राजस्थान हाईकोर्ट में लगी मनु की प्रतिमा एक बार फिर विवादों में क्यों है

मनु की प्रतिमा को हाईकोर्ट परिसर से हटाने की याचिकाएं वर्ष 1989 से लंबित हैं, जिन पर 2015 के बाद से सुनवाई नहीं हुई है. सोमवार को औरंगाबाद की दो महिलाओं के प्रतिमा पर कालिख पोतने के बाद मामला फिर गर्मा गया है.

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मनु की प्रतिमा को हाईकोर्ट परिसर से हटाने की याचिकाएं वर्ष 1989 से लंबित हैं, जिन पर 2015 के बाद से सुनवाई नहीं हुई है. सोमवार को औरंगाबाद की दो महिलाओं के प्रतिमा पर कालिख पोतने के बाद मामला फिर गर्मा गया है.

बीते आठ अक्टूबर को जयपुर स्थित राजस्थान हाईकोर्ट की पीठ में लगी मनु की प्रतिमा पर कालिख पोत दी गई. (फोटो: अवधेश आकोदिया/द वायर)
बीते आठ अक्टूबर को जयपुर स्थित राजस्थान हाईकोर्ट की पीठ में लगी मनु की प्रतिमा पर कालिख पोत दी गई. (फोटो: अवधेश आकोदिया/द वायर)

महाराष्ट्र के औरंगाबाद शहर की कांता रमेश अहीरे व शीला बाई पंवार ने बीते आठ अक्टूबर को राजस्थान हाईकोर्ट में लगी मनु की प्रतिमा पर कालिख पोत दी. पुणे के एक मनु विरोधी संगठन रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया से जुड़ीं इन महिलाओं ने हाईकोर्ट परिसर से प्रतिमा को हटाने की मांग के समर्थन में ऐसा किया.

जयपुर की अशोक नगर थाना पुलिस ने इन महिलाओं के अलावा महाराष्ट्र के आज़ाद नगर निवासी मोहम्मद शेख़ दाउद को गिरफ़्तार किया है. एसीपी दिनेश शर्मा के मुताबिक दाउद के कहने पर ही इस घटना को अंजाम दिया गया. वो ही इन दोनों महिलाओं सहित छह लोगों को औरंगाबाद से जयपुर लाया था.

पुलिस का कहना है कि इस घटना के पीछे राजनीतिक साज़िश है, जिसका मक़सद विधानसभा चुनाव से पहले जातीय द्वैष फैलाना था.

इस घटना के बाद पिछले 29 साल से चल रहा विवाद फिर से ताज़ा हो गया है. गौरतलब है कि राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा की स्थापना 28 जुलाई, 1989 को हुई थी. इसे राजस्थान उच्च न्यायिक सेवा एसोसिएशन ने लॉयन्स क्लब के आर्थिक सहयोग से लगवाया था.

उस समय इसका खूब विरोध हुआ. हाईकोर्ट ने एक प्रशासनिक निर्णय के तहत इसे न्यायालय परिसर से हटाने का निर्देश भी दिया, लेकिन विश्व हिंदू परिषद के नेता आचार्य धर्मेंद्र ने इस फैसले को चुनौती देते हुए याचिका दायर कर दी.

इस पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश महेंद्र भूषण ने प्रतिमा हटाने पर अंतरिम रोक लगा दी. उन्होंने मामले को वृहद पीठ को भेजते हुआ कहा कि अंतिम फैसला आने तक प्रतिमा हटाने पर लगी रोक बरक़रार रहेगी.

हैरत की बात है कि वृहद पीठ ने इस मामले का निपटारा करने की बजाय इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया. इस दौरान प्रतिमा के पक्ष और विपक्ष में कई याचिकाएं ज़रूर दायर हुईं.

2015 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सुनील अंबवानी ने पहली बार इस मामले में रुचि ली. उनकी अगुवाई में वृहद पीठ ने 13 अगस्त, 2015 को मामले की सुनवाई की, जो इतनी हंगामेदार रही कि इसके बाद आज तक इस पर जिरह नहीं हो पाई है.

