टुकड़ा नागरिक संहिता: सृष्टि का उत्सव मनाता लीलावान गद्य

पुस्तक समीक्षा: उदयन वाजपेयी की 'टुकड़ा नागरिक संहिता' के निबंधों में बंधी-बंधाई लीक नहीं है. अच्छे निबंध का सबसे ज़रूरी गुण है विचारों की बढ़त, जो पढ़नेवाले के दिमाग़ में भी होती रहती है. कोई बात निबंध में जहां से शुरू हुई है वहीं ख़त्म नहीं होती, पाठक के मन में बढ़ती बदलती रहती है.

माटी राग: आज़ादी के अमृत काल में किसानों के नरक

पुस्तक समीक्षा: ‘माटी-राग’ उपन्यास में लेखक हरियश राय किसानों के साथ पूरी हमदर्दी के साथ खड़े हैं. वे सरकारी आंकड़ों और मीडिया के प्रचार-प्रसार से बचते हुए आंखों देखे भयावह यथार्थ को अपनी गहन पीड़ा के साथ रखते हैं.

‘भगत सिंह और पाश: अंधियारे का उजाला’: जनांदोलनों की विरासत का लेखा-जोखा

पुस्तक समीक्षा: कौशल किशोर की किताब 'भगत सिंह और पाश: अंधियारे का उजाला' इस बात का सिलसिलेवार दस्तावेज़ है कि इस देश के जन-आंदोलनों, संस्कृतिकर्मियों और रचनाकारों के पास भगत सिंह और पाश की विरासत है, जिन्होंने जनता की लड़ाई पूरी ताकत और ईमानदारी से लड़ी है.

‘राष्ट्र और नैतिकता’ भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन को समझने की नैतिक मार्गदर्शिका है

पुस्तक समीक्षा: राजीव भार्गव की ‘राष्ट्र और नैतिकता : नए भारत से उठते 100 सवाल ‘न केवल भारत के समकालीन नैतिक संकटों पर प्रकाश डालती है, बल्कि यह हर उस भारतीय के लिए एक महत्वपूर्ण पाठ है जो राष्ट्र के भविष्य को समझना और उसमें योगदान देना चाहता है.

कमलादेवी चट्टोपाध्याय की जीवनी आधुनिक स्त्रीवादी स्वर को समझने की राह दिखाती है

पुस्तक समीक्षा: अमेरिकी इतिहासकार निको स्लेट द्वारा कमलादेवी चट्टोपाध्याय की जीवनी 'द आर्ट ऑफ फ्रीडम' उनके उस योगदान को केंद्र में लाती है जिसे इतिहास ने विस्मृत कर दिया है.

मांगती है सईदा पिछले तीस बरसों का हिसाब

पुस्तक समीक्षा: आज की मूलतः पुरुष केंद्रित पत्रकारिता के बीच पत्रकार नेहा दीक्षित अपनी किताब 'द मैनी लाइव्स ऑफ सईदा एक्स' में एक मुस्लिम महिला और असंगठित मज़दूर की कहानी कहने का जोखिम उठाती हैं.

नए भारत की दीमक लगी शहतीरें… भारतीय गणराज्य के मौजूदा संकट को समझने का अनिवार्य पाठ है

पुस्तक समीक्षा: अर्थशास्त्री परकाला प्रभाकर की 'नए भारत की दीमक लगी शहतीरें: संकटग्रस्त गणराज्य पर आलेख' न केवल भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य का विश्लेषण करती है, बल्कि बताती है कि देश के लोकतांत्रिक भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए कौन से क़दम ज़रूरी हैं.

मनुष्यता के पक्ष में होने की एक अनिवार्य शर्त प्रेम के पक्ष में होना है

पुस्तक समीक्षा: मंगलेश डबराल की 'प्रतिनिधि कविताएं' पढ़ते हुए लगता है मानो वे कह रहे हों कि ईमानदारी और मनुष्यता ख़ुद से बची रहने वाली चीज़ें नहीं हैं. वे इसे मनुष्य की अपने साथ एक लगातार चलने वाली जद्दोजहद मानते हैं.

मैं क्यूं जाऊं अपने शहर: विश्वास के टूटने और बहाल होने की कहानी

पुस्तक समीक्षा: परमजीत सिंह की 'मैं क्यूं जाऊं अपने शहर: 1984 कुछ सवाल, कुछ जवाब' सिख विरोधी दंगों की कुछ अनसुलझी मानवीय और राजनीतिक गुत्थियों को नए सिरे से पेश करती है.

हमनवाई हो न हो, विश्वास ज़रूर हो 

पुस्तक समीक्षा: प्रेम में अधिकार और विश्वास का सवाल हमेशा से उपस्थित रहा है. सोशल मीडिया के दौर में ये भाव किस तरह परिवर्तित हुए हैं, तसनीम खान का उपन्यास इस नए बदलाव की कथा है.

क्या फांसी तक गोडसे का आरएसएस से जुड़ाव था?

पुस्तक समीक्षा: धीरेन्द्र के. झा की ‘गांधी का हत्यारा गोड़से' किताब से आरएसएस के उस दुरंगेपन की पहचान अब बहुत आसान हो गई है जिसके तहत कभी वह नाथूराम से पल्ला छुड़ाता है और कभी उसका ‘यशगान’ करने वालों को अपना नया 'आइकाॅन' बना लेता है.

‘कर्फ़्यू की रात’: हिंदुस्तान की रगों में बह रही सांप्रदायिकता का दस्तावेज़

पुस्तक समीक्षा: युवा कहानीकार शहादत के कहानी संग्रह ‘कर्फ़्यू की रात’ की कहानियां अपने परिवेश को न केवल दर्शाती हैं, बल्कि इसमें समय के साथ बदलते हिंदुस्तान की जटिलता, संघर्ष में पिसते नागरिकों की निराशा और जिजीविषा गहराई से दर्ज है.

क़िस्साग्राम: कथा की संभावना का विस्तार करता उपन्यास

पुस्तक समीक्षा: प्रभात रंजन का हालिया उपन्यास इंगित करता है कि नैतिकता का उत्स भले ही आंतरिक हो, इसके बीज पारंपरिक आख्यान, धार्मिक कथाओं और प्रेरक जीवनियों से बोए जाते हैं.

‘बाबासाहेब: माई लाइफ विद डॉ. आंबेडकर’ गंभीर छवि वाले जननेता के सबसे सौम्य रूप को दिखाती है

पुस्तक समीक्षा: डॉ. बीआर आंबेडकर की पत्नी डॉ. सविता आंबेडकर की मूल रूप से मराठी में लिखी गई आत्मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद 'बाबासाहेब माई लाइफ विद डॉ. आंबेडकर' के नाम से आया है. यह किताब बाबासाहेब को विशिष्ट विद्वेता या युगांतरकारी छवि से उतारकर एक सामान्य, गृहस्थ के तौर पर सामने रखती है.

दिल्ली विश्वविद्यालय: एक संभावनाशील प्रोफ़ेसर की बेदख़ली

पुस्तक समीक्षा: दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पिछले 14 सालों से एडहॉक कोटे से पढ़ा रहे और अब बेदख़ल कर दिए गए डॉ. लक्ष्मण यादव की हाल ही में प्रकाशित किताब ‘प्रोफ़ेसर की डायरी’ एडहॉक व्यवस्था की क्रूरता का पर्दाफ़ाश करती है. इन व्यवस्था ने ऐसा वर्ग विभाजन पैदा किया है, जहां संभावनाशील और मेहनतकश प्रोफ़ेसरों को शोषण की अंतहीन चक्की में झोंक दिया जाता है.

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