मध्य प्रदेश: क्यों आरक्षित सीटें प्रदेश में लोकसभा चुनावों के नतीजों के लिहाज़ से अहम हैं

मध्य प्रदेश की कुल 29 लोकसभा सीटों में से 10 अनसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं. 2014 में भाजपा ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन इस बार उसकी हालत पतली है. इसलिए आरक्षित सीटों पर 75 फीसदी सांसदों के टिकट काट दिए हैं, जबकि अनारक्षित सीटों पर केवल 33 फीसदी ही टिकट काटे गए हैं.

Jabalpur: A shopkeeper poses with political parties' campaign materials ahead of Lok Sabha elections 2019, in Jabalpur, Wednesday, March 13, 2019. (PTI Photo) (PTI3_13_2019_000028B)
(फाइल फोटो: पीटीआई)

मध्य प्रदेश की कुल 29 लोकसभा सीटों में से 10 अनसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं. 2014 में भाजपा ने इन सभी सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन इस बार उसकी हालत पतली है. इसलिए आरक्षित सीटों पर 75 फीसदी सांसदों के टिकट काट दिए हैं, जबकि अनारक्षित सीटों पर केवल 33 फीसदी ही टिकट काटे गए हैं.

Jabalpur: A shopkeeper poses with political parties' campaign materials ahead of Lok Sabha elections 2019, in Jabalpur, Wednesday, March 13, 2019. (PTI Photo) (PTI3_13_2019_000028B)
(फोटो: पीटीआई)

मध्य प्रदेश में कुल 29 लोकसभा सीटें हैं. 10 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. जिनमें भिंड, देवास, टीकमगढ़ और उज्जैन, ये चार सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. बैतूल, धार, खरगोन, मंडला, रतलाम और शहडोल, ये छह सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं.

वर्तमान में इनमें से 9 सीटों पर भाजपा काबिज है. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों में उसने सभी 10 सीटें जीती थीं. लेकिन 2016 में रतलाम-झाबुआ सीट पर हुए उपचुनाव में उसे यह सीट गंवानी पड़ी थी.

प्रदेश की इन एक तिहाई से अधिक सीटों पर देखा जाए तो भाजपा का ही पलड़ा हमेशा से भारी रहा है. हालांकि हमेशा से ये सीटें आरक्षित भी नहीं रही हैं. धार, मंडला, रतलाम, शहडोल और उज्जैन को छोड़ दें तो बाकी पांच सीटें (बैतूल, खरगोन, भिंड, देवास, टीकमगढ़) 2009 में परिसीमन के बाद आरक्षित श्रेणी में लाई गई थीं.

2009 में इन सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के बीच मुकाबला 5-5 की बराबरी पर छूटा था. लेकिन 2014 में भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ कर दिया था.

इन नतीजों का असर दोनों दलों के प्रदर्शन पर भी देखा गया था. जब 2009 में मुकाबला आरक्षित सीटों पर 5-5 की बराबरी पर रहा था, तब यहां की 29 लोकसभा सीटों में से भाजपा के खाते में 16 और कांग्रेस को 12 मिली थीं. लेकिन जब 2014 में भाजपा ने सभी आरक्षित सीटें जीत लीं तो कांग्रेस भी 2 पर सिमट गई थी, भाजपा को 27 सीटें मिलीं.

लेकिन इस बार भाजपा के लिए पिछला प्रदर्शन दोहराना टेढ़ी खीर साबित होता दिख रहा है. इसका एक कारण यह भी है कि भाजपा हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में आरक्षित विधानसभा सीटों पर बड़ा नुकसान उठा चुकी हैं जिसे प्रदेश में उसकी सत्ता जाने का एक कारण माना जाता है.

प्रदेश की 230 विधानसभा सीटों में से 82 आरक्षित थीं. भाजपा ने 2013 में इनमें से 59 सीटें जीती थीं. लेकिन 2018 में वह 34 पर सिमट गई. कांग्रेस जो कि 2013 में 19 सीटें लाई थी, उसे 2018 में 47 सीटें मिलीं.

जो कहीं न कहीं भाजपा के आरक्षित वर्ग में खोते जनाधार का तो प्रमाण है ही, साथ ही इसने लोकसभा चुनावों में भी उसके लिए चिंता खड़ी कर दी है. यही कारण है कि पार्टी ने इन 10 सीटों पर 9 मौजूदा सांसदों में से 7 के टिकट काट दिए हैं. बाकी बची एक सीट पर भी पिछले चुनाव में उतारे गए प्रत्याशी को बदल दिया है. यानी कि दस सीटों पर आठ चेहरे बदले हैं.