हुआ यूं कि प्रतिमा के विरोध में याचिका दायर करने वाले पीएल मीमरोठ की ओर से अधिवक्ता अजय कुमार जैन ने जैसे ही हाईकोर्ट परिसर में मनु की प्रतिमा पर सवालिया निशान लगाना शुरू किया, बड़ी संख्या में वकीलों ने उनकी मुखालफत शुरू कर दी. इनमें से कई जोर-जोर से चिल्लाने लगे.

न्यायाधीश सुनील अंबवानी ने वकीलों को शांत करने के काफी प्रयास किए, लेकिन उन्हें इसमें कामयाबी नहीं मिली. अंत में वे उठकर चले गए. इस दिन के बाद इस मामले में आज तक सुनवाई नहीं हुई है. हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकीलों की मानें तो यह मामला मधुमक्खी के छत्ते जैसा है, जिसमें शायद ही कोई न्यायाधीश हाथ डाले.

याचिकाकर्ता पीएल मीमरोठ कोर्ट के इस रवैये से परेशान हैं. वे कहते हैं, ‘न्याय में देरी एक तरह से अन्याय होता है. इस मामले को कोर्ट में चलते हुए 29 साल हो गए हैं. कोर्ट न्याय करने की बजाय कहता है कि जब इस विषय पर किसी प्रकार का जनाक्रोश नहीं परिलक्षित होता है तो बेवजह गड़े मुर्दे क्यों उखाड़े जा रहे हैं.’

वे आगे कहते हैं, ‘अंतिम सुनवाई के दौरान मूर्ति को कायम रखने के लिए बड़ी संख्या में वकील कोर्ट रूम में आ गए और उन्होंने हमारे वकील को बोलने नहीं दिया. कोर्ट ने पक्षपातपूर्ण तरीके से इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया है जो कि निराशाजनक है. अंतरिम आदेश की आड़ में मनु की प्रतिमा न्यायालय में 29 साल से खड़ी है.’

प्रतिमा के पक्ष में याचिका दायर करने वाले आचार्य धर्मेंद्र आज भी मनु की प्रतिमा के समर्थन में खड़े हैं.

वे कहते हैं, ‘भगवान मनु ने सबसे पहले यह विधान किया कि मनुष्य को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए. यह एक प्रकार का संविधान है. इस महान ग्रंथ के रचनाकार की प्रतिमा उच्च न्यायालय में होने पर सबको गर्व होना चाहिए.’

वे आगे कहते हैं, ‘मनुस्मृति का विरोध वे ही करते हैं, जिन्होंने इसे पढ़ा नहीं है. जो भगवान मनु को नहीं मानता है उसे स्वयं को मानव नहीं कहना चाहिए. उसे ख़ुद को दानव मानना चाहिए. जो लोग भगवान मनु की प्रतिमा को हटाने की मांग कर रहे हैं, मैं उन्हें मनुस्मृति पढ़ने की सलाह देता हूं. इसमें किसी के बारे में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लिखा हुआ है.’

धर्मशास्त्रों के ज्ञाता शास्त्री कोसलेंद्रदास के मुताबिक मनुस्मृति में सिर्फ जात-पात और छोटा-बड़ा नहीं है, बल्कि वहां ऐसे अनेक जवाब हैं, जो सभी को स्वीकार हैं.

वे कहते हैं, ‘स्त्री के सम्मान में प्रसिद्ध घोषणा यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः मनु ने की है. यानी जहां-जहां स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहां देवता रमण करते हैं.’

वे आगे कहते है, ‘मनु से पूछा गया कि धर्म को कहां खोजें तो उत्तर मिला- वेद धर्म का मूल है, उसमें खोजो. क्या किसी ने सोचा कि माता देवी क्यों हैं? पिता देवता क्यों हैं? माता-पिता का ऋण कैसे उतारना है? ऐसे ढेर सारे सवालों को मनु ने सुलझाया. हमें पूर्वाग्रहों को छोड़कर भारत की शास्त्र परंपरा के खुले मन से पुन: पाठ करना चाहिए, जिससे आपसी समझ और अच्छाई का सार निकल सके.’

वहीं, जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. उमेश नेपाल कहते हैं, ‘मनु का संविधान आज के संविधान के मेल नहीं खाता, लेकिन विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक सभ्यता को सुचारु रूप से विकसित करने के लिए एक संविधान का निर्माण मनु द्वारा किया गया, जो सहस्राब्दियों तक चला. इसलिए उन्हें नकारा नहीं जा सकता.’

