कृष्णा सोबती की मृत्यु हुए छह बरस हो गए. उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनके घर को लेखकीय आवास में तब्दील कर दिया जाए. लेकिन हाउसिंग कॉलोनी की ज़िद की वजह से सोबती की वसीयत आज तक पूरी न हो सकी, और उनका बंद पड़ा घर देखभाल के अभाव में जर्जर हो रहा है.
हान कांग 'द वेजीटेरियन' में खाने की राजनीति पर कोई बात नहीं कर रही हैं, उनका विषय नायिका यंगहे का शाकाहारी हो जाने का निर्णय है, जो इस साधारण महिला को असाधारण बना देता है.
प्रसिद्ध रंगकर्मी, अभिनेता और सांस्कृतिक कर्मी एमके रैना से सांस्कृतिक परंपरा में प्रतिरोध, विशेषकर नाट्य और सांगीतिक परंपरा के इतिहास, अपनी गतिविधियों, अनुभवों और उनकी आज के वक़्त में उपयोगिता पर मुकेश कुलरिया से बातचीत.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जीने का देखने से बड़ा गहरा और अनिवार्य संबंध है. अगर दिखाई न दे तो जीवन, प्रकृति, घर-परिवार आदि का क्या अस्तित्व? बहुत सारी सचाई तो इसलिए सचाई है, हमारे लिए, कि हम उसे देख पाते हैं. पर यह भी सच है कि बहुत सारी सचाई हम अनदेखी करते हैं.
यह समय औसत के महिमामंडन का समय है. अधीरता को नई मूल्य-संहिता के केंद्र में लाकर नव-औपनिवेशिक सत्ता-प्रतिष्ठानों ने गंभीर एवं दार्शनिक लेखन के प्रति अरुचि का प्रसार किया है. रचनाकार के लिए ज़रूरी है अपने को पूर्वाग्रहों, वैचारिक हदबंदियों, भौतिक लिप्साओं और मानसिक संकीर्णताओं से मुक्त कर औदात्य की सतत साधना करना. 'रचनाकार का समय' में पढ़िए आलोचक रोहिणी अग्रवाल को.
वाणी प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने कहा, 'धर्मवीर भारती की रचनाओं ने हिंदी साहित्य की आत्मा को आकार दिया है. यह शताब्दी समारोह उनकी प्रतिभा का सम्मान करने और लेखकों और पाठकों की अगली पीढ़ी को प्रेरित करने का हमारा विनम्र प्रयास है.'
श्याम बेनेगल सिनेमा और कैमरे के माध्यम से बेनेगल ने जीवन को बड़ी शिद्दत से जीया. उन्होंने फिल्मों को बनाने का एक तय फॉर्मूला के विपरीत यथार्थवादी रास्ता चुना. इतना ही नहीं उन्होंने सिने ट्रेंड को बदला, जहां हाशिए का समाज सिनेमा के केंद्र में आया.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज्ञानेंद्र पांडेय की ‘मेन एट होम’ पुरुषों की घरों में अनुपस्थिति के बारे में है. ज्ञानेंद्र बताते हैं कि दक्षिण एशियाई घर-परिवार के इतिहास में मर्द-जाति की गै़र-हाज़िरी अब भी कायम है. बच्चे जनने और पालन-पोषण को लेकर समाज की आम धारणा के चलते गृहस्थी आज तक औरत और उसके बच्चों की दुनिया मानी जाती है.
पुस्तक अंश: ‘असहमति की आवाज़ें’ में रोमिला थापर ने भारत में असहमति और विरोध के अहिंसक स्वरूपों की बात की है. वे लिखती हैं कि विरोध की अभिव्यक्ति अलग-अलग संस्कृतियों और समाजों में अलग-अलग स्वरूप लेती रही है.
स्वामीनाथन के भीतर एक सर्जनात्मक दृष्टि थी. उनका मूल कर्म आलोचक-दृष्टि को बरतना नहीं, बल्कि सर्जनात्मक कर्म करना था. गीता कपूर को सर्जनात्मक दृष्टि की कोई दरकार या कोई ज़रूरत नहीं थी.
इक्कीसवीं सदी अल्पवयस्क अवस्था में ही शर्म से झेंपी सदी बन रही है. अब क्या करे कोई कवि? बेशर्म होकर झंडा फहराए संविधान की धज्जियां उड़ाने वालों का? या कसीदे लिखे बच्चों के हत्यारों के लिए? या युद्ध के सौदागरों के लिए विज्ञापन लिखे? 'रचनाकार का समय' में पढ़िए अनुज लुगुन को.
मिदनापुर ज़िले के कॉनटाई सबडिवीज़न के गांव में आज़ादी की लड़ाई के दौरान ब्रिटिश पुलिस के ख़िलाफ़ नागरिक इतनी दृढ़ता से खड़े हुए और 'पिछाबो नी' यानी 'पीछे नहीं हटेंगे' का नारा दिया कि गांव का नाम ही पीछाबोनी हो गया. बंगनामा की अठारहवीं क़िस्त.
जयंती विशेष: आशापूर्णा देवी बंकिम, टैगोर और शरत के बाद के दौर की पहली ऐसी बांग्ला साहित्यकार हैं, जिन्होंने मध्यवर्गीय बंगाली समाज में महिलाओं के हाशियाकरण पर बेबाकी से कलम चलाई. सात दशकों से ज्यादा के साहित्यिक जीवन में उनकी एक बड़ी उपलब्धि अपनी जड़ों के प्रति ईमानदार रहने और सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाने को माना जाता है.
पुस्तक अंश: डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने आजादी, समानता एवं बंधुत्व को राजनीतिक एवं सामाजिक लोकतंत्र की बुनियाद बताते हुए कहा कि 'बंधुत्व का मतलब सभी भारतीयों के मध्य आपसी भाईचारा है. यही एक सिद्धांत है, जो सामाजिक जीवन में एकता और एकात्मता लाता है. संयुक्त राज्य में जातीय समस्या नहीं है. भारत में जातियां हैं. ये जातियां राष्ट्रविरोधी हैं.'
बापसी सिधवा की रचनात्मकता हमें हमारे समाजों को समझने की एक दृष्टि तो देती ही है पर वह हमें हमारे इतिहासों पर भी प्रश्न उठाने के बिंदु देता है. सिधवा उन चंद साहित्यकारों में हैं, जिनकी पहचान के कई आयाम थे. इसलिए सिधवा का गुज़रना इस उपमहाद्वीप की साझी संस्कृति को याद करने का भी एक मौका भी है और साझी क्षति भी.