विशेष: उत्तर प्रदेश के बस्ती से सूरीनाम गए एक परिवार से ताल्लुक रखने वाले राजमोहन ने अपने पुरखे गिरमिटिया मज़दूरों की जीवन-गाथा को संगीत में ढाला है.
ग़ुलाम प्रथा के क़ानूनी रूप से ख़ात्मे के बाद ब्रिटिश व डच उपनिवेश मॉरीशस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, गुयाना, जमैका, फिजी आदि एक दर्जन देशों में खेती के लिए मज़दूरों की कमी हो गई. तब अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने भारत से क़रीब 12 लाख मज़दूरों को इन देशों में भेजा गए.
जगह-जगह लेबर डिपो बने और मज़दूरों की भर्ती की जाने लगी. ग़रीबी से बदहाल और ज़मींदारों से त्रस्त लोग घर-बार, नाता-रिश्ता छोड़ बेहतरी का सपना लिए पानी के जहाज़ से सात समुद्र पार इन देशों में गए.
इन मज़दूरों को पांच साल के कॉन्ट्रैक्ट पर भेजा गया और उन्हें गन्ने, काफ़ी, कपास के खेतों में खपाया गया. कॉन्ट्रैक्ट मज़दूर होने के कारण इन्हें कॉन्ट्रैक्टिया और एग्रीमेंट का उच्चारण गिरमिट करने के कारण गिरमिटिया कहा गया.
वर्ष 1917 में भारतीयों के तीव्र विरोध के बाद एग्रीमेंट पर मज़दूरों को इन देशों में ले जाना बंद कर दिया गया. इन देशों में गिरमिटिया मज़दूरों के वंशज गिरमिट प्रथा की समाप्ति के 100 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहे हैं.
25 जनवरी, 1894 को कलकत्ता से जो जहाज़ तबके डच उपनिवेश सूरीनाम के लिए चला, उसमें बिहार गोपालगंज ज़िले के बैकुंठपुर ब्लॉक के मंगलपुर गांव से भी एक मज़दूर था.
ठीक 14 वर्ष बाद 11 जनवरी 1908 को एक और जहाज़ में उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के हरैया तहसील के सरनागी गांव से एक मज़दूर मोहन, उसकी पत्नी महदेई और उनका 6 वर्ष का बेटा भी अपना घर-बार, रिश्ता-नाता छोड़ सूरीनाम रवाना हुए. इन्हीं दोनों परिवारों की चौथी पीढ़ी के राजमोहन अपने पुरखे गिरमिटिया मज़दूरों की जीवन की कहानी को गा रहे हैं.
नीदरलैंड निवासी राजमोहन गीत, ग़ज़ल, भजन, पाॅप गायक, कम्पोज़र, कवि और लेखक हैं. वह इस समय म्यूज़िकल बैंड के दो साथियों सोरद्ज (सूरज) सेवलाल और पवन माहरे के साथ इंडिया आए हुए हैं और मुम्बई से लेकर यूपी-बिहार में अपने कार्यक्रम दे रहे हैं.
मॉरीशस, सूरीनाम, गयाना, त्रिनिदाद, फिजी में गए मज़दूरों में बड़ी संख्या बिहार और यूपी की थी और अधिकतर दलित और पिछड़े वर्ग के थे. पांच वर्ष के कान्ट्रैक्ट ख़त्म होने के बाद अधिकतर लोग उन्हीं देशों में बस गए लेकिन पूरी ज़िंदगी अपने देश व गांव लौटने का सपना जीते रहे. कुछ लौटे तो अपने गांव-परिवार को खोज नहीं पाए. ऐसे ख़ुशनसीब कम थे जो अपने गांव भी लौटे और उन्हें अपने घर-परिवार भी मिले.
वर्ष 1873 से 1916 के बीच 64 जहाज़ों डच उपनिवेश सूरीनाम में क़रीब 40 हज़ार गिरमिटिया मज़दूर गए. इन्हीं में राजमोहन के परनाना और दादा भी थे. तब सूरीनाम नीदरलैंड के अधीन था. राजमोहन बताते हैं कि 40 हजार मज़दूरों में से एक तिहाई मज़दूर ही अनुबंध ख़त्म होने के बाद सूरीनाम से लौटे. इनमें भी अधिकतर मारीशस, त्रिनिदाद, गुयाना आदि देशों में चले गए जबकि कुछ अपने देश भारत लौट आए.
