसील में किसान धरने पर बैठे, जिसमें एक किसान उदयवीर की मौत हो गई. उपचुनाव में इस घटना पर खूब तीर चले. ये किसान 21 मई से धरना दे रहे थे. मांग थी कि उनकी बकाया राशि का तुरंत भुगतान किया जाए और बेतहाशा बढ़ाई गईं बिजली की दरें कम की जाएं.

पिछले दिनों इसी जिले के एक युवा किसान ने चीनी मिल पर तीन लाख रुपये बकाया होने और पैसा न मिलने के चलते आत्महत्या कर ली थी. बाद में अधिकारी उक्त युवक का बकाया पैसा जब लेकर गए तो उसके भाई ने यह कहते हुए मना कर दिया कि क्या जो मरेगा उसी का भुगतान होगा? हमें नहीं चाहिए पैसे. हमें सिर्फ हमारा भाई चाहिए.

कैराना सहित पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए गन्ना हमेशा बड़ा मसला रहा है. एक समय था जब महेंद्र सिंह टिकैत की पूरी राजनीति इसी गन्ने की फसल के आसपास घूमती थी. अपने मजबूत दमखम वाली राजनीति के जरिए वह अनेक सरकारों को किसानों के पक्ष में मांगें मनवाने को मजबूर कर देते थे, लेकिन उनके अनुपस्थित होने के बाद से वह कद किसी किसान नेता का नहीं रहा.

सरकारों से लेकर मिल प्रबंधन तक कह रहे हैं कि गन्ने का जरूरत से अधिक उत्पादन हुआ है, जिससे चालू सत्र में देश में चीनी का उत्पादन 32.1 मिलियन टन को पार कर गया है, जो पिछले साल की अपेक्षा काफी अधिक है. यही वजह है कि पिछले छह और सात महीने में चीनी के दामों में करीब दस रुपये किलो तक की गिरावट आई है.

गन्ने के उत्पादन की जहां तक बात है तो 2015 और 16 के सत्र में मिलों ने 645.66 लाख टन गन्ने की पेराई की थी. 2016-17 के सत्र में 827.16 लाख टन की पेराई की तो इस बार 1,100 लाख टन से अधिक की पेराई की है.

एकबारगी इस सत्र में मान लिया जाए कि गन्ने का आवश्यकता से अधिक उत्पादन हुआ है. चीनी सस्ती हो गई है. इसलिए मिलें किसानों का भुगतान नहीं कर पा रही है. उनकी इन दलील से प्रश्न उठता है कि क्या मिलें पिछले साल तक किसानों को समय से भुगतान कर देती थीं तो जवाब है नहीं.

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(फोटो: रॉयटर्स)

दरअसल मिल मालिकों का किसानों को बकाया भुगतान करने में हमेशा लापरवाही भरा रवैया रहा है. किसान बकाया भुगतान पाने के लिए सालों इंतजार करते हैं. आंदोलन करने को मजबूर होते हैं. अनेक बार आत्महत्या तक कर लेते हैं. सरकारें भी जब चीनी उद्योग के लिए राहत पैकेज जारी करती हैं तो उसमें किसानों के हित गौण हो जाते हैं यानी लाभ मिलों को पहुंचता है.

इस वक्त गन्ना मिलों पर किसानों का 23,000 करोड़ रुपये से अधिक का बकाया है. यह रकम केंद्र सरकार की ओर से जारी किए गए राहत पैकेज से तीन गुना से थोड़ी कम बैठती है. इसमें उत्तर प्रदेश की मिलों पर बकाया 12,000 करोड़ रुपये शामिल है. ऐसे में प्रश्न इस बात का है कि इतनी बड़ी रकम गन्ना मिलें किसानों को कैसे और कब देंगी?

