अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के इस्लामिक यूथ फेडरेशन ने एक तस्वीर जारी की है, जिसमें औरतों को इस्लाम के पिंजरे में क़ैद पंछी की शक्ल दी गई. बताया गया कि ये पिंजरा ही वो महफ़ूज़ जगह है, जहां औरतें न सिर्फ़ नेकियां कमा सकती हैं बल्कि तमाम ‘ज़हरीली’ विचारधाराओं से बची रह सकती हैं.
औरत और आज़ादी, हमारे समाज में इन दो शब्दों का एक साथ उच्चारण गंदी, बेहूदा और बे-लगाम औरतों की कल्पना करने जैसा है. औरत का पढ़ा-लिखा, समझदार होना या विवेक-बुद्धि से काम लेने की उनकी योग्यता को मानना-पसंद करना तो अलग, उसे अक्सर गवारा करना भी गले में अटकी हुई हड्डी को निगलना है.
बात वही सदियों पुरानी है कि बिस्तर की ज़ीनत हुक्म की बांदी ही भली… बराबरी और अधिकारों की बात करती हुई औरत तो बदचलन होती है.
आप कहेंगे मैं किस ज़माने की और कैसी दकियानूसी बातें कर रहा हूं, तो यक़ीन कीजिए मैं आज और अभी की बात कर रहा हूं. और हम किसी तालिबानी समाज की नहीं बल्कि अपने ही घर की उस तस्वीर का नज़ारा करने को मजबूर हैं जो आंखों में कहीं अंदर तक चुभ रही हैं.
जी, अपने ही मुल्क की एक बड़ी यूनिवर्सिटी में लड़कियों की मर्ज़ी का सम्मान किए बग़ैर उनको सिर्फ़ पर्दे में रखने की बात नहीं हो रही, सीधे-सीधे सलाख़ों के पीछे भेजकर उनको शुद्ध करने की मुहिम चलाई जा रही है.
मैं बात कर रहा हूं उस अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) की जिसमें पिछले दिनों एक बार फिर से लड़कियों को पिंजरे में क़ैद करने की कोशिश की गई. पिंजरे का नाम है इस्लाम. जी, सही सुना आपने वही इस्लाम जिसके बारे में कहते हैं कि दुनिया भर के धर्मों में औरतों के साथ उतना न्याय नहीं किया गया जितना अकेले इस धर्म ने औरतों के अधिकारों की बात की.
क़िस्सा मुख़्तसर ये कि एएमयू की ‘इस्लामिक यूथ फेडरेशन’ ने लड़कियों की बदचलनी के ख़ौफ़ में एक ऐसी तस्वीर जारी की जिसमें औरत को पिंजरे में क़ैद है और ‘पिंजरे’ की ख़ूबियां यूं शुमार की गईं कि यही वो महफ़ूज़ जगह है जहां औरतें न सिर्फ़ नेकियां कमा सकती हैं बल्कि दुनिया भर की ज़हरीली विचारधाराओं से इस तरह बची रह सकती हैं कि ‘इज्ज़त’ की सलामती की मुकम्मल गारंटी है.
सवाल है कि आख़िर तस्वीर में है क्या तो आप ख़ुद ही देख लीजिए.
हालांकि इस्लामिक यूथ फेडरेशन-एएमयू ब्रांच ने अपनी दुर्लभ सोच वाली इस तस्वीर में औरत को एक परिंदे के रूप में पेश किया है, लेकिन मैं अपने समाज की इस भद्दी तस्वीर को परिंदे की कैसी भी ख़ुशनुमा ताबीर के तौर पर भी क़ुबूल नहीं कर सकता, ख़ासतौर पर एक नन्ही और बेजान चिड़िया की सूरत में तो बिल्कुल नहीं.
सच बात तो ये है कि यहां उस औरत की तस्वीर बनाई गई है, जो मर्दों के कहे में नहीं है और उनके द्वारा की गई धर्म की व्याख्या में कहीं फिट नहीं बैठती.
