वेनिस बिनाले से भारतीय पवेलियन की अनुपस्थिति

कला-यात्रा: वेनिस में प्रतिष्ठित बिनाले के साठवें संस्करण की शुरुआत हो चुकी है. अफ़सोस यह है कि पूरा विश्व जब अपने सांस्कृतिक स्रोतों के संवर्धन पर ध्यान दे रहा है, भारत अपनी विशिष्ट उपलब्धि को रेखांकित करने में नाकामयाब रहा है.

हां के बेसुरे कीर्तन में नहीं की दरकार

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय नहीं कहने और करने का आशय है भारतीय सभ्यता, भारतीय परंपरा, भारतीय लोकतंत्र के अपनी प्रतिबद्धता का इसरार करना. जो इस समय नहीं कहने-करने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगा वह नैतिक चूक का चरित्र होगा. 

कला जीवन को घेरती है और स्वयं जीवन से घिरी होती है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारत या अन्यत्र भी सबसे अधिक नवाचार, सार्थक दुस्साहसिकता, कल्पनाशील जोखिम ललित कलाओं में है. सामग्री की विविधता, उसका विस्मयकारी उपयोग चकरा देने वाला है. इस विचार की इससे पुष्टि होती है कि किसी भी तरह की सामग्री से कला-कल्पना कला रच सकती है.

साहित्य का पाठ

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिसे कोई रचना पढ़ते हुए कोई और रचना, अपना कोई अनुभव, कोई भूली-बिसरी याद न आए वह कम पढ़ रहा है. पाठ किसी शून्य में नहीं होता और न ही शून्य में ले जाता है.

उदय शंकर भारतीय नृत्य के पारंपरिक रूपाकारों के साथ साहसिक शास्त्रीयता विकसित करना चाहते थे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: उदय शंकर का नृत्य कम से कम तीन विश्वासों से प्रेरित नृत्य था: शास्त्रीयता में विश्वास, आधुनिकता में विश्वास और आत्मविश्वास. जिन कलाकारों ने भारतीय नृत्य में पश्चिमी रुचि जगाई उनमें उदय शंकर का नाम पहली पंक्ति में आता है.

हम अधकचरी परंपरा और अधकचरी आधुनिकता के बीच फंसा भारत होते जा रहे हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: नेहरू युग में संस्कृति और राजनीति, सारे तनावों और मोहभंग के बावजूद, सहचर थे जबकि आज संस्कृति को राजनीति रौंदने, अपदस्थ करने में व्यस्त है. बहुलता, असहमति आदि के बारे में सांस्कृतिक निरक्षरता का प्रसार हो रहा है. व्यंग्य-विनोद-कटूक्ति-कॉमेडी पर लगातार आपत्ति की जा रही है.

इमरोज़ की याद में : यूं ही ख़ामोशी से मर जाया करती हैं सच्ची मोहब्बतें…

स्मृति शेष: चित्रकार इमरोज़ नहीं रहे. जिस ख़ामोशी से वे अमृता प्रीतम की ज़िंदगी में रहे, मोहब्बत इतनी ख़ामोश भी हो सकती है, इसे इमरोज़ को जान लेने के बाद ही जाना जा सकता है.

उम्मीद एक सामूहिक प्रोजेक्ट है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यह अभी कुछ बरस पहले अकल्पनीय था कि उदार और सम्यक दृष्टि और शक्तियां इतनी तेज़ी से हाशिये पर चली जाएंगी. यह क्यों-कैसे हुआ यह अलग से विचार की मांग करता है. इसके बावजूद अगर उम्मीद बची हुई है तो वह ज़्यादातर साहित्य और कलाओं जैसे सर्जनात्मक-बौद्धिक क्षेत्रों में ही.

बीएन गोस्वामी, जिन्होंने सारा जीवन भारतीय कला के विविध पक्षों को जानने-समझने में लगा दिया

स्मृति शेष: प्रख्यात कला-इतिहासकार और भारतीय कला-इतिहास के मर्मज्ञ बीएन गोस्वामी नहीं रहे. यह उन जैसे साधक विद्वान के लिए ही संभव था कि वह कला में मौन के महत्व को रेखांकित कर सके. 

हिंसा अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरी हेकड़ी दिखा रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बर और अमानवीय इजरायल गाज़ा में जो कर रहा है और जिस तरह से अनेक देश उसे चुप रहकर ऐसा करने दे रहे हैं, वे मनुष्यता और सभ्यता की विफलता के ताज़ा उदाहरण हैं.

युद्ध, नरसंहार और बर्बरता पर लेखक व अन्य सृजनधर्मी चुप या निष्पक्ष नहीं रह सकते

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: बर्बरता के लोकव्यापीकरण के इस युग में शक्तिशाली देश, जो मिनटों में युद्ध समाप्त करने की सैन्य और राजनयिक क्षमता रखते हैं, चुपचाप विभीषिका देख रहे हैं. सृजनधर्मियों के लिए यह बर्बरता और हिंसा के विरुद्ध आवाज़ उठाकर अपनी पक्षधरता सत्यापित करने का समय है.

बिहार जाति सर्वेक्षण: एक कलाकार जाति है जट

जाति परिचय: बिहार में हुए जाति आधारित सर्वे में उल्लिखित जातियों से परिचित होने के मक़सद से द वायर ने एक श्रृंखला शुरू की है. ग्यारहवां भाग जट जाति के बारे में है.

पिकासो और रोथको के कला संसार में विचरण

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिकासो की ऊर्जा और कल्पनाशीलता अथक और अपरंपार थी. फिर पिकासो से रोथको तक जाना बिल्कुल भिन्न कलासंसार में जाना है. उनके यहां कला गहन विचार, सतत चिंतन और बहुत ठहराव से उपजती है. वह कुछ गहरा और अप्रत्याशित देखती-दिखाती है पर ख़ुद को कुछ कहने से रोकती है.

अतीत में होना और व्यतीत न होना

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: साहित्य और कलाओं में, तत्वचिंतन और सौंदर्यदर्शन में, भाषा-विचार आदि अनेक क्षेत्रों में ‘अगले वक़्तों के लोग’ जो कर गए हैं उस तक हमारा पहुंचना असंभव है. हमने शायद उस अपार संपदा में क्षमता भर कुछ ज़रूर जोड़ा है, फिर भी उनकी ऊंचाइयों को छू पाना हमारे बस की बात नहीं रही है.

बाहरी भाषा-व्यवहार और संसदीय भाषा-व्यवहार के बीच भद्रता की दीवार दरक रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पिछले एकाध दशक में गाली का व्यवहार बहुत फैला और मान्य हुआ है. हम इसे अपने लोकतंत्र का गाली-समय भी कह सकते हैं.

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