इन गिरमिटिया मज़दूरों की ज़िंदगी आसान नहीं थी. वे रेलगाड़ियों से कलकत्ता गए और फिर वहां से पानी के जहाज़ से सूरीनाम.
लाखों भारतीय मज़दूरों के रेलगाड़ी और फिर जहाज़ से विदेश जाता देख किसी अज्ञात कवि ने लोकगीत ‘रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे’ लिखा या गाया जो आज भी भोजपुरी क्षेत्र में ख़ूब गाया जाता है. इस गीत में गांव की महिला रेल और जहाज़ को अपना बैरी बताती है क्योंकि वे उसके पिया को विदेश ले जा रही हैं.
वह पिया के रेल टिकट के गल जाने, जिस शहर में वह जा रहा है उसके जल जाने और जिस साहब के अधीन काम करने जा रहा है उसके गोली लगने से मर जाने की कामना करती है ताकि उसका प्रिय उससे दूर न जा पाए. यह गीत राजमोहन भी अपने कार्यक्रमों में ख़ूब गाते हैं.
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे,
रेलिया बैरन पिया को लिए जाए रे…
जौन टिकसवा से बलम मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
पानी बरसे टिकस गल जाए रे, रेलिया बैरन…
जौने सहरिया को बलमा मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
आगी लागै सहर जल जाए रे, रेलिया बैरन…
जौन सहबवा के सैंया मोरे नौकर, रे बलमा मोरे नौकर,
गोली दागै घायल कर जाए रे, रेलिया बैरन…
जौन सवतिया पे बलमा मोरे रीझे, रे सजना मोरे रीझें,
खाए धतूरा सवत बौराए रे, रेलिया बैरन…
लेकिन जल्द ही अपने प्रिय से दूर महिला को समझ में आ गया कि उसकी दुश्मन न रेल है न जहाज. उसकी बैरी तो ‘पइसवा’ है जिसके कारण पति को विदेश में काम करने जाना पड़ रहा है. राजमोहन ने अपने एक गीत में इसे यूं गाया है…
कलकत्ता से छूटल जहाज
हमरा कोई नहीं
भाई भी छूटे, पिता भी छूटे
भइया छूटे भाभी
हमरा कोई नहीं
पूरब से आइल रेलिया
पछिम से जहजिया
पिया के ले गइले हो
रेलिया न बैरी जहजिया न बैरी
पइसवा बैरी हो
देशवा देशवा भरमावे
उहे पइसवे बैरी हो…
बैठकगाना
राजमोहन के देश सूरीनाम में भोजपुरी क्षेत्र के इस लोकगीत को बैठकगाना कहा जाता है. लोकगीत को बैठकगाना क्यों कहा गया इसके बारे में राजमोहन कहते हैं कि उनके पुरखे लोकगीतों को गाते थे तो कव्वाली जैसा दृश्य होता था.
बैठकखाने में दो या इससे अधिक समूह बन जाते थी और लोग गाते थे. कई बार गाने के जवाब में तुरंत जो दिमाग़ में आया उसे लय में गा देते थे. एक तरह से गाना बइठाते थे. इसलिए इसका नाम बैठकगाना हो गया. राजमोहन ने 11-12 अप्रैल को यूपी के कुशीनगर ज़िले के जोगिया गांव में आयोजित लोकरंग-2017 में कई बैठकगाना प्रस्तुत किया.
मैना बोल रे बोल रे
तवा पर रोटी तवा पर रही जाए
चिरइया कहां उड़ि जाए…
एक सुंदर सुगनवा सुनावे लागे
कागा कब अइहें सुगनवा बतावे मोहें
उड़ी उड़ी कागा कदम तल बैठे
सुंदर सुगनवा सुनावे लागे
जबसे मोहन चली विदेश
तरसे नैना दरस लागे.
राजमोहन बताते हैं कि गिरमिटिया मज़दूर का कान्ट्रैक्ट साइन हो जाने के बाद उसका पूरा विवरण उसके पुलिस स्टेशन में दर्ज होता था. इसके बाद उन्हें ट्रेन से कलकत्ता ले जाया जाता था. वहां उन्हें लेबर डिपो में तीन-तीन सप्ताह तक औपचारिकताओं को पूरा करने और जहाज़ के इंतज़ार में रुकना होता था.
जहाज़ पर सवार होने के पहले उन्हें अपना सारा सामान वहीं छोड़ देना होता था क्योंकि अंग्रेज़ जहाज़ में हाईजीन का बहुत ख़्याल रखते थे. जहाज़ का सफ़र तीन माह का होता था और यह सफ़र काफ़ी कष्टकारी होता था. तमाम लोग बीच सफ़र में मर जाते थे और उनके शव को समुद्र में ही प्रवाहित कर दिया जाता था.
