जिस एसआईआर के बचाव में खड़ी है भाजपा, उसी पर सवाल क्यों उठा रहे हैं सीएम आदित्यनाथ

योगी आदित्यनाथ एसआईआर में गड़बड़ियों को लेकर बोलने वाले देश के पहले भाजपाई मुख्यमंत्री बनने को कुछ लोगों ने इसे पहले से अन्य सीएम द्वारा एसआईआर संबंधी गड़बड़ियों की शिकायतों की पुष्टि के रूप में देखा है. हालांकि कई हलकों में यह सवाल पूछा जाने लगा कि क्या यूपी में एसआईआर में 'खेल' करने के अरमानों के विपरीत उलटे भाजपा को ही बड़े नुकसान का अंदेशा सताने लगा है?

‘बंदे मातरम’ पर बहस के बाद नेहरू का क़द कहीं अधिक बड़ा हो गया है

1937 में कांग्रेस की कार्यसमिति द्वारा बंदे मातरम के एक अंश को (ही) स्वीकार करने से जुड़ी छिद्रान्वेषण से भरी वे सभी अतार्किक बातें स्वत: समाप्त हो जानी चाहिए थीं, जिनका सहारा लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत सप्ताह इस गीत के डेढ़ सौ वर्ष पूरे होने के सिलसिले में लोकसभा में नेहरू को खलनायक बनाने के लिए उनके प्रति दुर्भावनाओं का एक और खेल खेलने की विफल कोशिश की.

शिवमंगल सिंह ‘सुमन’: ‘जब तक न मंज़िल पा सकूं, तब तक मुझे न विराम है’

पुण्यतिथि विशेष: 2002 में 27 नवंबर के दिन सुमन का निधन हुआ तो अटल प्रधानमंत्री थे और उन्होंने उनको श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा था कि 'सुमन' हिंदी कविता के सशक्त हस्ताक्षर भर नहीं, अपने समय की सामूहिक चेतना के संरक्षक भी थे. क्योंकि उन्होंने अपनी रचनाओं में न केवल अपनी भावनाओं का दर्द व्यक्त किया, बल्कि अपने युग के मुद्दों पर निर्विवाद रचनात्मक टिप्पणियां भी कीं.

क्या हुआ जब अवध के नवाबों की मजबूरियों ने उनकी ज़मीन ‘सख़्त’ और आसमान ‘दूर’ कर दिया?

अवध के नवाबों की विलासिता के सच्चे-झूठे इतने किस्से न सिर्फ अवध बल्कि उसके बाहर भी प्रचलित हैं कि कोई उन्हें गिनने बैठे तो गिनता ही रह जाए. इस बाबत कोई क़िस्सा बहुत मुश्किल से मिलता है कि इन नवाबों के बुरे दिन आए और उन दिनों को उन्होंने किस तरह सहा. लेकिन ऐसे क़िस्से भी कम नहीं हैं.

बिहार चुनाव नतीजे: विजयी दलों के साथ ज्ञानेश कुमार को मिल रही बधाई लोकतंत्र की दशा बताती है

बिहार के विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद सत्तारूढ़ गठबंधन की जीत के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त को इस तरह 'बधाइयां' दी जा रही हैं. ये रोष में दी जा रही हों, क्षोभ में या हताशा में, इनसे इतना तो पता चलता ही है कि बधाइयां देने वालों को इन नतीजों में कितना गहरा अविश्वास है. यह अविश्वास लोकतांत्रिक मूल्यहीनता बरतकर जनादेश को बरबस छीन लेने की उस 'परंपरा' की उपज है, जिसे भाजपा ने पिछले दशक भर में पोषित किया

जवाहरलाल नेहरू: जिस्म मिट जाने से इंसान नहीं मर जाते…

जन्मदिन विशेष: जोश मलीहाबादी ने लिखा था कि नेहरू की सियासत मौजूदा सियासत के बिल्कुल बरअक्स थी, इसलिए कहा जाता था कि वे अच्छे सियासतदां नहीं थे. मैं इसकी तस्दीक करता हूं. इसलिए कि आज के अच्छे सियासतदां के लिए यह एक लाजिमी शर्त है कि उसूलों की खिदमत और इंसानियत के एतबार से वह नाकाबिल-ए-बर्दाश्त हद तक बुरा आदमी हो.

राजा सुबह-सुबह ‘रात है’ कह दे तो मंत्री-संतरी क्यों उसकी हां में हां मिला देते हैं?

जिन राजाओं को प्रजापालन से ज्यादा प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार कर उसे सताने और धर्म, शील व सदाचार के सिर पर पाद-प्रहार के लिए जाना जाता है, एक समय उनको राजा बनने के लिए राजाधिराज, बादशाह या उनके प्रतिनिधि के बाएं पैर के अंगूठे से अपना राजतिलक कराना पड़ता था और वे खुशी-खुशी खुद को इसके लिए 'प्रस्तुत' कर देते थे. बिना इस सवाल के कि इस तरह किया गया राजतिलक राजतिलक है, अपमानतिलक?

