जब संघ प्रमुख के कार्यक्रम को भाव न देने पर पत्रकार श्यामा प्रसाद को नौकरी गंवानी पड़ी

पुण्यतिथि विशेष: पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामा प्रसाद ‘प्रदीप’ का सिद्धांत था, ‘पत्रकार को नौकरी बचाने के फेर में पड़े बिना ही काम करना चाहिए वरना पत्रकारिता छोड़ कुछ और करना चाहिए.’

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पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामा प्रसाद प्रदीप.

पुण्यतिथि विशेष: पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामा प्रसाद ‘प्रदीप’ का सिद्धांत था, ‘पत्रकार को नौकरी बचाने के फेर में पड़े बिना ही काम करना चाहिए वरना पत्रकारिता छोड़ कुछ और करना चाहिए.’

पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामा प्रसाद प्रदीप.
पत्रकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्यामा प्रसाद प्रदीप.

जीवन और कर्म में एकता के हामी वरिष्ठ पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी श्यामा प्रसाद ‘प्रदीप’ आज भले ही किसी के रोलमाॅडल नहीं रह गए हैं, अपने समय में समाजवादी मूल्यों, विचारों, नैतिकताओं और मर्यादाओं के आदर्श माने जाते थे.

जीवन भर भूख और गरीबी के त्रास झेलकर भी वे इन आदर्शों का पालन करते रहे. इस कदर कि अपने 50 साल हिंदी पत्रकारिता के नाम करने और 32 से ज़्यादा पत्र-पत्रिकाओं में प्रधान संपादक तक के दायित्व निभाने के बाद 13 जनवरी, 2004 को अंतिम सांस ली, तो अपने बेटे-बेटियों को देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था.

इससे पहले स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाला सम्मान (पेंशन) वे यह कहकर ठुकरा चुके थे कि अपनी माता (भारत माता) की सेवा का मोल नहीं ले सकते.

1977 की बात है. आपातकाल ख़त्म हो चुका था और ‘दूसरी आज़ादी’ से सामना था. केंद्र के बाद उत्तर प्रदेश में भी जनता पार्टी की सरकार बन गई थी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के समग्र क्रांति आंदोलन की प्रदेश संचालन समिति के सदस्य श्यामा प्रसाद प्रदीप फ़ैज़ाबाद ज़िले के अपने गांव मवई खुर्द में ‘क्रांति की थकान’ उतार रहे थे.

इसी बीच आपातकाल में बंद करा दिए गए लखनऊ के दैनिक ‘तरुण भारत’ के प्रबंधकों ने उसे फिर से प्रकाशित करने की योजना बनाई. संपादक के रूप में श्यामा प्रसाद प्रदीप उनकी पहली पसंद थे, मगर उन्हें अंदेशा था कि वे उनके अनुरोध पर न तो गांव से लखनऊ आना स्वीकार करेंगे, न ही ‘तरुण भारत’ का संपादक बनना.

दरअसल ‘तरुण भारत’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का पत्र था और प्रदीप जी ठहरे खांटी समाजवादी. मगर साथी पत्रकार राजनाथ सिंह ‘सूर्य’ ने बहुत कहा तो उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया. मित्रों ने आशंका ज़ाहिर की कि वहां ज़्यादा दिन निभाना मुश्किल होगा, तो बोले, ‘भाई! मुझे पत्र का संपादन करना है. किसी से राग-द्वेष थोड़े ही निभाना है.’ हां, शर्त रख दी कि संपादक के तौर पर उनके पास प्रबंधकों से ज़्यादा अधिकार रहेंगे.

लेकिन छह महीने भी नहीं बीते थे कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक बालासाहब देवरस लखनऊ आए. श्याम प्रसाद प्रदीप ने उनके कार्यक्रमों का समाचार अंतिम पृष्ठ पर एक कॉलम में दिया तो उनका यह ‘अपराध’ इतना बड़ा हो गया कि उनकी संपादकी पर बन आई. समझौता उन्हें कुबूल नहीं हुआ और वे पद छोड़ अपने गांव चले गए.

इससे पहले 1965 में वाराणसी के दैनिक ‘आज’ की नौकरी भी उन्हें समझौता न करने के कारण ही गंवानी पड़ी थी. तब उनके एक सहयोगी ने मालिकों से शिकायत कर दी थी कि वे कभी भी समय से लखनऊ कार्यालय नहीं आते.