राजमोहन ने अपना पहला एलबम 2005 में ‘कन्ट्राकी’ नाम से ही निकाला. इसमें उन्होंने गिरमिटिया मज़दूरों की व्यथा, उनके जीवन और सपने को बयान किया है. यह बहुत ही दर्द भरा गीत है और इसे सुनते हुए श्रोताओं की आंखें गीली तो होती ही हैं, ख़ुद राजमोहन भी रोने लगते हैं.
सात समुन्दर पार कराई के
एक नवा देश के सपना दिखाई के
कइसे हमके भरमाई के
ले गईल दूर सरनाम बताई के
कपड़ा लत्ता खर्चा गहिना
गठरी से बांध सब आ जा
कृपा श्रीराम के मुट्ठी में
दूसर के सहारा बाटे
कभी दिल घबराए थोड़ा पछताए
चांद सुरूज के कुछ हमके भी
भाग में मिली दरसन तरसाई के
तीन महीना जहाज पे
रिश्ता नाता तो बन ही जाए
एक विचार दिमाग में आए
उ देश में कइसन लोग भेटाए
खेती बारी बढिया सहाए
पांच बरस कस के कमाई के
लौटब गांव पैसा जमाइके
कुछ दिन सरनाम में रहि के भाई
धीरे-धीरे आदत पड़ जाई
अब इतना दिन मेहनत कईके
सब छोड़ छाड़ वापस के जाई
सरकार के बल खेत मिल जाई
मन के कोना में एक सपना रह जाई
इहीं रही के एक दिन गांव आपन जाई के
सात समुन्दर पार कराइके.
राजमोहन कहते हैं कि वह जब भी इसे गाते हैं इमोशनल हो जाते हैं क्योंकि इसमें कॉन्ट्रैक्टिया पुरखों का दुख है. इस गीत से मैं अपने पुरखों के दुख, संघर्ष, सपने की कहानी लोगों को सुनाता हूं.
राजमोहन चाहे ग़ज़ल गाएं या भजन, पाॅप गाएं या बैठकगाना, पानी का जहाज़, कलकत्ता, गिरमिटिया मज़दूरों का दुख और उनका सपना किसी न किसी तरह से ज़रूर आ जाता है. वह अपने भजन में गिरमिटिया मज़दूरों के दुख को नियति के रूप में स्वीकार करते हैं-
कोई लाख करे चतुराई
करमवा लेख मिटे न मिटाई
जरा समझो इसकी सचाई
करमवा लेख मिटे न मिटाई
इस दुनिया में भाग के आगे
चले न किसी का कोई दांव
कागज हो तो सब कोई बांचे
दर्द न बांटो कोय…
लेकिन पाॅप एलबम ‘दुई मुट्ठी’ में गिरमिटिया मज़दूरों के दुख के साथ-साथ उनके श्रम, हौसला और ज़मीन का मालिक बनने का सपना चमकता है…
छोड़ क जहजिया कलकत्ता के किनारे
छूटल सब रिश्ता नाता भगवान के सहारे
निकल ले सरनाम की ओरे
नवा नवा तकदीर से नाता जोड़े
कइसन हवा चले
दुई मुट्ठी एक दिन की मजूरी
कइसे भला चले
हाथ गोड़ में जांगर बा
अउर पीठ भी जबर
हौसला भी सबमें डबल है
साथ में इरादा भी अटल है
अब दुख रही न चिंता
जेब रही न खाली
घर आंगन आपन रही
रही जिंदगी मा खुशहाली
निकल रे सरनाम के ओरे
अधिकतर गिरमिटिया मज़दूर अपने देश इसीलिए नहीं लौटे कि उन्हें यहां आकर फिर ‘किराये की खेती’ करनी पड़ती जबकि वह सूरीनाम में खेत के मालिक बन रहे थे. राजमोहन कहते हैं कि गिरमिटिया मज़दूरों के वंशज ख़ुश हैं. वह सूरीनाम के हर क्षेत्र में काम कर रहे हैं. वह अपने पुरखों के देश इंडिया से बहुत प्यार करते हैं. ख़ूब हिन्दी फिल्में देखते हैं और उसके गाने गाते हैं.
