‘हमारा देश इतना महान है कि हैदर जैसी भारत-विरोधी फिल्म को भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाता है’

साक्षात्कार: सेंसर बोर्ड अध्यक्ष के रूप में पहलाज निहलानी का ढाई साल का कार्यकाल कई तरह के विवादों में रहा. उनसे बातचीत.

गुरुदत्त एक अनसुलझा क्रॉसवर्ड है, जिसमें कोई न कोई शब्द पूरा होने से रह ही जाता है

जन्मदिन विशेष: गुरुदत्त फिल्म इंडस्ट्री का एक ऐसा सूरज थे, जो बहुत कम वक़्त के लिए अपनी रौशनी लुटाकर बुझ गया पर सिल्वर स्क्रीन को कुछ यूं छू कर गया कि सब सुनहरा हो गया.

हिंदुस्तानी सिनेमा में महिला स्वर

सिनेमा निर्माण के इतने दशकों के बाद भी हिंदुस्तानी सिनेमा में महिला निर्देशकों की संख्या को उंगलियों पर गिना जा सकता है. सिनेमाई दुनिया में भी घोर लैंगिक असमानता है.

जो जंग की बात करे उसे बंदूक देकर मोर्चे पर भेज दो, जंग ख़त्म हो जाएगी: सलमान

युद्ध पर आधारित अपनी आने वाली फिल्म ‘ट्यूबलाइट’ की प्रेस वार्ता के दौरान सलमान ने कहा जंग में कोई अपना बेटा खोता है तो कोई अपना पिता.

अभिनेत्री रीमा लागू का निधन

फिल्मों में मां के रूप में निभाए गए उनके किरदारों के लिए जाना जाता है. फिल्म मैंने प्यार किया में सलमान ख़ान और वास्तव में संजय दत्त की मां का किरदार निभा चुकी थीं.

रीगल के बाद 56 साल पुराने शीला सिनेमा का भी पर्दा गिरा

फिल्म बाहुबली: द कनक्लूज़न के प्रदर्शन का अधिकार नहीं मिलने के बाद पहले से वित्तीय संकट झेल रहा पुरानी दिल्ली का ऐतिहासिक शीला सिनेमा ने भी अपना पर्दा गिरा दिया.

विनोद खन्ना: मुहब्बत अदावत वफ़ा बेरुखी, किराये के घर थे बदलते रहे

विनोद खन्ना के हिस्से में ज़्यादातर इल्ज़ाम ही आए पर जो ज़िंदगी उन्होंने गुज़ारी, फिल्मी दुनिया की चकाचौंध के बीच उसे चुन पाना बेहद मुश्किल होता है.

अक्षय को राष्ट्रीय पुरस्कार देने वाले जूरी अध्यक्ष बोले, दंगल सामाजिक मुद्दे पर बात नहीं करती

जूरी अध्यक्ष प्रियदर्शन ने कहा कि जब रमेश सिप्पी ने अमिताभ बच्चन को पुरस्कार दिया था तब किसी ने सवाल नहीं उठाया तो आज मुझ पर सवाल क्यों?

फिल्म इंडस्ट्री ने धमकी और ब्लैकमेलिंग के आगे झुकने की आदत बना ली है

आज ये फिल्मों और किताबों के बारे में है, कल ये पत्रकारिता या किसी और बारे में होगा. आज़ादी में हो रही इस दख़लअंदाज़ी के ख़िलाफ़ खड़ा होना अब ज़रूरी हो गया है.

भोजपुरी फिल्म फेस्टिवल : अपने ही जाल में उलझा भोजपुरी सिनेमा

बदलते दौर के भौतिक चमक-दमक को तो भोजपुरी सिनेमा खूब दिखाता है, पर सामाजिक -सांस्कृतिक मूल्यों की जड़ता से नहीं भिड़ता. वह एक बड़े विभ्रम का शिकार है.

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