इस मुद्दे पर कई आंदोलनों में भाग ले चुके दलित कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी हाईकोर्ट परिसर में मनु की प्रतिमा को कलंक मानते हैं.

वे कहते हैं, ‘मनुस्मृति स्त्री व शूद्रों के बारे में बेहद अपमानजनक और अन्यायकारी व्यवस्थाओं का लिखित विधान है. यह अत्यंत दुखद बात है कि मानव की समानता के शत्रु मनु की प्रतिमा न्यायालय में लगी हुई है जबकि संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर की प्रतिमा न्यायालय के बाहर चौराहे पर उपेक्षित खड़ी है.’

वे आगे कहते हैं, ‘डॉ. आंबेडकर के मुताबिक मनुस्मृति वर्ण तथा जाति की ऊंच-नीच भरी व्यवस्था को शास्त्रीय आधार प्रदान करती है. इसलिए उन्होंने 25 दिसंबर 1927 को सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति का दहन किया था. इस पुस्तक के लेखक की प्रतिमा न्यायालय में लगाना, सबको समानता का अधिकार देने वाले संविधान का अपमान है. हम पिछले 29 साल से इस प्रतिमा को हटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.’

गौरतलब है कि क़ानूनी लड़ाई के अलावा विभिन्न दलित व महिला संगठन पिछले 29 साल से हाईकोर्ट से मनु की प्रतिमा को हटाने की मांग कर रहे हैं.

वर्ष 1996 में कांशीराम, वर्ष 2000 में श्रमिक नेता बाबा आढव व जस्टिस कृष्णा नय्यर इस आंदोलन का हिस्सा बन चुके हैं. जनवरी, 2017 में यह आंदोलन उस समय चर्चा में आया जब ऊना दलित अत्याचार लड़त समिति के जिग्नेश मेवाणी ने जयपुर में हुए मनुवाद विरोधी सम्मेलन में हिस्सा लिया.

इस सम्मेलन के बाद पूरे देश में यह मुद्दा फिर से जीवित हो गया. बीते आठ अक्टूबर को औरंगाबाद की जिन दो महिलाओं ने मनु की प्रतिमा पर कालिख पोती वे महाराष्ट्र के दलित नेता सचिन खरात के साथ काम करती हैं.

यानी यह मुद्दा वहां भी इतनी अपील कर रहा है कि दो महिलाएं प्रतिमा पर कालिख पोतने के लिए 1250 किलोमीटर दूर जयपुर पहुंच गईं.

इन महिलाओं की जब हाईकोर्ट में वकीलों से तकरार हुई तो उन्होंने मनु की मूर्ति के ख़िलाफ़ ज़ोरदार तर्क दिए. यही नहीं, कई वकीलों ने इनके साथ हाथापाई करने की कोशिश की तो उन्होंने इसका तीखा विरोध किया. हालांकि पुलिस बीच-बचाव करते हुए दोनों को अशोक नगर थाने ले गई.

इस घटना को दलितों की हताशा के तौर पर देखा जा रहा है. जेएनयू में प्रो. गंगासहाय मीणा कहते हैं, ‘जब कोर्ट में हमें 29 साल से नहीं सुना जा रहा तो हताशा तो होगी ही. इसके दुष्परिणाम भी होंगे. इस तरह की घटनाओं से बेवजह का तनाव पैदा होता है. कोर्ट को इसका संज्ञान लेना चाहिए और इस मामले में जल्द फैसला सुनाना चाहिए.’

इस आंदोलन से जुड़े लोगों का कहना है कि आठ अक्टूबर की घटना से मनु की प्रतिमा का विरोध और तेज़ होगा. दलित चिंतक एमएल परिहार कहते हैं, ‘समाज में असमानता को स्थापित करने वाले मनु की मूर्ति का न्याय के दरबार में होने का कोई औचित्य नहीं है. यदि न्यायालय में मूर्ति ही लगानी ही है तो ऐसे महापुरुष की लगानी चाहिए जिन्होंने समाज में समानता, समता व बंधुत्व स्थापित करने के लिए काम किया.’

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और जयपुर में रहते हैं.)

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