दरअसल मिलों पर बकाया की कहानी महज इस साल की नहीं है. वह सालों से किसानों से गन्ना लेती रही हैं. गन्ना कितने कुंटल लिया. कितना करदा कटा. कितना भुगतान बना. इसके लेखा और जोखा के रूप में लाल और पीली और नीली और सफेद परची देती रही हैं, लेकिन किसान को एक साल तक खून और पसीना एक कर तैयार की गई गन्ने की फसल का मूल्य कब मिलेगा, इसका उसे पता नहीं रहता.

चिंताजनक बात यह है कि किसी भी सरकार ने इस मसले के स्थायी समाधान के लिए कदम नहीं उठाया कि जिससे मिलों को बकाया के बोझ से मुक्ति मिले और किसानों को समय से अपनी उपज का मूल्य मिल सके.

मिलों और गन्ना किसानों की समस्या समझने के लिए यहां एक मिल की पड़ताल करते हैं. यह मिल उत्तर प्रदेश के जनपद लखीमपुर और खीरी मुख्यालय से 35 किमी दूर बहराइच रोड पर खमरिया कस्बे में स्थित है. वैसे प्रदेश के इस जिले को चीनी का कटोरा कहा जाता है, जहां 9 गन्ना मिलें हैं तो बड़े पैमाने पर क्रेशर उद्योग काम कर रहे हैं.

इस मिल का नाम गोविंद शुगर मिल्स लिमिटेड ऐरा है. केके बिड़ला ग्रुप से हस्तांतरित होकर कुछ समय पहले यह एडवेंट्ज ग्रुप का हिस्सा बन चुकी है. बिड़ला की एक बेटी ज्योत्सना पोद्दार इसी परिवार का हिस्सा हैं. इस ग्रुप का मुख्य काम फर्टिलाइजर और केमिकल का रहा है. एक तरह से इसके लिए चीनी उद्योग का अनुभव नया था सो मिल संचालित करने के शुरुआती कामकाज में उसे कुछ दिक्कतें भी पेश आई होंगी.

इसके बावजूद प्रबंधन ने मिल का विस्तार करते हुए पॉवर प्लांट और रिफाइनरी स्थापित किया. डिस्टलरी प्रोजेक्ट पर भी काम चल रहा है. बताया जाता है कि मिल के नए पॉवर प्लांट प्रोजेक्ट के लिए जितने गन्ने की आवश्यकता थी वह मिल से जुड़े करीब 70 हजार किसानों के पास नहीं था. ऐसे में प्रबंधन ने इस सत्र में बाहरी क्षेत्र से बड़े पैमाने पर गन्ना खरीदा.

स्थानीय लोगों ने मिल प्रबंधन पर आरोप लगाया कि इस अवैध खरीद से जहां मिल अधिकारियों और दलालों ने चांदी काटी वहीं मिल से जुड़े किसानों को इसकी भरपायी करनी पड़ी. मिल ने पिछले सत्र में 93 लाख कुंटल गन्ने की पेराई की थी वहीं इस बार 152 लाख कुंटल की पेराई की. इस 60 लाख कुंटल अधिक गन्ने की खरीद पर करीब दो अरब रुपये नगद लगाए गए. अगर मिल पुरानी क्षमता के अनुसार पेराई करती तो दो अरब रुपया किसानों को मिल जाता, जिससे उनका बकाया काफी कुछ निपट जाता.

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उप्र के लखीमपुर खीरी जिले के खमरिया कस्बे में स्थित गोविंद शुगर मिल (फोटो: रमेश मिश्र)
स्थानीय लोगों का यह भी आरोप था कि यहां बड़ी समस्या यह रही कि मिल प्रबंधन ने अपने किसानों पर फोकस नहीं किया. वह पहले बाहर वाले गन्ने को ही पेरने में लगा रहा. इसके लिए उसने बड़े पैमाने पर कुछ गांवों में फर्जी सट्टे बनवाए. उन पर सैकड़ों फर्जी पर्ची बनीं. मसलन-किसी व्यक्ति का 100 पर्ची का सट्टा बना. वह पर्चियां निकल गईं. उन पर बाहर से खरीदा गया गन्ना तौल गया. सट्टा जीरो हो गया तो फिर से 100 पर्चियां निकलने लगीं. ऐसा एक और दो और चार नहीं अनगिनत सट्टों में किया गया. यह काम प्रबंधन ने दलालों से मिलीभगत करके किया.