बैतूल से भाजपा उम्मीदवार दुर्गादास उइके. (फोटो साभार: फेसबुक)
बैतूल से भाजपा उम्मीदवार दुर्गादास उइके. (फोटो साभार: फेसबुक)

एसटी सीटों की बात करें तो बैतूल से सांसद ज्योति धुर्वे का टिकट काटकर संघ पृष्ठभूमि के शिक्षक दुर्गादास उइके को मैदान में उतारा है. धुर्वे लगातार दो बार से सांसद थीं. हालांकि, उनके टिकट कटने का कारण यह भी रहा कि उन पर लगे फर्जी जाति प्रमाण पत्र के सहारे चुनाव लड़ने के आरोप सही साबित हुए.

धार से सावित्री ठाकुर का टिकट काटकर दो बार के सांसद छतरसिंह दरबार को फिर से आजमाया गया है. खरगोन से सुभाष पटेल की जगह गजेंद्र पटेल को मौका दिया है.

शहडोल से तीन बार के सांसद ज्ञान सिंह का भी टिकट काट दिया गया है. उनकी जगह कांग्रेस से भाजपा में आईं उन हिमाद्री सिंह को उम्मीदवार बनाया है जिन्हें 2016 के उपचुनाव में ज्ञान सिंह ने हराया था. तब हिमाद्री कांग्रेस से उम्मीदवार थीं. केवल मंडला सीट पर पार्टी ने पांच बार के सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते को फिर से दोहराया है.

वहीं, रतलाम-झाबुआ से सांसद दिलीप सिंह भूरिया के निधन के बाद 2015 में हुए उपचुनाव में निर्मला भूरिया भाजपा प्रत्याशी थीं. तब कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया ने यह चुनाव जीता था. लेकिन इस बार जीएस डामोर उम्मीदवार हैं.

जीएस डामोर झाबुआ से विधायक हैं. उन्होंने विधानसभा चुनाव में विक्रांत भूरिया को हराया था. विक्रांत भूरिया रतलाम सांसद कांतिलाल भूरिया के ही बेटे हैं. बेटे के बाद अब डामोर को पिता को हराने की ज़िम्मेदारी दी गई है.

एससी सीटों में भिंड से सांसद भागीरथ प्रसाद की जगह संध्या राय, देवास में मनोहर ऊंटवाल के विधायक बनने के बाद महेंद्र सिंह सोलंकी और उज्जैन से चिंतामणि मालवीय का टिकट काटकर भाजपा ने अनिल फिरोजिया को उतारा है.

बस टीकमगढ़ में 6 बार के सांसद वीरेंद्र कुमार खटीक को फिर से दोहराया है.

इन आरक्षित सीटों के महत्व और भाजपा की इन्हें लेकर छटपटाहट ऐसे भी समझी जा सकती है कि प्रदेश की कुल 29 सीटों में से 26 पर उसके सांसद हैं. उसने 14 सांसदों के टिकट काटे हैं. जिनमें से विदिशा सांसद सुषमा स्वराज ने स्वयं ही चुनाव लड़ने से मनाकर दिया. खजुराहो सांसद नागेंद्र सिंह और आरक्षित सीट देवास से सांसद मनोहर ऊंटवाल हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में जीत कर इन सीटों पर दावेदारी से पीछे हट गए.

इस तरह देखें तो 23 सीटें बचीं जिनमें से 11 पर सांसदों के टिकट काटे गए. इनमें आठ सीटें आरक्षित हैं जिन पर छह सांसदों के टिकट कटे हैं.

देखा जाए तो 15 अनारक्षित सीटों पर 5 और 8 आरक्षित सीटों पर भाजपा ने 6 सांसदों के टिकट काटे हैं. इस तरह अनारक्षित सीटों पर सांसदों के टिकट कटने की दर 33 फीसदी है तो आरक्षित सीटों पर 75 फीसदी सांसदों के टिकट कटे हैं.

