पुस्तक समीक्षा: उर्दू की प्रसिद्ध आलोचक अर्जुमंद आरा द्वारा किए गए सारा शगुफ़्ता की नज़्मों के संग्रह- ‘आंखें’ और ‘नींद का रंग’ के हिंदी लिप्यंतरण हाल में प्रकाशित हुए हैं. ये किताबें शायरी के संसार में उपेक्षा का शिकार रहीं सारा और अपनी नज़र से समाज को देखती-बरतती औरतों से दुनिया को रूबरू करवाने की कोशिश हैं.
पुस्तक समीक्षा: हिंदी की अमूमन लिखाइयों में किसी नए क्राफ्ट, नए शिल्प या बुनाई के खेल कम ही होते हैं. लेकिन इस किताब को सब बंधन को तोड़ देने के बाद ऐसे लिखा गया है जैसे कि मन सोचता है.
पुस्तक समीक्षा: गौरीनाथ के ‘कर्बला दर कर्बला’ की दुनिया से गुज़रने के बाद भी गुज़र जाना आसान नहीं है. 1989 के भागलपुर दंगों पर आधारित इस उपन्यास के सत्य को चीख़-ओ-पुकार की तरह सुनना और सहसा उससे भर जाना ऐसा ही है मानो किसी ने अपने समय का ‘मर्सिया’ तहरीर कर दिया हो.
पुस्तक समीक्षा: रमाशंकर सिंह की किताब ‘नदी पुत्र: उत्तर भारत में निषाद और नदी’ हाल ही में प्रकाशित होकर आई है. इस किताब में नदियों के साथ जुड़ीं निषाद समुदाय की स्मृतियों, ऐतिहासिक दावेदारियों, सामाजिक गतिशीलता, अपवंचना और बहिष्करण के तत्वों की पड़ताल की गई है.
पुस्तक समीक्षा: हुमरा क़ुरैशी की किताब ‘द इंडियन मुस्लिम्स- ग्राउंड रियालिटीज़ ऑफ लार्जेस्ट मायनॉरिटी इन इंडिया’ आजा़दी की 75वीं सालगिरह मनाने के इस दौर में ‘हिंदोस्तां के मुसलमान’ किस तरह अपने सबसे ‘स्याह दौर’ से गुजर रहे हैं, इसका ज़िक्र करते हुए यह आशंका ज़ाहिर करती है कि ‘अगर सांप्रदायिक विषवमन नियंत्रित नहीं किया गया तो आपसी विभाजन बदतर हो जाएगा.’
पुस्तक समीक्षा: जेएनयू स्टोरीज़- द फर्स्ट फिफ्टी ईयर्स इस संस्थान से ताल्लुक़ रखने वाले कई लेखकों के लघु निबंधों का संग्रह है, जिसे पढ़ने पर साफ पता चलेगा कि विश्वविद्यालय भी सांस लेते जीवंत संस्थान हैं और उनका भी गला घोंटा जा सकता है.
वीडियो: व्यंग्य के रूप में हिंदी साहित्य में हम हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल जैसे नामों को हम देखते आए हैं. वर्तमान में इन नामों की परंपरा को आगे सहेजने वालों में ज्ञान चतुर्वेदी जी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. 70 के दशक में धर्मयुग पत्रिका से अपनी व्यंग्य यात्रा शुरू करने वाले ज्ञान चतुर्वेदी ने अपनी रचनाओं के ज़रिये इस विश्वास को आधार भी दिया है. हाल ही में उनकी किताब नेपथ्य लीला आई है.
वीडियो: वरिष्ठ पत्रकार और लेखक उर्मिलेश के संस्मरणों का संकलन ‘ग़ाज़ीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल’ हाल ही में आया है. इसमें उन्होंने अपनी जीवन यात्रा बताते हुए देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों और मीडिया जैसे दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बेहद प्रतिष्ठित माने जाने वाले कुछ लोगों की जातिवादी प्रवृत्ति को रेखांकित किया है. इस किताब को लेकर उनसे विशाल जायसवाल की बातचीत.
साक्षात्कार: हाल ही में आए अपने संस्मरणों के संकलन ‘ग़ाज़ीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल’ में वरिष्ठ पत्रकार और लेखक उर्मिलेश ने अपने अनुभवों के माध्यम से देश के उच्च शैक्षणिक संस्थानों और मीडिया में बरते जाने वाले जातिवादी रवैये को रेखांकित किया है. इस किताब को लेकर उनसे बातचीत.
वीडियो: अक्सर मुसलमानों के हित की बात करने वाले हर व्यक्ति को कह दिया जाता है कि तुम भी पाकिस्तान चले जाओ और साथ में इन बचे-खुचे मुसलमानों को भी ले जाओ, क्योंकि पाकिस्तान इन्होंने ही बनवाया था. कुछ ऐसी ही बातें नई किताब ‘कॉन्टेस्टेड होमलैंड्स: पॉलीटिक्स ऑफ स्पेस एंड आइडेंटिटी’ कहती है. जैसे- मुस्लिम मोहल्लों को आज भी ‘मिनी पाकिस्तान’ समझा जाता है. इसकी लेखक नाज़िमा परवीन ने किस अनुभव के चलते ये बातें कहीं हैं. हमने इस वीडियो
वीडियो: कुछ ही समय पहले पत्रकार ग़ज़ाला वहाब की एक किताब आई है, ‘बॉर्न अ मुस्लिम- सम ट्रूथ्स अबाउट इस्लाम इन इंडिया’. इस सिलसिले में ग़ज़ाला से विशेष बातचीत.
पुस्तक समीक्षा: पढ़े-लिखे शहरियों और लेफ्ट-लिबरल तबकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर जो धारणा रही है वह यह है कि संघ बहुत ही पिछड़ा संगठन है. बद्री नारायण की किताब ‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व: हाउ द संघ इज़ रिशेपिंग इंडियन डेमोक्रेसी’ दिखाती है कि संघ ने इसके उलट बड़ी मेहनत से अपनी छवि तैयार की है.
पुस्तक समीक्षा: विश्लेषकों की निगाह में भारत अधिनायकवाद के स्याह गर्त में जाता दिख रहा है और विभाजक राजनीति के लगातार वैधता हासिल करने को लेकर चिंता की लकीरें बढ़ रही हैं. प्रख्यात शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता राम पुनियानी की नई किताब इस बहस में एक नया आयाम जोड़ती है.
पुस्तक समीक्षा: किसी यात्रा वृतांत को पढ़ने के बाद अगर उस जगह जाने की इच्छा न जगे, तो ऐसे वृतांत का बहुत अर्थ नहीं है. पत्रकार समीर अरशद खतलानी द्वारा अपनी एक लाहौर यात्रा पर लिखी गई किताब 'द अदर साइड ऑफ द डिवाइड' इस मायने पर खरी उतरती है.
पुस्तक समीक्षा: कुलदीप कुमार की कविताएं पिछले तीन दशकों में हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आती रही हैं, पत्रकार की हैसियत से वे साहित्य-संस्कृति की जानी-मानी शख्सियतों से बातचीत करते रहे हैं. ऐसे अदीब से यह उम्मीद रहती है कि अपनी मौलिक रचनाओं में वे नई अंतर्दृष्टि की तलाश करेंगे. हाल ही में प्रकाशित उनके संग्रह 'बिन जिया जीवन' में सादगी के साथ इस उम्मीद को पूरा करने की कोशिश है.