हमने अपने देश पर पिछले कई दशकों से शोषण व गैरबराबरी पर आधारित जो सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था लाद रखी है, उसके विषफलों की निरंतर बढ़ती पैदावार के बीच यह सवाल भी छोटा नहीं रह गया है कि सरकारों को नागरिकों के किन वर्गों की समस्याओं को ज्यादा तवज्जो देनी चाहिए, किनकी समस्याओं को कम? और क्या वे जिनको ज्यादा तवज्जो देनी चाहिए, दे रही हैं?
जयंती विशेष: 1857 में लड़े गए देश के पहले स्वतंत्रता संग्राम के अलबेले नायक तात्या टोपे की याद इस मायने में बहुत जरूरी है कि वे उस संग्राम के अकेले ऐसे योद्धा थे, जिसने अपनी सुविधानुसार उसमें कोई एक भूमिका चुन लेने के बजाय वक्त की नजाकत के मुताबिक जब जैसी जरूरत हुई, तब तैसी भूमिका निभाई.
डाॅ. ज़ाकिर हुसैन के व्यक्तित्व की सबसे उल्लेखनीय बात यह थी कि उन्होंने अपना पूरा जीवन देश की एकता, सामाजिक न्याय और सभी के लिए शिक्षा जैसे उद्देश्यों के लिए समर्पित किए रखा- इस मान्यता के साथ कि शिक्षा समाज को बदलने का सबसे शक्तिशाली हथियार है.
सीएम योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्रियों ने मिल्कीपुर की कितनी यात्राएं कीं, वहां जाकर कितना जोर लगाया या प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से कितना साम दाम दंड और भेद बरता, इस सवाल को भूल ही जाइए. योगी के राज में उत्तर प्रदेश में यह सब इस तरह एक 'समृद्ध' परंपरा में बदल चुका है कि योगी सरकार किसी भी रूप में लजाने से परहेज बरतती है.
निर्गुट आंदोलन के संस्थापक रहे और अब 'विश्व गुरु' बनने की उतावली में दिखते भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने इस मामले को जैसे पहले से चली आ रही प्रवासियों की वापसी की प्रक्रिया से जोड़ा और उन्हें हथकड़ियों-बेड़ियों में जकड़कर समूचे देश के आत्मसम्मान को आहत करने के दुस्साहस को तवज्जो देने के लायक नहीं समझा वह जरूर अचंभित करने वाली है.
कुंभों और महाकुंभों की लंबी परंपरा में कभी इलाहाबादी कुंभ यात्रियों या कुंभयात्री इलाहाबादियों की किसी भी तरह की असुविधा के हेतु नहीं बने. उन्होंने हमेशा, और इस बार विशेषकर मुस्लिम समुदाय ने परस्पर सत्कार व सहकार की भावना बनाए रखी.
महात्मा गांधी मानते थे कि जब तक मुट्ठी भर धनवानों और करोड़ों भूखे रहने वालों के बीच बेहद अंतर बना रहेगा, तब तक अहिंसा की बुनियाद पर चलने वाली राज्य व्यवस्था कायम नहीं हो सकती. उन्होंने स्वराज्य को लेकर यह सपना तक देखा कि दोनों (पूंजीपति और गरीब) ही अंत में हिस्सेदार बनें, क्योंकि दोष पूंजी में नहीं, उसके दुरुपयोग में है.
1954 कुंभ त्रासदी को लेकर तब की सरकार को कोसने वाले भूल जाते हैं कि भगदड़ के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने सभी वीआईपी अतिथियों से आग्रह किया था कि वे प्रमुख स्नान पर्वों पर कुंभ न जाएं, पर अब तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले सप्ताह वहां जाने वाले हैं और उनसे ऐसी किसी अपील की उम्मीद की ही नहीं जाती.
2021 में मोदी सरकार ने नेता जी की जयंती को 'पराक्रम दिवस' के रूप में मनाने का ऐलान किया था. लेकिन इस बार पराक्रम दिवस आया और चला गया! चूंकि अभी कोई ऐसा चुनाव होने वाला नहीं है, जिसमें सुभाषचंद्र बोस के नाम का रट्टा मारकर चुनावी लाभ की उम्मीद की जा सके, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी कहें या आरएसएस परिवार ने इस अवसर पर कोई खास 'पराक्रम' नहीं दिखाया.
महाकुंभ का राजनीतिकरण अपनी सीमाएं न लांघ रहा होता, तो न इस मेले को अतिशय महत्वपूर्ण बताने के लिए आने-नहाने वालों की संख्या तर्कातीत स्तर तक बढ़ाकर कई-कई करोड़ बताने की ज़रूरत पड़ती, न ही शाही स्नान का नाम बदलकर अमृत स्नान बताकर अपनी हीनता ग्रंथि को तुष्ट करने की.
अयोध्या ज़िले की समाजवादी पार्टी (सपा) के कब्ज़े वाली मिल्कीपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में यह अंदेशा प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की जीत-हार के सवाल से बड़ा हो गया है कि चुनाव आयोग वहां स्वतंत्र व निष्पक्ष मतदान कैसे सुनिश्चित करेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिनों अपने बहुप्रचारित 'पहले पॉडकास्ट इंटरव्यू' में यह कहा कि वे कोई देवता (या भगवान) नहीं बल्कि मनुष्य हैं और उनसे भी गलतियां होती हैं. इससे पहले गत वर्ष लोकसभा चुनाव के वक्त एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि कि वे जैविक रूप से पैदा ही नहीं हुए और भगवान ने उन्हें शक्ति के साथ भेजा है.
देश के पुनर्जागरण के नायकों में से एक स्मृतिशेष सत्येंद्रनाथ टैगोर ने अपने लेखन व सृजन से देश, ख़ासकर बंगाल के पुनर्जागरण के प्रयासों से जुड़कर भारतीयों के सामाजिक उन्नयन और महिला-पुरुष समानता के लिए जो बहुआयामी प्रयत्न किए, उनके उल्लेख के बगैर उनका परिचय पूरा नहीं होता.
जयंती विशेष: आशापूर्णा देवी बंकिम, टैगोर और शरत के बाद के दौर की पहली ऐसी बांग्ला साहित्यकार हैं, जिन्होंने मध्यवर्गीय बंगाली समाज में महिलाओं के हाशियाकरण पर बेबाकी से कलम चलाई. सात दशकों से ज्यादा के साहित्यिक जीवन में उनकी एक बड़ी उपलब्धि अपनी जड़ों के प्रति ईमानदार रहने और सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाने को माना जाता है.
बापू के नाम पर बने सभागार में उनका प्रिय भजन गाने से रोकने वालों को शायद भान नहीं कि 'ईश्वर अल्ला तेरो नाम-सबको सन्मति दे भगवान' की संस्कृति इस देश की परंपरा में रही है. 1940 के दशक में बस्ती में 'निजाई बोल आंदोलन' में सक्रिय किसान नेता राम मोहम्मद सिंह इसकी बानगी हैं.