गन्ना किसानों से जुड़े मामलो के जानकार पूरी खरीद प्रक्रिया पर कई सवाल उठाते हैं. वो आरोप लगाते हैं कि 2016 में जिस व्यक्ति ने 994 कुंटल गन्ना दिया वह व्यक्ति बिना जमीन का रकबा बढ़े कैसे 2017 में 4,356 कुंटल गन्ना मिल को बेचता है. यह जमीन की गलत फीडिंग कराकर किया गया. इस तरह मिल अधिकारियों ने बड़े पैमाने पर काले धन को सफेद किया, जो दो अरब रुपये का गन्ना खरीदा गया दरअसल वह काले धन को सफेद करने का काम किया गया.

इसका सबसे ज्यादा शिकार मिल से जुड़े छोटे किसान हुए. उन्हें अपना गन्ना लगाने के लिए पर्चियों के लिए भटकना पड़ा. अंतिम समय तक पर्चियां नहीं मिलीं. बताया जाता है कि ऐसी अराजकता इससे पहले नहीं देखी गयी थी. यही कारण रहा कि जो दबंग किस्म के किसान थे उन्हें संतुष्ट करने के लिए बीच-बीच में पर्चियां दी जाती रहीं.

इस मिल से जुड़े किसानों को 25 दिसंबर 2017 के बाद दिए गए गन्ने का भुगतान नहीं मिला है. किसान परेशान है. उसे अगली फसल पर पैसा लगाना पड़ रहा है. गन्ने की सिंचाई, गुड़ाई, निराई, खाद, मेड़बंदी आदि पर पैसा लग रहा है, जिसके लिए उसे मजबूरन कर्ज लेना पड़ रहा है.

दवा से लेकर शादी और ब्याह के लिए भी उसे पैसा चाहिए, लेकिन मिल प्रबंधन कान में तेल डाले बैठा है. इससे नाराज किसानों ने पिछले दिनों पीलीभीत बस्ती स्टेट हाइवे जाम किया. गन्ना भुगतान संघर्ष समिति के बैनर तले धरना और प्रदर्शन किया.

इस पर भी अधिकारियों ने कान नहीं दिया तो आमरण अनशन शुरू कर दिया. धौरहरा एसडीएम घनश्याम त्रिपाठी की मौजूदगी में मिल यूनिट हेड आलोक सक्सेना ने वादा किया था कि चार दिन के अंदर सभी किसानों को एक और एक पर्ची का भुगतान कर दिया जाएगा, लेकिन अभी तक उसका पालन नहीं किया गया.

यूनिट हेड ने यह भी कहा था कि उनके ग्रुप की इंटरनल मीटिंग 22 मई को होने वाली है. उसमें पैसे के बंदोबस्त पर बात होगी. तत्पश्चात एक हफ्ते में भुगतान कर दिया जाएगा, लेकिन भुगतान के नाम पर ठनठन गोपाल ही रहा.

पता चला है कि जिन किसानों को पूरे सीजन में एक पैसा भी नहीं मिला था उनको कुछ पैसा भेजा गया है तो कुछ दलाल और जुगाड़ी लोग पा गए हैं. वैसे गोविंद शुगर मिल पर बात करने का यहां हमारा उद्देश्य केवल समस्या की तह तक जाना है कि किसानों की समस्या जहां भुगतान को लेकर है वहीं मिलों की अपनी कहानी है.

जाहिर सी बात है कि प्रदेश में इस मिल से कई गुना अधिक दूसरी मिलों में समस्याएं होंगी तो अनेक जगह बेहतर भी हालात होंगे.

