तीन साल हो गए, जब रोहित वेमुला के आख़िरी खत ने इस मुल्क के ज़मीर को झकझोर दिया. कम से कम उसकी आवाज़ हर उस दिमाग तक पहुंची जिसमें देखने की एक निगाह और सोचने के लिए कुछ पल मौजूद थे. लोग सहमत हुए, असहमत हुए, दुखी हुए, नाराज़ हुए, लेकिन इस ख़त के बारे में अपनी राय को लेकर उनमें कोई असमंजस नहीं था.
‘एक इंसान की कीमत उसकी फौरी पहचान में और सबसे आसान संभावनाओं में समेट कर रख दी गई है. महज़ एक वोट… महज़ एक संख्या… एक वस्तु… कभी भी इंसान से ऐसे पेश नहीं आया जाता कि उसमें दिमाग भी है, वह सोच सकता है. वह सितारों से बनी हुई एक जगमगाती चीज़ है. हर मामले में, पढ़ाई में, सड़कों पर, सियासत में, मरने और जीने में.’
तीन साल हो गए, जब पहली बार लिखे गए इस आख़िरी खत ने इस मुल्क के ज़मीर को झकझोर दिया. कम से कम उसकी आवाज़ हर उस दिमाग तक पहुंची जिसमें देखने की एक निगाह और सोचने के लिए कुछ पल मौजूद थे. लोग सहमत हुए, असहमत हुए, दुखी हुए, नाराज़ हुए, लेकिन इस ख़त के बारे में अपनी राय को लेकर उनमें कोई असमंजस नहीं था.
रोहित वेमुला के इस ख़त के आने के बाद यह बात साफ़ होने में देर नहीं लगी कि हम एक ऐसे मकाम पर खड़े थे, जहां से नई शुरुआत की संभावनाएं पैदा हो रही थीं. यह एक ऐसा पल था, जिसने विचारों की ही दुनिया में नहीं, सचमुच की दुनिया में बहुत कुछ बदलने की शुरुआत की और जिसकी गहरी, अंदरूनी धाराएं अभी तक जारी हैं. बहुत कम चिट्ठियां ऐसी होती हैं, जो किसी समाज को इतने गहरे तक छूती हैं.
यह बात साफ़ होनी चाहिए कि इन बदलावों के पीछे महज़ एक चिट्ठी भर नहीं थी. एक शख़्स था, जिसकी मौत हो चुकी थी और जिसे सांस्थानिक हत्या कहा गया. इस मौत से पहले महीनों तक उत्पीड़न की एक दास्तान थी, जो छुपी हुई नहीं थी. रोहित की इस दास्तान और उसकी इस मौत में समाज के एक बड़े तबके की कहानी जज़्ब थी.
लेकिन आख़िर में यह चिट्ठी एक खाई की निशानी बन गई; रोहित के जातीय वजूद और उसके चले जाने के बीच बनी खाई. रोहित से मुलाकात और उसकी ग़ैरहाज़िरी के बीच बनी खाई.
चिट्ठी की शुरुआत ही इस खाई को स्वीकार करने, बल्कि पढ़ने वाले को इसकी सूचना देने से होती है. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, इस खाई को कई स्तरों पर फैलते हुए देखते हैं.
एक सपना है विज्ञान लेखक बनने का. और एक हक़ीक़त है जिसमें एक शरीर को महज एक फौरी पहचान में तब्दील कर दिया गया है. एक समझ है कि लोग सितारों से बने हैं. और इसका एहसास है कि उनकी अहमियत ख़त्म कर दी गई है. लोग हैं और लोगों के लिए प्यार है, लेकिन उनके बीच में एक खाई है जो चोट पहुंचाती है.
अक्सर यह ग़लती की जाती है कि इस ख़त को एक सुसाइड नोट की तरह पढ़ा जाता है. इस नज़रिये से ख़त को पढ़ते हुए हम एक शरीर और उसकी मुसीबत से रूबरू होते हैं. एक फैसले से रूबरू होते हैं जो इन दोनों का अंत कर देने से जुड़ा है. एक चाहत की झलक पाते हैं जो पूरी नहीं हो सकी. एक हक़ीक़त हमसे मुखातिब होता है, जिससे लेखक अपने वजूद को घिरा हुआ पाता है.
यह नज़रिये कहेगा; एक शरीर था और आख़िरी खत के रूप में बची रह गई भाषा थी.