साफ शब्दों में कहें तो ये उस औरत की तस्वीर है जिसको कुछ मर्दों ने अपने पेट से पैदा किया है और पेट से आगे की भूख ने इन मर्दों को ये भी समझाया दिया कि देखो ये कैसे बात करती हैं, कितने छोटे और तंग कपड़े पहनती हैं, प्रेम करती हैं और तो और ग़ैर मुस्लिम लड़कों के साथ उठती-बैठती भी हैं. साहब ये तो गुस्ताख़ी है…
मर्दों की इसी रूढ़िवादी सोच ने इन सलाख़ों को बनाया है. अब इसमें औरतें या गंदी और मुजरिम औरतें रहेंगी तो उनका भला होगा. गोया इस पिंजरे की क़ैद ही औरतों की आज़ादी है. औरतों की ‘आज़ादी’ को परिभाषित करने वाले इस पिंजरे का तिलस्म ये है कि आप अपनी व्याख्या से किसी भी यूनिवर्सिटी के क्लासरूम और हॉस्टल को सलाख़ों में बदल सकते हैं.
ऐसे में ‘पिंजरा तोड़’ लड़कियों को समझना होगा कि इस मुल्क के संविधान का सामना ऐसी सोच के लोगों से है जो सोच ही नहीं सकते. ख़ैर इस भद्दी कल्पना की भर्त्सना करते हुए एक सवाल पूछते हैं कि क्या किसी ‘परिंदे’ से उसका आसमान छीना जा सकता है?
वैसे इस क़ातिल समाज में ऐसे सवाल की अपनी कोई हैसियत नहीं है. फिर भी औरत को पिंजरबद्ध करने वाली इस तस्वीर ने मेरे सामने ये सवाल पैदा कर दिए हैं कि आख़िर औरत है क्या?
कोई पालतू जानवर या घर के किसी कोने में लटकने वाले पिंजरे की कोई सुनहरी चिड़िया, जिसे शौक़ के लिए पाला जाता है! क्या इसका मतलब यह तो नहीं कि औरत मर्दों का शौक़ है जिसको घर की चहारदीवारी में झूलते रहना चाहिए?
ऐसा नहीं कि इस ढोंगी समाज ने पहले कभी मनुष्य की कल्पना परिंदे या पंछी के रूप में नहीं की, ज़रूर की है लेकिन अपने भीतर की पीड़ा या दर्द को बयान करने के लिए उसके सही मतलब को भी पेश किया. किसी को ग़ुलाम बनाए रखने वाली मानसिकता के साथ तो हम ऐसी किसी भी कल्पना को हर्गिज़ कबूल नहीं कर सकते.
लेकिन आज मुझे औरत, परिंदे और पिंजरे की चर्चा इसलिए करनी पड़ रही है कि इस मुल्क में जहां लोकतंत्र है, एक ऐसी जम्हूरियत जो सबको जीने के समान हक़ों का वादा करती है, उस मुल्क में एक ऐसी तस्वीर बांटी जा रही है जिसमें औरतों की आज़ादी को तथाकथित ‘इस्लाम’ के आदर्शों के संदर्भ में परिभाषित किया गया है. क्या ये मज़हबी दहशतगर्दी नहीं है?
जहां तक मेरी समझ है इस एक तस्वीर से हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था, एक विश्वविद्यालय की स्वायत्तता, इस्लाम और सबसे ज़्यादा एक औरत के अपने वजूद का अपमान हुआ है. मैं यहां इस्लाम के बारे में ज़्यादा बात नहीं करना चाहता लेकिन ये कि इस्लाम ने औरतों के साथ जैसा भी व्यवहार रखा हो उसको किसी पिंजरे में बंद परिंदे की संज्ञा नहीं दी.
ऐसे में ‘पिंजरा तोड़’ लड़कियों की मुहिम को एएमयू में इस्लाम के नाम पर बदनाम किया जा रहा है. इस्लाम के आदर्शों को अपनी सोच की संकीर्णता से जोड़ कर सलाख़ों पर कुछ भी लिखा जा रहा है. इस सोच के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी करने का सही मुक़ाम ये है.
ख़ैर इस तस्वीर को बड़ी ‘होशियारी’ से बनाया गया है. इसलिए इसमें न इस्लाम है और न ही औरतें. अलबत्ता इस कथित इस्लामी पिंजरे के कई दुश्मन जैसे उदारवाद की वजह से यौन उत्पीड़न, कम्युनिज्म की वजह से यौन हिंसा/यौनाचार, फेमिनिज्म या नारीवाद की वजह से यौन दुर्व्यवहार और नास्तिकता की वजह से छेड़खानी यानी एक ही बात को परिभाषित करते हुए औरतों को उनकी हद बता दी गई है.