भाजपा उम्मीदवार फग्गन सिंह कुलस्ते. (फोटो साभार: फेसबुक)
भाजपा उम्मीदवार फग्गन सिंह कुलस्ते. (फोटो साभार: फेसबुक)

आरक्षित सीटों पर भाजपा ने जिन फग्गन सिंह कुलस्ते और वीरेद्र कुमार खटीक को वापस आजमाया है तो उसका कारण भी यह रहा कि पार्टी के पास प्रदेश में आदिवासी और दलित नेतृत्व के नाम पर कोई बड़ा चेहरा नहीं है. पांच बार के सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते और छह बार के सांसद केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र कुमार खटीक के सहारे ही पार्टी इस कमी को थोड़ा-बहुत पूरा करना चाहती है.

वरना विधानसभा चुनाव में कुलस्ते की मंडला लोकसभा सीट के दायरे में आने वाली आठ विधानसभाओं का हाल देखें तो यहां भाजपा को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है.

वहीं, टीकमगढ़ में खटीक का पार्टी स्तर पर ही विरोध है कि वे बाहरी हैं और स्थानीय कार्यकर्ताओं का हक छीन रहे हैं. पूर्व भाजपा विधायक आरडी प्रजापति तो बगावत कर उनके सामने निर्दलीय ही ताल ठोक बैठे हैं.

वहीं, कांग्रेस ने भी इन सीटों का महत्व समझा है. रतलाम से कांतिलाल भूरिया को छोड़ दें तो सभी 9 सीटों पर पिछले चुनाव के चेहरे दोहराए नहीं गए हैं. जिन नए चेहरों को मैदान में उतारा है वे पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता और अपने क्षेत्र के जाने-पहचाने नाम रहे हैं.

इनमें पद्मश्री लोकगायक प्रहलाद टिपानिया, रेडियोलॉजिस्ट डॉ. गोविंद मुजाल्दा, गोंगपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे कमल मरावी, पेशे से वकील और कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ता रामू टेकाम और जेएनयू के छात्र रहे तथा 2 अप्रैल 2018 के ‘भारत बंद’ की हिंसा का भांडाफोड़ करने वाले 28 वर्षीय देवाशीष जरारिया जैसे चेहरे शामिल हैं.

आदिवासी आरक्षित सीटों पर जय आदिवासी युवा शक्ति संगठन (जयस) और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) भी मजबूत पकड़ रखते हैं. और वोट काटकर कभी भी किसी भी दल को नुकसान पहुंचा सकते हैं. यह भय केवल भाजपा ही नहीं, कांग्रेस को भी है.

नतीजतन विधानसभा चुनावों से लेकर अब लोकसभा तक भाजपा-कांग्रेस दोनों ही इन दलों को साधते देखे गए.

 

भाजपा प्रत्याशी हीरालाल अलावा. (फोटो साभार: फेसबुक)
भाजपा प्रत्याशी हीरालाल अलावा. (फोटो साभार: फेसबुक)

विधानसभा चुनावों में जयस के संरक्षक हीरालाल अलावा को मनावर से टिकट देकर कांग्रेस ने जयस को साधकर अपने पाले में कर लिया था. जिसका उसे लाभ भी मिला. लेकिन इस बार जयस समर्थित किसी भी उम्मीदवार को पार्टी ने चुनावी मैदान में नहीं उतारा. जिससे जयस की नाराजगी भी देखी गई.

कांग्रेस विधायक होते हुए भी जयस संरक्षक हीरालाल अलावा ने पार्टी विरोधी बयान दिए. मुख्यमंत्री कमलनाथ ने स्वयं उन्हें मिलने बुलाया. धार और रतलाम से जयस ने अपने प्रत्याशी तक घोषित कर दिए. हालांकि, बाद में धार प्रत्याशी महेंद्र कन्नौज ने संगठन के संज्ञान में लाए बिना अपना नामांकन वापस ले लिया.

गोंगपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हीरासिंह मरकाम ने भी पिछले दिनों कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात के बाद बयान दिया था कि जहां भाजपा मजबूत होगी, वहां उनकी पार्टी कांग्रेस प्रत्याशी को समर्थन करेगी. यह भी भाजपा के पक्ष में नहीं जा रहा है.

वहीं, दलित आरक्षित (एससी) सीटों पर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) वोट काटने की स्थिति में पाई जाती है. लेकिन कांग्रेस का उसके साथ कोई तालमेल नहीं बैठना भाजपा के लिए सुकून देने वाला हो सकता है. प्रदेश में समाजवादी पार्टी (सपा) और बसपा के बीच गठबंधन हुआ है और बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार कांग्रेस पर हमलावर बनी हुई हैं.

