देश के विश्वविद्यालय ख़ासकर केंद्रीय विश्वविद्यालय एक प्रकार से केंद्र सरकार के ‘विस्तारित कार्यालय’ में तब्दील कर दिए गए हैं. कोई भी अकादमिक विभाग बिना प्रशासन की ‘छन्नी’ से गुजरे किसी भी प्रकार का आयोजन नहीं कर सकता.
यह विडंबना ही है कि मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले राम के नाम पर संविधान की मर्यादा का हनन हो रहा है और हिंदू इसमें उल्लास, उत्साह एवं उमंग से भाग ले रहे हैं तथा गर्व का अनुभव भी कर रहे हैं.
अयोध्या का मंदिर हिंदू जनता पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी तथा उनके सहयोगी संगठन के कसे हुए शिकंजे का मूर्त रूप है. इसमें होने जा रही प्राण-प्रतिष्ठा का निश्चय ही भक्ति, पवित्रता और पूजा से लेना-देना नहीं है.
यूजीसी के 'सेल्फी पॉइंट' के आदेश समेत उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए जारी होते विभिन्न निर्देशों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो लगता है कि ‘आज्ञापालक नागरिक’ तैयार करने का प्रयास ज़ोर-शोर से चल रहा है और इसके लिए विश्वविद्यालयों को प्रयोगशाला बनाया जा रहा है.
यदि कोई विश्वविद्यालय अपने शिक्षक के अकादमिक कार्य के साथ खड़ा नहीं हो सकता तो वह कितना भी विश्वस्तरीय होने का दावा करे, वह व्यर्थ ही है.
‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ को राजनीतिक एजेंडा कहना ज़्यादा बेहतर है. जहां इसके सरकारी आयोजन से जुड़ी प्रदर्शनी की सामग्री में विभाजन की त्रासदी में मुसलमानों से जुड़ा कोई दुखद पहलू प्रदर्शित नहीं किया गया है, वहीं आयोजक अतिथियों को 'अखंड भारत' के नक़्शे वाले स्मृति चिह्न भेंट करते दिखे.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा भाजपा ने पहले राम का नाम लेकर, उनकी जन्मभूमि को आधार बनाकर अपनी पकड़ मजबूत की, और फिर राजनीतिक सत्ता पाई. अब रामनवमी उसी सत्ता का शक्ति-प्रदर्शन मात्र बनकर रह गई है.
‘रामचरितमानस’ की जो आलोचना बिहार के शिक्षा मंत्री ने की है वह कोई नई नहीं और न ही उसमें किसी प्रकार की कोई ग़लती है. उन पर हमलावर होकर तथाकथित हिंदू समाज अपनी ही परंपरा और उदारता को अपमानित कर रहा है.
वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ‘गो-बारस’ के मौक़े पर पूजा के आयोजन में कर्मचारियों को सपरिवार उपस्थित रहने को कहा गया. आए दिन ऐसे आयोजन कई विश्वविद्यालयों के कैलेंडर का हिस्सा बनते जा रहे हैं और ऐसा करते हुए विश्वविद्यालय अपनी अवधारणा, सिद्धांत और कर्तव्य से बहुत दूर हो रहे हैं.
काशी विद्यापीठ द्वारा एक सोशल मीडिया पोस्ट को लेकर गेस्ट लेक्चरर पर की गई कार्रवाई किसी एक संस्था के किसी एक शिक्षक के ख़िलाफ़ उठाया गया क़दम नहीं है बल्कि आज के भारत में हो रही घटनाओं की एक कड़ी है. यह आरएसएस की गिरफ़्त में बिना सचेत हुए लगातार बीमार होते जा रहे हिंदू समाज की दयनीयता का प्रमाण है.
जो भारत अब तक बना था, जिसे हम यहां की प्रकृति और किताबों में पढ़ते थे ऐसा लगता है कि वह ‘आज़ादी के अमृत काल’ में विष के समुद्र में लगातार धकेला जा रहा है.
भारत में जिस दल की केंद्रीय स्तर पर सरकार है और जो ‘स्वयंसेवी संगठन’ वर्चस्व की स्थिति में है उसका दबाव अकादमिक कार्यक्रमों और लोगों के सामान्य वैचारिक निर्माण पर स्पष्ट है. इस प्रक्रिया में किसी शब्द के अर्थ को इतना संकुचित कर दिया जा रहा है कि उसकी अर्थवत्ता ही संदिग्ध हो जा रही है.
बजरंग दल को कृष्ण और गोपियों या राधा की रति-क्रीड़ा या किसी अन्य देवी-देवता के शृंगारिक प्रसंगों के चित्रण से परेशानी है तो वे भारत के उस महान साहित्य का क्या करेंगे जो ऐसे संदर्भों से भरा पड़ा है? वे कालिदास के ‘कुमारसंभवम्’ का क्या करेंगे जिसमें शिव-पार्वती की रति-क्रीड़ा विस्तार से वर्णित है. संस्कृत काव्यों के उन मंगलाचरणों का क्या करेंगे जिनमें देवी-देवताओं के शारीरिक प्रसंगों का उद्दाम व सूक्ष्म वर्णन है?
विश्वविद्यालय परिसर को ऐसा होना ही चाहिए जहां भय न हो, आत्मविश्वास हो, ज्ञान की मुक्ति हो और जहां विवेक की धारा कभी सूखने न पाए. तमाम सीमाओं के बावजूद भारतीय विश्वविद्यालय कुछ हद तक ऐसा माहौल बनाने में सफल हुए थे. पर पिछले पांच-सात वर्षों से कभी सुधार, तो कभी ‘देशभक्ति’ के नाम पर ‘विश्वविद्यालय के विचार’ का हनन लगातार जारी है.
विश्वविद्यालय में यह तर्क नहीं चल सकता कि चूंकि पैसा सरकार (जो असल में जनता का होता है) देती है, इसलिए विश्वविद्यालयों को सरकार की तरफ़दारी करनी ही होगी. बेहतर समाज के निर्माण के लिए ज़रूरी है कि विश्वविद्यालय की रोज़मर्रा के कामकाज में कम से कम सरकारी दख़ल हो.