अंतरराष्ट्रीयता का मेल हुए बिना राष्ट्रवाद एक संकरी ज़हनीयत का दूसरा नाम होगा जिसमें हम अपने दड़बों में बंद दूसरों को ईर्ष्या और प्रतियोगिता की भावना के साथ ही देखेंगे. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 34वीं और अंतिम क़िस्त.
अपूर्णता का एहसास मनुष्य के होने का सबूत है. समस्त प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य है जिसे अपने अधूरेपन का एहसास है. यह उसे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की प्रेरणा देता है.
दुनिया भर के हर देश और समाज को औरत को पहचानने में, उन्हें समझने, उनके साथ इंसानी रिश्ता क़ायम करने में में काफ़ी लंबा वक़्त लगा. उसकी वजह थी समाज और तंत्र की उसमें दिलचस्पी का अभाव. लगता है कि वह देखता है लेकिन असल में देखता नहीं. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 33वीं क़िस्त.
जैसे सभ्यता का दूसरा पहलू बर्बरता का है, वैसे ही जनतंत्र का दूसरा पहलू तानाशाही है. जनतंत्र की तानाशाही इसलिए भी ख़तरनाक है कि उसे खुद जनता लाती है. वह लोकप्रिय मत के सहारे सत्ता हासिल करती है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 32वीं क़िस्त.
जनतंत्र तरलता और निरंतर गतिशीलता से परिभाषित होता है. न तो व्यक्ति कभी अंतिम रूप से पूर्ण होता है, न कोई समाज. लेकिन अपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि आप अपने साथ कुछ करते ही नहीं, ख़ुद को पूर्णतर करने का प्रयास लगातार चलता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 31वीं क़िस्त.
जनतंत्र के नाम पर अब कोई भी पक्ष लिया जा सकता है. इसका एक कारण यह भी है कि अब किसी चीज़ के कोई मायने नहीं: न मुक्ति, न समानता, न धर्मनिरपेक्षता, न पूंजी, न मज़दूर: सारे शब्द और अवधारणाएं व्यर्थ हो चुके हैं. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 30वीं क़िस्त.
भारतीय जनतंत्र का बुनियादी सिद्धांत धर्मनिरपेक्षता है. लेकिन आरएसएस का लक्ष्य इसके ठीक ख़िलाफ़ हिंदू राष्ट्र की स्थापना है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 29वीं क़िस्त.
नक्सलवादी अपनी हिंसा को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि उनके पास ही वैज्ञानिक विचार और इतिहास की चाभी है. उनका विचार ही पहला और अंतिम विचार है और उसे जो चुनौती देगा, उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं. यह संसदीय जनतंत्र के विचार के ठीक उलट है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 28वीं क़िस्त.
आम तौर पर आपातकाल को भारतीय जनतंत्र के इतिहास में बड़ा व्यवधान माना जाता है. पर उसके पहले हुए उस आंदोलन के बारे में इस दृष्टि से चर्चा नहीं होती है कि वह जनतांत्रिक आंदोलन था या ख़ुद जनतंत्र को जनतांत्रिक तरीक़े से व्यर्थ कर देने का उपक्रम. कविता में जनतंत्र स्तंभ की सत्ताईसवीं क़िस्त.
जनतंत्र बिना राज्य के मूर्त नहीं होता. वह राज्य का गठन करता है और फिर राज्य सबसे पहले उस जन को सुरक्षित करने के नाम पर अपने अधीन कर लेता है. पर अपने इर्द गिर्द दीवार उठाकर व्यक्ति सुरक्षित होता है या अकेला? कविता में जनतंत्र स्तंभ की छब्बीसवीं क़िस्त.
साधारण लोग सहज रूप से साहसी होते हैं. मज़दूर अपने हक़ के लिए उठ खड़े होते हैं, किसान मोर्चे निकालते हैं, आदिवासी निहत्थे हथियारबंद राज्य के सामने खड़े हो जाते हैं, लेकिन जो भाषा का सजग अभ्यास करने का दावा करते हैं, उनका गला रुंध जाता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की पच्चीसवीं क़िस्त.
जनता और राज्य के बीच का रिश्ता उन संस्थाओं के ज़रिये तय होता है जो उसे उपेक्षा और ज़्यादातर बार तिरस्कार की निगाह से देखती हैं. इस तंत्र की पहचान जन को करवाना कार्यकर्ता का काम है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की चौबीसवीं क़िस्त.
नेहरू का कहना था कि यह अच्छी बात है कि भारत की जनता को यक़ीन है कि वह सरकार बदल सकती है. उन पर सवाल किया जा सकता है और किया जाना चाहिए. कविता में जनतंत्र स्तंभ की तेईसवीं क़िस्त.
विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी शिक्षा अगर कोई है तो वह है दूसरों से हमदर्दी. दूसरे यानी वे जिनसे मनुष्यत्व के अलावा हमारा और कुछ नहीं मिलता: न जेंडर, न धर्म, न भाषा, न राष्ट्रीयता. कविता में जनतंत्र स्तंभ की बाइसवीं क़िस्त.
‘जातिविहीनता’ की सुविधा किसे है कि वह अपनी जाति की पहचान की मुखरता के बिना भी जीवन के हर मरहले पार करता जाए? किसे इसकी इजाज़त नहीं है? कविता में जनतंत्र स्तंभ की इक्कीसवीं क़िस्त.