ऑक्सफैम इंडिया के हालिया सर्वे के मुताबिक देश में पुरुषों की तुलना में महिला कामगारों की भागीदारी और भी कम हो रही है. जी20 देशों में भारत सिर्फ सऊदी अरब से बेहतर स्थिति में है.
नई दिल्लीः एक नए सर्वेक्षण में भारत में सिर्फ रोजगार संकट की हकीकत ही नहीं बल्कि कामकाजी महिला कामगारों के समक्ष संकट का भी पता चला है. महिला कामगारों के लिए सिर्फ विकल्प ही कम नहीं है बल्कि उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन भी मिलता है. यह सब उस माहौल में होता है, जो लंबी अवधि में महिलाओं की भागीदारी के अनुकूल नहीं है.
इस बारे में ‘माइंड द गैपः द स्टेट ऑफ इम्पलॉएमेंट इन इंडिया’ नाम से ऑक्सफैम इंडिया की नई रिपोर्ट में विस्तार से से पता चलता है. यह पिछले साल पुरूष और महिला असमानता को लेकर ऑक्सफैम की रिपोर्ट का ही अगला भाग है.
समान रूप से शिक्षित होते हुए और समान कार्यों के लिए महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले 34 फीसदी कम वेतन मिलता है. 2011-2012 के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) की ओर से जारी सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 105 से 123 रुपये कम औसत दैनिक भुगतान किया जाता है.
ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर ने कहा, ‘महिलाओं को विकास के नैरेटिव से बाहर किया जा रहा है. रोजगार सृजन और लैंगिक न्याय के बावजूद जमीनी हकीकत अलग है.’
रिपोर्ट में नीति आयोग के हवाले से कहा गया कि महिलाओं को कम वेतन दिया जाता है, वे बिना भुगतान के देखभाल संबंधी कार्यों में अधिक जुड़ी हुई हैं, वे अपेक्षाकृत कमज़ोर किस्म के रोजगारों से जुड़ी हैं.
महिला कामगारों की कमजोर स्थिति के कुछ कारणों में ग्रामीण रोजगार में कमी, असमान वेतन, बिना भुगतान के कार्यों का बोझ और रूढ़िवादी सामाजिक प्रथाओं का होना है.
पुरूषों से बदतर है महिलाओं की स्थिति
हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, 2017-18 में बेरोजगारी दर चार दशक के उच्च स्तर 6.1 फीसदी पर पहुंच गई. पुरुष कामगारों की भागीदारी 2015-16 में 75.5 फीसदी से बढ़कर 2016-17 में 76.8 फीसदी हो गई. इसी समान अवधि में महिलाओं की भागीदारी 27.4 फीसदी से बढ़कर 26.9 फीसदी हो गई.
इसका मतलब है कि कार्यस्थल पर महिलाओं की पहले से ही कम भागीदारी और भी घट रही है. भारत में यह 27 फीसदी है, जो ब्रिक्स देशों में सबसे कम है. जी20 देशों में यह सिर्फ सऊदी अरब से बेहतर स्थिति में है.
सातवें वेतन आयोग में 18,000 रुपये को न्यूनतम मासिक वेतन बताया गया है, लेकिन 92 फीसदी महिलाएं प्रति महीने 10,000 रुपये से भी कम कमा रही हैं जबकि दस हज़ार रुपये प्रतिमाह कमाने वाले पुरुष 82 फीसदी हैं.
महिलाओं द्वारा बिना वेतन के किए जाने वाले घरेलू कार्यों को तो काम की श्रेणी तक में नहीं रखा जाता. मौजूदा समय में 2011-2012 के लिए महिला कामगारों की कार्यबल में भागीदारी 20.5 फीसदी है.
अगर महिलाओं के घरेलू कार्यों को एनएसएसओ की ओर से निर्धारित कार्यों की श्रेणी में शामिल कर लिया जाए तो महिला श्रमबल की भागीदारी दर, जो साल 2011-2012 में 20.5 फीसदी थी, से बढ़कर 81.7 फीसदी हो जाएगी. ऐसी स्थिति में यह पुरूषों की भागीदारी से बहुत ज्यादा होगी.
क्या जाति और धर्म महिलाओं के काम को प्रभावित करते हैं?
काम करने और किसी रोजगार से जुड़ने में लिंग, जाति और वर्ग की भी बड़ी भूमिका होती है. ग्रामीण और शहरी भारत में किसी जाति विशेष के लिए निर्धारित व्यवसाय अभी भी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे हैं.
अनुसूचित जाति की महिलाओं को अक्सर इमारत आदि के निर्माण और कूड़ा बीनने का काम करते देखा जा सकता है. रिपोर्ट में महादलित और चमार जाति से आने वाली महिलाओं का भी उल्लेख है, जो बच्चों के जन्म के दौरान दाई के रूप में काम करती हैं.
गैर अनुसूचित जाति की महिलाएं शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में अधिक काम करती हैं. मुस्लिम महिलाएं अधिकतर घर से होने वाले कामों (गृह उद्योगों) से जुड़ी होती हैं.
रिपोर्ट बताती है कि 75 फीसदी ग्रामीण महिलाएं कृषि से जुड़ी हुई हैं. दलित महिला मजदूरों को कृषि रोजगार में गिरावट का खामियाजा भुगतना पड़ा है. कृषि में महिलाएं कम मजदूरी के काम जैसे कामों मसलन निराई (वीडिंग), थ्रेसिंग और धान रोपाई के कामों से जुड़ी हुई हैं.
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