राजमोहन बताते हैं कि सूरीनाम के युवा भी अपनी पुरखों की संस्कृति से प्रेम करते हैं. शादी-ब्याह तीन दिनों का होता है और उसमें सभी रस्में माटी कोड़वा, हल्दी, भतवान, इमली घोटाई, द्वारपूजा, खीर खवाई आदि रस्में ख़ुशी-ख़ुशी करते हैं. प्रेम विवाह करने वाले भी चाहते हैं कि तीन दिन वाला विवाह समारोह हो और उसमें सभी रस्में निभाई जाएं. साथ ही वे उसे भी याद करते हैं जो छूट गया है या छूट रहा है-
रात सपना दिखाई दिहो हमको रतिया सपना
न मोरे अंगने में नीबिया के पेड़वा
केकर छैंया दिखाई दिया हमको रतिया सपना
न मोरे अंगने में लहुरा देवरवा
केकर बहियां पकड़ा दिहो पिया हमको
रात सपना रतिया सपना
दंडताल और धनताल
राजमोहन के बैठकगानों में ढोलक, हारमोनियम के साथ वाद्य यंत्र धनताल ज़रूर होता है. छड़ी नुमा स्टील के इस वाद्य यंत्र को उनके साथी पवन महारे मनमोहक तरीक़े से बजाते हैं. यह वाद्य यंत्र दरअसल पूर्वी उत्तर प्रदेश का पुराना दंडताल है जो अब परिष्कृत रूप में सूरीनाम में धनताल हो गया है.
पूर्वी उत्तर प्रदेश से सूरीनाम गए गिरमिटिया मज़दूर अपने साथ इस वाद्य यंत्र को भी ले गए थे. राजमोहन पुराने दंडताल की तस्वीर खोज रहे थे. ‘लोकरंग-2017’ में उन्हें पुराना दंडताल ही मिल गया.
गाजीपुर से धोबिया नृत्य प्रस्तुत करने आए लोक कलाकार जीवनलाल और उनके साथियों के पास यह दंडताल था. उन्होंने दंडताल को देखना अपने जीवन की बड़ी उपलब्धि बताया और कहा कि वह सूरीनाम जाकर लोगों को इसकी तस्वीर दिखाएंगे.
सरनामी भोजपुरी
राजमोहन अपने को सरनामी भोजपुरी गायक कहते हैं. कहते हैं कि सरनामी भोजपुरी में कई भाषाएं मिली हुई हैं. सूरीनाम में गए गिरमिटिया मजदूर भोजपुरी, मैथिली, अवधी, मगही बोलने वाले थे. वहां जाकर यह सभी भाषाए मिल गईं. इनमें स्थानीय डच व अफ्रीकी भाषा भी मिली और इस तरह सरनामी भोजपुरी का विकास हुआ. वह कहते हैं कि मुझे इस भाषा में बहुत काम करना है.
राजमोहन अपने को मूल रूप से ग़ज़ल गायक ही मानते हैं जो भजन से लेकर पॉप तक गा रहा है. वह कहते हैं कि उनके गीत, ग़ज़ल, भजन, पॉप में पूरा जीवन है. शादी के विदाई गीत से लेकर होली, दीवाली, प्रेम-मोहब्बत, बिदेसिया और मृत्यु का विदाई गीत भी.
राजमोहन के अब तक पांच एलबम आ चुके हैं. वर्ष 2011 में उनका ग़ज़ल एलबम ‘दायरा’ तो इंडियन माइग्रेशन के 140 वर्ष पूरे होने के मौक़े पर 2013 में ‘दुई मुट्ठी’ आया. उनकी कविताओं की दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं. उन्होंने परंपरागत ग़ज़ल को जैज़ और पॉप में गाया है. वह गिटार पर ग़ज़ल गाने वाले गजलगो हैं.
वे न आएंगे कभी देख के काले बादल
दो घड़ी के लिए अल्लाह हटा ले काले बादल
आज कुछ झूम के यूं आए काले बादल
सारे मयखानों को खुलवा गए काले बादल
तोर दुलार के आंच से
चूल्हा बरे है
तोर आंचल के हवा से
आंख लगे है
तोर आंख के जोती से
अंजोर रहे है
तोर कंगन के आवाज से
सवेर जगे है
सोच विचार के गवना हो गइए
जुड़ गइल नाता तोरे साथ
देह के सब सोना गल के
तोर देहीं के आंच में
कइसे बदल गइले इतनाकि तू हमे अब न जाने ह
उल्टा सीधा कइके जिनगी
हमार तू कहां गइले
रात के आज भी तू
सपना में आवे ह
रोज रोज खोजीला
इधर उधर तोके घर में कमरा में देखीला.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आयोजकों में से एक हैं.)