ये हद क्या बला है तो बस इतना समझ लीजिए कि हम मर्द मासूम और फ़रिश्ते हैं जो औरतों के ‘खुले’ हुए ‘बदन’ की वजह से गुनहगार हो जाते हैं, ऐसे गुनहगार जिसकी जड़ में औरतें हैं. इस लिहाज़ से सज़ा भी उन्हीं को मिलनी चाहिए.
ख़ैर से मुंसिफ़ भी हम ही हैं. तो मर्द मुंसिफ़ की नज़र कहती है कि ‘इस्लाम’ के इतने दुश्मनों या कहें कि अज़दहा, ज़हरीले सांप या ड्रैगन को मारने के लिए क़ुर्बानी ज़रूरी है. अब क़ुर्बानी कौन दे तो साफ़ है कि यही बेहया औरतें… और कौन!
एएमयू की इस संस्था का ये पहला कारनामा नहीं है. उनके और भी दिलचस्प क़िस्से हैं. उनकी अपनी घोषणा के मुताबिक़ पहले उनकी इसी संस्था का नाम ‘स्टूडेंट एसोसिएशन फॉर इस्लामिक आइडियोलॉजी’ (एसएआईआई) था, जिसके तहत पहले भी एक पोस्टर जारी किया जा चुका है.
कमाल ये है कि पहले वाले पोस्टर में ही वो अपनी मंशा ज़ाहिर कर कर चुके हैं. ये पोस्टर देखिए-
एएमयू तहज़ीब बनाम सीईसी में बताया गया है कि एएमयू की तहज़ीब ही इस्लाम है और अपनी बात को बल देने के लिए विश्वविद्यालय के संस्थापक सर सैयद अहमद खान के इस कथन को चित्रकथा के तौर पर पेश किया गया है कि- ‘मैं क़ौम के दाएं हाथ में क़ुरआन, बाएं हाथ में साइंस और सिर पर ला इलाहा इलल्लाह का ताज देखना चाहता हूं’
बज़ाहिर ये कथन बहुत ही प्रोग्रेसिव है, लेकिन ये बात याद रखने की है कि सर सैयद भी लड़कियों की तालीम के सख़्त विरोधी थे. ऐसे में शायद ये लोग आज उनके मिशन को ‘इस्लाम’ के नाम पर पूरा करना चाहते हैं.
इसलिए ये लोग अपना फ़र्ज़ समझते हों कि जिस कैंपस में लड़कियों को होना ही नहीं चाहिए था अब उनके होने को कैसे कम किया जाए. कुछ कर नहीं सकते तो लॉन्ड्री खोल ली. हालांकि इस लॉन्ड्री में धुलने का पहला हक़ तो उन्हीं का बनता है. अपनी गंदगी दिखी नहीं इसलिए दूसरों को नंगा समझ लिया.
ख़ैर ये तस्वीर सर सैयद बनाम भगत सिंह और उनके बहुचर्चित लेख- ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ की है, जिसके माध्यम से लड़कियों को कड़ा संदेश देते हुए ‘मिक्स्ड गैदरिंग’ के नाम पर ‘पिंजरा तोड़’ की आलोचना की गई है.
मतलब यहां भी साफ़ है कि अगर आप उदारवाद और नारीवाद जैसी चीज़ों के फेर में फंसते हैं तो नास्तिक हो जाएंगे. बाक़ी ‘मिक्स्ड गैदरिंग’ का मतलब तो ये अपनी तस्वीरों में समझा ही चुके हैं.
ये सब आख़िर क्यों किया जा रहा है, तो इस संस्था का कहना है, ‘यहां कुछ ऐसे ग्रुप हैं जो चाहते हैं कि हमारी (मुस्लिम) बहनें अपने घरों से बाहर निकलें, आज़ाद रहें और बाजारों में घूमें जबकि इस्लाम इसके ख़िलाफ़ है. इसलिए हमारी तजवीज़ है कि वो घरों के अंदर रहें और घर का काम करें.’