मिलों के सामने एक समस्या सीरा की भी है. पिछले साल तक बाजार में सीरे की कीमत ठीकठाक थी, लेकिन कुछ राज्यों में शराब पर प्रतिबंध लगने आदि दूसरे कारणों से बाजार में सीरे की खपत नहीं हो रही. इससे भी मिलों को नुकसान हो रहा.

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उप्र के लखीमपुर खीरी जिले के खमरिया कस्बे में शुगर मिल के खिलाफ किसानों ने प्रदर्शन और आमरण अनशन किया. (फाइल फोटो: रमेश मिश्र)
गोविंद शुगर मिल में पिछले साल तक 150 रुपये से 170 रुपये कुंटल तक सीरा बिका था. इस बार हालत यह है कि सीरे के दलाल कह रहे हैं कि 75 रुपये कुंटल दीजिए तो हम आपके टैंक खाली करवा सकते हैं. वह क्या करेंगे, कहां ले जाएंगे, पता नहीं. लेकिन इस तरह से मिल को 225 रुपये प्रति कुंटल के हिसाब से सीरे में घाटा हो रहा है. यह बड़ी रकम होती है.

पूरे सीजन का सीरा बिकने से करीब एक महीने गन्ने का भुगतान किसानों को हो जाता था. मिल को सीरा हटाने की मजबूरी होती है. अगर वह सीरे के टैंक खाली नहीं करेंगे तो अगले साल का सीरा कहां रखेंगे. ध्यान रहे एक टन गन्ने की पेराई से जहां 107 किग्रा चीनी निकलती है तो 46 किग्रा सीरा निकलता है.

इस सीजन में सभी मिलों के पास सीरा के टैंकर भरे पड़े हैं. उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गन्ना आयुक्त संजय आर भूसरेड्डी ने फरवरी 2018 में एक पत्रिका से कहा था कि किसानों को घबराने की जरूरत नहीं है. उनके भुगतान की गारंटी चीनी, शीरा और खोई है जो सरकार के नियंत्रण में है.

बिक्री से पैसा एस्क्रो एकाउंट में आ रहा है जो रिलीज किया जा रहा है. भूसरेड्डी जैसे अफसर एसी में बैठकर इसी तरह की बहकी और बहकी बातें करते हैं और किसानों को बरगलाते हैं. खैर, उसे तो सभी बरगलाते ही रहे हैं तभी तो वह हर बार वायदे और जुमलों में फंसता है.

कुल मिलाकर गन्ना किसानों की बड़ी समस्या बकाया पैसे की वसूली है. किसान एक साल की हांड़तोड़ मेहनत कर गन्ने की फसल तैयार करता है. उसे मिलों को बेचता है, लेकिन उसके तत्काल भुगतान की व्यवस्था नहीं है. व्यावहारिक तौर पर होना यह चाहिए कि उन्हें तय समय में गन्ने का मूल्य मिल जाए.

वैसे केंद्र सरकार इस मामले में उत्तर प्रदेश सरकार को सलाह दे चुकी है कि वह चीनी क्षेत्र के लिए रंगराजन कमेटी के सुझाए सुधारों को लागू करे. महाराष्ट्र और कर्नाटक इस सुधार को लागू कर चुके हैं. मिलें इसके तहत किसानों को केंद्र सरकार की ओर से निर्धारित उचित लाभकारी मूल्य (एफआरपी) पहले अदा कर देती हैं.

शेष रकम चीनी बिक्री से मिलने वाली राशि से अदा की जाती है. पर चिंताजनक बात यह कि व्यावहारिक तौर पर स्थायी समाधान के लिए किसी भी तरह से प्रयास नहीं किए जा रहे.

(अटल तिवारी स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं तो रमेश मिश्र खमरिया स्थित स्थानीय पत्रकार हैं )