फिराक़ गोरखपुरी लिखते हैं कि नज़ीर दुनिया के रंग में रंगे हुए महाकवि थे. वे दुनिया में और दुनिया उनमें रहती थी, जो उनकी कविताओं में हंसती-बोलती, जीती-जागती त्योहार मनाती नज़र आती है.
आज जब दुनिया में नाना प्रकार के खोट उजागर होने के बाद भूमंडलीकरण की ख़राब नीतियों पर पुनर्विचार किया जा रहा है, हमारे यहां उन्हीं को गले लगाए रखकर सौ-सौ जूते खाने और तमाशा देखने पर ज़ोर है.
आज चुनावों के विकास में बाधक होने का तर्क स्वीकार कर लिया गया तो क्या कल समूचे लोकतंत्र को ही विकास विरोधी ठहराने वाले आगे नहीं आ जाएंगे!
कश्मीर के हालात अब न सैनिकों के लिए अच्छे रह गए हैं, न वहां की जनता के लिए. दोनों के मन में एक-दूसरे के प्रति संदेह का पहाड़ खड़ाकर कर दिया गया है जो रास्ता छोड़ने को तैयार नहीं.
प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि यह किसानों, गरीबों व वंचितों का बजट है तो उन्हें याद दिलाना होगा कि उन्होंने पिछले बजट को ‘सबके सपनों का बजट’ बताया था.
कासगंज में जिन अल्पसंख्यकों ने तिरंगा फहराने के लिए सड़क पर कुर्सियां बिछा रखी थीं, वे अचानक वंदे मातरम् का विरोध और पाकिस्तान का समर्थन क्यों करने लगेंगे?
साल 1921 में गांधीजी ने फ़ैज़ाबाद में निकले जुलूस में देखा कि ख़िलाफ़त आंदोलन के अनुयायी हाथों में नंगी तलवारें लिए उनके स्वागत में खड़े हैं. जिसकी उन्होंने सार्वजनिक तौर पर आलोचना की थी.
पिछले कुछ समय में कई जघन्य अपराधों में बच्चों के शामिल होने की घटनाएं सामने आई हैं.
शुक्रवार 12 जनवरी को हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार दूधनाथ सिंह का निधन हो गया. जीवन और साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर उनसे हुई एक पुरानी बातचीत.
उत्तराखंड सरकार के कृषि मंत्री सुबोध उनियाल के ‘जनता दरबार’ मेें नोटबंदी व जीएसटी के कहर से पीड़ित एक ट्रांसपोर्ट व्यवसायी ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली.
उत्तर प्रदेश में विधायक सरकारी खजाने से गरीबों को कंबलों के साथ सरकारी स्कूलों के छात्रों को जूते-मोजे और स्वेटर भी बांट रहे हैं. मगर इस अदा से जैसे उनकी बड़ी अनुकंपा कि जनवरी में बांट दे रहे हैं वरना मार्च-अप्रैल में बांटते तो कोई क्या कर लेता?
क्या कारण है कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज नहीं बता पा रहीं कि वे और उनका मंत्रालय जाधव की मां व पत्नी को पाकिस्तान के मानवीय मुलाकात के झांसे से बचाने में क्यों विफल रहे?
जन्मदिन विशेष: जब कलावादी आलोचकों ने ‘उग्र’ की कहानियों को अश्लील, घासलेटी और कलाविहीन कहा, तब उनका जवाब था कि अगर सत्य को ज्यों का त्यों चित्रित कर देने में कोई कला हो सकती है तो मेरी इन कहानियों में भी कला है
जयंती विशेष: हिंदी के लोग अब आम तौर पर लेखक और पत्रकार पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी को न याद करते हैं, न ही उनकी पत्रिका ‘विशाल भारत’ को. यहां तक कि उनकी जयंती और पुण्यतिथि पर भी उन्हें याद नहीं किया जाता.
अशफ़ाक़ उल्ला ख़ां, रामप्रसाद बिस्मिल और रौशन सिंह के शहादत दिवस (19 दिसंबर) पर उनकी मांओं और परिवार के दुर्दशा की कहानी.