मालिकों ने समाचार संपादक चंद्र कुमार से कहा कि वे उनको समय पालन सिखाएं या हटा दें. ऐसा न करने पर ख़ुद उन पर ‘संकट’ की चेतावनी भी दी. लेकिन प्रदीप के अग्रज व अभिभावक का फ़र्ज़ निभाते हुए चंद्र कुमार ने मालिकों के कहे को कान नहीं दिया.

इस पर प्रबंधन की ओर से कहा गया कि प्रदीप हर रोज़ कार्यालय पहुंचने पर टेलीप्रिंटर से इसकी सूचना वाराणसी मुख्यालय भिजवाया करें. तब प्रदीप जी ने ऐसा करने के बजाय अपना इस्तीफ़ा भिजवा दिया.

बाद में वे वाराणसी के ही दैनिक ‘जनवार्ता’ के संपादक हो गए तो दैनिक ‘जनमोर्चा’ (फ़ैज़ाबाद) के संपादक शीतला सिंह से आग्रहपूर्वक दैनिक टिप्पणियां लिखवानी शुरू कीं. उन्हें वे अपने संपादकीय के नीचे छापा करते थे.

दो महीने बाद एक दिन उन्होंने अचानक शीतला सिंह को फोन करके कहा कि वे टिप्पणियां लिखना व भेजना बंद कर दें. शीतला ने पूछा, मगर क्यों? क्या मैं बहुत ख़राब लिखने लगा हूं? उत्तर में श्यामाप्रसाद प्रदीप का कहना था, ‘नहीं, मैंने मालिकों से पारिश्रमिक की बात की तो वे टालमटोल कर रहे हैं.’

शीतला सिंह ने कहा कि जब तक वे संपादक हैं, बिना पैसे के भी टिप्पणियां भेजते रहने में उन्हें खुशी ही होगी. मगर प्रदीप का दो-टूक उत्तर था, ‘मैं किसी पत्रकार के शोषण में सहायक नहीं बन सकता.’

1990 में विश्व हिंदू परिषद का अयोध्या आंदोलन उफान पर था तो श्यामा प्रसाद प्रदीप दैनिक ‘जनमोर्चा’ का प्रकाशन करने वाली सहकारी समिति के अध्यक्ष थे. उन्हें लगा कि ‘जनमोर्चा’ ने विश्व हिंदू परिषद को कमज़ोर करने की नीयत से 30 अक्टूबर और दो नवंबर को कारसेवकों पर बल प्रयोग की घटनाओं की रिपोर्टिंग में निष्पक्षता व वस्तुनिष्ठता नहीं बरती है, तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.

उस समय वे जेल में थे. जेल से रिहा हुए तो ‘जनमोर्चा’ की ओर से निवेदन किया गया कि वे उसकी गलती बताएं. इस पर उन्होंने उलटे अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा, ‘मैं बहुत दुखी हूं कि उन दिनों विभिन्न समाचार पत्रों द्वारा फैलाए गए भ्रमों के बीच ‘जनमोर्चा’ की ख़बरों पर यकीन नहीं कर सका. अब मैं खुश हूं कि ‘जनमोर्चा’ ने मुझे गलत सिद्ध किया.’

1989 में वे उत्तर प्रदेश राज्य सूचना नीति निर्धारण आयोग के उपाध्यक्ष थे तो उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा मिला हुआ था, इस नाते एक कार और ड्राइवर भी. एक बार वे अपने गांव कार से गए तो बेटे सुधीर ने उनसे कहा, ‘आपकी बहू को उसके मायके से लाना है. क्या मैं आपकी कार से उसे लिवाने जा सकता हूं?’ उसे निर्लिप्त सा उत्तर मिला, ‘कार सरकारी है, सरकारी काम के लिए मिली है.’

वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य थे तो उन्हें लखनऊ के रॉयल होटल में आवास मिला हुआ था. छोटा बेटा अधीर उनके साथ रहकर लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था. 7 नवंबर, 1984 को उनकी विधानपरिषद की सदस्यता ख़त्म होनी थी.

उन्होंने बेटे को एक महीना पहले ही आवास खाली करके कोई और व्यवस्था कर लेने का अल्टीमेटम दे दिया. उसने कहा कि कई और विधायकों को भूतपूर्व हुए सालों बीत गए हैं, पर वे अपना आवास ख़ाली नहीं कर रहे, आप मुझे यह साल तो पूरा कर लेने दीजिए. मगर श्यामा प्रसाद प्रदीप नहीं पसीजे और एक दिन पहले छह नवम्बर को ही आवास खाली करा दिया.