उनका ये भी कहना है, ‘यूनिवर्सिटी के कुछ नियम हैं. लड़के और लड़कियों को एक-दूसरे के छात्रावासों में जाने की अनुमति नहीं है. यही हमारी संस्कृति है. लेकिन एएमयू में कई लड़कियां जेएनयू जैसी आज़ादी मांग रही हैं जो हमें मंज़ूर नहीं.
उनका ये भी दावा है, ‘एएमयू में कुछ लड़कियां उनके इस पोस्टर और विचारों का समर्थन करती हैं.’ हालांकि एएमयू की लड़कियों ने इस पोस्टर की खुले शब्दों में निंदा की है. और मान लीजिए कि नहीं की है तो क्या यूनिवर्सिटी के ही तमाम लड़के इस पोस्टर से सहमत हो सकते हैं?
संस्था का कहना है कि ‘छात्रावास में कर्फ्यू-टाइमिंग को हटाने की मुहिम चलाने वाली संस्था ‘पिंजरा तोड़’ को जवाब देने के लिए उन्होंने अपनी तस्वीरों में पिंजरे को जगह दी है.’
उनकी इस सोच पर आप हंस भी नहीं सकते कि ‘जेएनयू जैसी आज़ादी’,‘पिंजरा तोड़’ की मुहिम और ‘मिक्स्ड गैदरिंग’ का मतलब उनके ज़ेहन में बहुत साफ़ है. दरअसल वो अपनी इस पोस्टर-पहल से यक़ीन दिलाना चाहते हैं कि ‘ये समाज महिलाओं के लिए सुरक्षित है शर्त ये है कि लड़कियां अपने घरों में रहें.’
अब अंत में तमाम ‘फ़साद’ की जड़ पिंजरा-तोड़ की चंद बातें जो उन्होंने इस विवाद के बाद द वायर से साझा की हैं. जामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रा और पिंजरा-तोड़ से जुड़ी मुनतहा अमीन कहती हैं, ‘ये मामला मर्दों के अपनी मैस्कुलिनिटी [Masculinity] को लेकर असुरक्षा की भावना का क्लासिक उदाहरण है और वे इसके लिए ‘मज़हब’ के नाम पर अपनी ग़लत समझ के साथ अपने स्त्री विरोधी विचारों को सही ठहराने की कोशिश कर रहे हैं.’
मुनतहा कहती हैं कि उस पोस्टर को देख कर ही लगता है कि धर्म और पितृसत्ता को ले कर उनकी समझ बहुत दयनीय है.
वो आगे कहती हैं, ‘पहले तो तहज़ीब के यही ठेकेदार कहते हैं कि पश्चिम ने औरतों का बहुत इस्तेमाल किया. साबुन की टिकिया तक बेचने के लिए औरतों के जिस्म की नुमाइश लगा दी, फिर यही लोग ख़ुद औरतों को कोई वस्तु, कोई ऑब्जेक्ट मानते हुए उसी तर्क से बोलते हैं कि औरत लॉलीपॉप है, उसको ढको, औरत हीरा है, उसे महफूज़ रखो. तो क्या ये ऑब्जेक्टिफाई करना नहीं है?’
मुनतहा मानती हैं कि इसके पीछे हर ऐब के लिए औरतों को जिम्मेदार ठहराने वाली सोच है. वे कहती हैं, ‘ये वही लोग हैं जिन्होंने कहा कि #मीटू में जो भी हुआ वो ‘हया’ न होने के चलते हुआ. मतलब तमाम चीजों के लिए औरतों को जिम्मेदार ठहराओ. कहो कि औरतों को ख़ास तरह का लिबास पहनना चाहिए तो उनके साथ ये सब नहीं होगा.’
वे मानती हैं कि इन सब में परवरिश का भी दोष है. उनका कहना है, ‘हमारे घरों में लड़कों से कभी नहीं कहते कि औरतों और उनकी मर्ज़ी की इज्ज़त करो. ऐसे लोगों के लिए किसी को इंसाफ देना बहुत मुश्किल है और ये कहना बहुत आसान कि ऐसे कपड़े मत पहनो, वैसे मत रहो. अगर औरतों के लिए इतने ही फिक्रमंद हैं तो उनके लिए आवाज़ उठाइए, उन्हें घरों में क़ैद मत कीजिए.’