सीवी रमन, जिन्होंने सिखाया कि ‘क्यों और कैसे’ को न भूलें, क्योंकि यही वैज्ञानिकता के आधार हैं

सीवी रमन की यादों को ताज़ा करने या उनके प्रति श्रद्धा निवेदित करने की दिशा में इससे बेहतर कोई और क़दम नहीं हो सकता कि देश को उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण की दिशा में ले जाने के बहुविध जतन किए जाएं, जिसकी अपेक्षा हमारे संविधान में की गई है.

क्या इंदिरा गांधी को बस तानाशाह की छवि में सीमित कर देना सही है

इंदिरा गांधी को आम तौर पर उनके बड़े फैसलों, करिश्मों और कीर्तिमानों आदि की रोशनी में 'आयरन लेडी' या कि तानाशाह की छवि को मजबूत करने वाले आईने में ही देखा जाता है, जबकि उन्हें उनके दैनंदिन जीवन के छोटे-छोटे फैसलों के आईने में देखना भी कुछ कम दिलचस्प नहीं है.

अक्टूबर: हस्तियों का महीना…

अक्टूबर का महीना ढेरों भारतीय विभूतियों या महापुरुषों की इस संसार में आवाजाही के सिलसिले से जुड़ा हुआ है. ऐसी सामूहिकता से कि जब भी यह महीना आता है, मन-मस्तिष्क में बरबस ऐसे भाव आने ही लगते हैं कि वे सब के सब एक साथ सामने आ खड़े हुए हैं. उनमें किसी के आगमन की बेला है तो कोई अलविदा कहने को आतुर है.

पत्रकारिता में संपादकों की दुनिया सत्ता के साथ ही बदल गई…

इस देश की पत्रकारिता में, वह अंग्रेजी की हो, हिंदी की या किसी अन्य भारतीय भाषा की, एक समय संपादक बहुत शक्तिशाली हुआ करते थे. अब वैसे संपादक या तो हैं ही नहीं या हैं तो अधिकांश बंगला, गाड़ी आदि की चाह में इतने अशक्त हो गए हैं कि उनके होने का इसके सिवा कोई अर्थ नहीं रह गया है कि उनके रहते उनके मालिकान को अलग से पीआरओ नहीं रखना पड़ता.

हमारे उजाले कब तक कुछ मुट्ठियों में कैद रहेंगे?

कोई तो बताए कि इस तरह अंधेरों को घना करते फिरने को अभिशप्त समाज अपने आम लोगों की दीपावली शुभ होने को लेकर आश्वस्त क्योंकर हो सकता है? खासकर तब, जब उसका सुखासीन हिस्सा अपने सुख व समृद्धि के लिए दूसरों के सारे सुख-चैन छीन लेने में कतई कोई बुराई नहीं देख रहा. इसके चलते गैरबराबरी और उसके जाए उत्पीड़न व शोषण हमारे आकांक्षा व प्रतीक्षा के द्वंद्वों का खात्मा ही नहीं होने दे रहे‌.

लखनऊ का फिरंगीमहल: इतिहास ऐसा कि ताज को ईर्ष्या हो… 

लखनऊ में फिरंगीमहल नाम की एक ऐतिहासिक इमारत भी है और मुहल्ला भी. लेकिन जानें क्यों, इस महल या मुहल्ले की दूसरे ऐतिहासिक महलों व मुहल्लों जैसी चर्चा नहीं होती, जबकि आज़ादी की लड़ाई में इनके योगदान का इतिहास इतना गौरवशाली है कि उसकी बाबत जानकर दुनिया के सात आश्चर्यों में शामिल आगरा के ताजमहल को भी ईर्ष्या होने लग जाए!

चिकित्सा जगत में साफ़ लिखावट को लेकर पर्याप्त जागरूकता और सतर्कता क्यों नहीं है?

हाल में पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में डॉक्टरों की लिखावट का मामला किसी मरीज़ ने नहीं उठाया. रेप, धोखाधड़ी के आरोपों से जुड़े एक मामले की सुनवाई में जज साहब ने इसका स्वत: संज्ञान-सा लिया, जब वे सरकारी डॉक्टर द्वारा लिखी पीड़िता की मेडिको-लीगल रिपोर्ट का एक शब्द भी नहीं समझ पाए. ये लापरवाही है या संवेदनहीनता?

चरथ भिक्खवे-2 : ‘बुद्ध की नदी’ के तट पर जीवन की तलाश

‘चरथ भिक्खवे’ का अर्थ है: बुद्ध जिस पथ पर गए, उस पर चलना. चरथ भिक्खवे-2, पांच अक्टूबर को रोहिन के मुहाने पर कविता पाठ से आरंभ होकर अगले दिन भारत में प्रवेश करेगी. आयोजक सदानंद शाही कहते हैं कि हमारा जीवन नदियों से जुड़ा हुआ है पर जैसे-जैसे यह जुड़ाव विच्छिन्न हुआ हमारे जीवन से नमी लुप्त होती गई है. यह यात्रा उस लुप्त नमी के पुनराविष्कार और बुद्ध की महाकरुणा के अवगाहन का प्रयास है.

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