बहरहाल, इन सीटों के जीत-हार के इतिहास पर बात करें तो बैतूल, खरगोन, भिंड, देवास, टीकमगढ़ 2009 में परिसीमन के बाद आरक्षित सीटें बनी थीं. तब से हुए दोनों लोकसभा चुनावों में बैतूल, खरगोन, भिंड, टीकमगढ़ पर भाजपा जीती है. जबकि देवास में 2009 में कांग्रेस तो 2014 में भाजपा जीती.

अगर लंबे प्रभाव की दृष्टि से इन सीटों का आकलन करें तो बैतूल 1996 से भाजपा के पास है. इस दौरान छह चुनाव हुए हैं. खरगोन में 1989 से हुए 9 चुनावों में 7 में भाजपा और 2 में कांग्रेस जीती है.

भिंड 1989 से भाजपा के पास है. देवास और टीकमगढ़ सीटें 2009 में क्रमश: चार और तीन दशक बाद अस्तित्व में आईं. टीकमगढ़ तब से भाजपा के पास है तो देवास में दोनों दल एक-एक बार जीते हैं.

कांग्रेस उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया. (फोटो साभार: फेसबुक)
कांग्रेस उम्मीदवार कांतिलाल भूरिया. (फोटो साभार: फेसबुक)

जबकि धार, मंडला, रतलाम-झाबुआ, शहडोल और उज्जैन हमेशा से ही आरक्षित श्रेणी की सीटें रही हैं. धार सीट पर मिश्रित नतीजे मिलते रहे हैं. लगातार कोई एक दल नहीं जीता है. मंडला में पिछले छह चुनाव में पांच बार भाजपा जीती है और पांचों बार फग्गन सिंह कुलस्ते ही सांसद रहे. 2009 में कांग्रेस एक बार जीती थी.

रतलाम-झाबुआ कांग्रेस का गढ़ है. 1980 से हुए 11 चुनाव में 10 उसने जीते हैं. 2014 में उसे भाजपा से हार मिली और हराने वाले कांग्रेस से पांच बार इसी सीट पर सांसद रहे दिलीप सिंह भूरिया थे. वर्तमान में कांतिलाल भूरिया यहां से सांसद हैं. पिछले छह में से 5 चुनाव वे जीते हैं.

शहडोल में 1996 से छह चुनावों में पांच भाजपा जीती है. 2009 में उसे हार मिली थी. वहीं, उज्जैन में 2009 के चुनाव छोड़ दें तो 1989 से भाजपा काबिज है. 2009 में जिन प्रेमचंद गुड्डू ने कांग्रेस को जीत दिलाई थी, वे अब भाजपा में हैं.

इन सीटों का इतिहास तो 7-3 की बढ़त के साथ भाजपा के पक्ष में दिखता है लेकिन हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों को आधार बनाएं तो इन 10 आरक्षित सीटों में से 8 पर भाजपा पिछड़ गई है और कांग्रेस ने बढ़त बनाई है.

सभी छह आदिवासी सीटों पर कांग्रेस आगे रही, जबकि दलित सीटों पर मुकाबला 2-2 की बराबरी पर छूटा है. भिंड और देवास में कांग्रेस आगे है तो टीकमगढ़ व उज्जैन में भाजपा को बढ़त है.

शायद इसी पिछड़ने के कारण भाजपा को आरक्षित सीटों पर 75 फीसदी सांसदों को घर बैठाना पड़ा है. क्योंकि विधानसभा चुनावों में आरक्षित सीटों से सत्ता गंवाने की चोट खाई भाजपा अब लोकसभा में आरक्षित सीटों को लेकर कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती.

इसका एक सटीक उदाहरण रतलाम-झाबुआ के उसके उम्मीदवार जीएस डामोर हैं जिन्हें पार्टी ने अपनी ही गाइडलाइन के खिलाफ जाकर मैदान में उतारा है.

भाजपा ने प्रदेश विधानसभा में अल्पमत में होने के चलते तय किया था कि किसी विधायक को टिकट नहीं दिया जाएगा लेकिन झाबुआ विधायक डामोर को रतलाम से कांतिलाल भूरिया के खिलाफ उतार दिया गया है.

बहरहाल, प्रदेश में दो चरण का चुनाव संपन्न हो चुका है. तीसरे और चौथे चरण का चुनाव 12 एवं 19 मई को होगा. आरक्षित सीटों में बैतूल, मंडला, शहडोल और टीकमगढ़ में मतदान हो चुका है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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