लेकिन यह शरीर महज़ कोई भी एक शरीर नहीं था. वह जातीय समाज की पहचान, हैसियत और अलगाव में क़ैद एक शरीर था. वह इनसे ऊपर उठना चाहता था, उसका सपना एक ऐसी सार्वभौम जगह को हासिल करना था, जहां पहचानों के ये बंटवारे बेमानी बन जाते.
यह चाहत अपने में एक ऐसी भाषा लिए हुए थी – समता और इंसाफ़ की भाषा – जिसके बारे में लोकतंत्र वायदे तो करता है, लेकिन वह उनके साथ अपना तालमेल नहीं बिठा पाता.
ऐसा इसलिए कि लोकतंत्र की हमारी जो समझ है उसमें तमाम तरह के फ़र्क़ों और मतभेदों का सम्मान किए जाने का वादा है. वादा है कि उन्हें संजोया जाएगा. इसलिए, जिस पर अलां बादिऊ (फ्रांसीसी दार्शनिक और उपन्यासकार) अपनी उंगली रखते हैं, यहां फौरन ही ऐसी किसी भी बात को संदेह की नज़र से देखा जाता है और उसे ज़्यादती कहकर नकार दिया जाता है जिसमें हर बात को अपने हिसाब से परिभाषित करने, देखने और रचने का जज़्बा शामिल हो. जो फ़र्क़ों से आगे जाकर एक सार्वभौमिकता की पैरवी करती हो.
सियासत की भाषा में रोहित जो कर रहा था, लिख रहा था, सोच रहा था, वह लोकतंत्र की हमारी इस समझ से टकरा रही थी.
और उसे अपने लिखे और कहे की, अपने सोचे हुए और देखे हुए सपने की कीमत अपने शरीर को मिलने वाली सज़ाओं के साथ चुकानी पड़ी.
‘भाषा के दायरे में जो होता है, शरीर उसकी कीमत चुकाते हैं,’ अलां बादिऊ कहते हैं.
‘मैं अपने शरीर और अपनी आत्मा के बीच बढ़ती हुई खाई को महसूस कर रहा हूं.’ रोहित ने लिखा था.
इसलिए, यह खत एक सुसाइड नोट नहीं था, जो सिर्फ़ शरीर और उसकी पीड़ा की बात करता हो. इसीलिए, इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि रोहित ने उन लोगों के नाम नहीं लिए जो सीधे-सीधे उसकी मौत के ज़िम्मेदार थे. बल्कि उसने लिखा कि उसकी मौत के लिए कोई भी ज़िम्मेदार नहीं है.
क्योंकि यह आख़िरी ख़त इसकी सबसे बड़ी गवाही है कि उसके सरोकार महज़ शरीर तक सीमित नहीं थे (चाहे उसका अपना शरीर हो या उनका जो उसको मौत की क़गार तक धकेल कर ले गए), न ही वह भाषा के दायरे में सीमित रहना चाहता था (इल्ज़ाम लगाना, अपनी निजी वजहें गिनाना). बल्कि उसकी निगाह एक तीसरी बात पर थी.
वह बात थी अपने समय की सच्चाइयां. उसकी छोटी-सी चिट्ठी में हमारे समय की सबसे बारीक और सबसे सटीक सच्चाइयों का बयान है; एक दुनिया जो अलगावों को बढ़ावा देती है और लोकतंत्र के नाम पर उनका सम्मान करती है, जबकि हक़ीक़त में ये अलगाव सचमुच की ज़िंदगियों को जीवन से महरूम कर देते हैं. उनसे उनका सम्मान, बराबरी और इंसाफ़ छीन लेते हैं. उन्हें महज़ संख्याओं में, वोटों और ख़रीददारों में तब्दील कर देते हैं.
यही वजह है कि यह चिट्ठी सिर्फ़ उदास नहीं करती, यह एक हौसला देती है. इसमें शरीर को होने वाली पीड़ा को ज़बान नहीं दी गई है. बल्कि इस सच्चाई को बयान किया गया है कि सपना देखना कितना दर्दनाक है. लेकिन उससे बचा नहीं जा सकता. कि एक ऐसी भाषा को अपने अख्तियार में लेना कितना ज़रूरी है जो बंटवारों और अलगावों के पार जा सके. जो सबकी ज़िंदगियों से मुख़ातिब हो सके. जो सच्चाइयों को समझ सके और लोगों को उन्हें समझा सके.
क्योंकि जैसा कि अलां बादिऊ कहते हैं, समझा जाता है कि दुनिया में ‘सिर्फ़ शरीर हैं और भाषाएं हैं, सिवाय इसके कि यहां सच्चाइयां भी हैं.’