यही अधीर एक इंटर कॉलेज में कक्षा छह का छात्र था तो वे ‘जनवार्ता’ के संपादक थे. फिर भी आर्थिक तंगी की हालत यह थी कि छह महीनों तक फीस जमा न होने के कारण अधीर का नाम स्कूल से कट गया और साल ख़राब हो गया.

जानते हैं कि फीस की रकम कितनी थी? छह रुपये नब्बे पैसे! इतना सब झेलकर भी उनका सिद्धांत था- पत्रकार को नौकरी बचाने के फेर में पड़े बिना ही काम करना चाहिए वरना पत्रकारिता छोड़ कुछ और करना चाहिए.

1983 में उनके एक मित्र एक बैंक के चेयरमैन थे. उनके अधीन बैंक शाखाओं में कुछ प्रबंधकों के पद रिक्त हुए तो अधीर ने एक पद के लिए आवेदन किया और परीक्षा भी पास कर ली.

साक्षात्कार के लिए बुलावा आया तो साथ ही सूचना भी कि नियुक्ति पानी है तो पांच हज़ार रुपये देने होंगे. पांच हज़ार कहां से आए? झख मारकर श्यामा प्रसाद प्रदीप को बताना पड़ा, मगर उनसे वही उत्तर मिला, जिसकी आशा थी- ‘घूस! कतई नहीं और ख़बरदार! चेयरमैन के सामने मेरे नाम का किसी भी तरह का लाभ लेने की कोशिश मत करना.’

पूरेे जीवन प्रदीप जी फक्कड़ ही रहे, पहनने-ओढ़ने और खाने-पीने की ओर से बेहद लापरवाह. अलबत्ता मिठाई उनकी कमज़ोरी थी. एक बार उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया, तो बेहोशी टूटने का नाम ही नहीं ले रही थी. पता लगा कि भयानक मधुमेह है, जिसकी उन्होंने कभी जांच ही नहीं करायी.

पैदल चलने का उन्हें भरपूर अभ्यास था. रात में भी लंबी यात्रा होती तो जहां थक जाते वहीं सो जाते. सोने के लिए धान के पुआल की खरही भी पर्याप्त होती.

एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्रीपति मिश्र उनसे मिलने आए, तो उनके नंगे पैर, मैली-कुचैली व फटी धोती और बनियान देखकर ठगे से रह गये थे. श्यामा प्रसाद प्रदीप सिखाते थे, कमज़ोर पर हमला मत करो और कोई उस पर हमला करे तो बचाने के लिए आगे आओ.

उन्होंने ख़ुद को भी इस सीख का अपवाद नहीं बनाया. वे दैनिक ‘आज’ में उप संपादक थे, तो उनके गांव मवई के ज़मींदार मथुरा तिवारी के बेटे की हत्या कर दी गई. असली हत्यारों को सज़ा दिलाने में लगने के बजाय ज़मींदार साहब ने उन आंदोलनकारियों को ही फंसा दिया जो ज़मींदारों के ज़ुल्म-ज़्यादतियों व अत्याचारों के विरुद्ध मुखर रहते और सभाएं आदि करते थे.

श्यामा प्रसाद प्रदीप ने ज़मींदार को एक कड़ा पत्र लिख कर कहा कि अभी भी समय है, सुधर जाओ वरना सामंतवाद विरोधी आंधी कहां उड़ा ले जाए, कुछ ठिकाना नहीं.

इस पत्र से ज़मींदार को सद्बुद्धि तो ख़ैर क्या आती, उसने इसी के बिना पर श्यामा प्रसाद प्रदीप पर अभियोग लगाया कि उसके बेटे की हत्या के पीछे उनकी भी शह है. हालांकि न्यायालय ने उसकी बात नहीं मानी इसी हत्याकांड में पुलिस ने गांव में जाकर कथित अभियुक्तों के घर गिरा दिए. परिजनों को उत्पीड़ित करने का अभियान-सा चला दिया.

तब श्यामा प्रसाद प्रदीप जी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके प्रदेश के तत्कालीन गृह राज्यमंत्री रुस्तम सैटीन को गांव बुलाया, सारी बातें बताईं और अन्यायी पुलिस पर नकेल चलवायी. मगर अपने लिए अपने प्रभाव का इस्तेमाल उन्हें आता ही नहीं था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)