मुक्तिबोध स्मरण: ख़ुद को लगातार बदलने की कोशिश स्वतंत्रता का उद्गम है

मार्क्सवादी मुक्तिबोध के लिए आत्म-संशोधन हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है. ज़ाहिर है, यह संशोधन सबके बस की बात नहीं और जो इंसान इससे गुजरता है, वह मामूली नहीं.

बिना अनुभवों की साझेदारी के जनतांत्रिकता मुमकिन नहीं

अंतरराष्ट्रीयता का मेल हुए बिना राष्ट्रवाद एक संकरी ज़हनीयत का दूसरा नाम होगा जिसमें हम अपने दड़बों में बंद दूसरों को ईर्ष्या और प्रतियोगिता की भावना के साथ ही देखेंगे. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 34वीं और अंतिम क़िस्त.

मुक्तिबोध के आईने से: जनतंत्र का पहला और आख़िरी सवाल

अपूर्णता का एहसास मनुष्य के होने का सबूत है. समस्त प्राणी जगत में एकमात्र मनुष्य है जिसे अपने अधूरेपन का एहसास है. यह उसे अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने की प्रेरणा देता है.

मुक्तिबोध की उपस्थिति के तीन क्षण

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध मनुष्य के विरुद्ध हो रहे विराट् षड्यंत्र के शिकार के रूप में ही नहीं लिखते, बल्कि वे उस षड्यंत्र में अपनी हिस्सेदारी की भी खोज कर उसे बेझिझक ज़ाहिर करते हैं. इसीलिए उनकी कविता निरा तटस्थ बखान नहीं, बल्कि निजी प्रामाणिकता की कविता है.

यामिनी कृष्णमूर्ति: लय-लालित्य-लावण्य की त्रिमूर्ति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: यामिनी कृष्णमूर्ति देह और नृत्य की ज्यामिति को बहुत संतुलित ढंग और अचूक संयम से व्यक्त व अन्वेषित करती थीं. नर्तकी और नृत्य इस क़दर तदात्म हो जाते थे कि उनको अलगाकर देखना या सराहना संभव नहीं होता था.

अधूरेपन का एहसास जनतांत्रिकता की बुनियाद है

जनतंत्र तरलता और निरंतर गतिशीलता से परिभाषित होता है. न तो व्यक्ति कभी अंतिम रूप से पूर्ण होता है, न कोई समाज. लेकिन अपूर्णता का अर्थ यह नहीं कि आप अपने साथ कुछ करते ही नहीं, ख़ुद को पूर्णतर करने का प्रयास लगातार चलता है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की 31वीं क़िस्त.

पूंजीवादी मानसिकता में स्वार्थ एक परम मूल्य बन गया है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: स्वार्थी सामुदायिकता का परिणाम यह हुआ है कि बुद्धि और ज्ञान, सृजन और विचार की हमारे समय, समाज और सामाजिक जीवन में उपस्थिति और हस्तक्षेप घट गए हैं. वे सभी मंच सिकुड़ते जा रहे हैं जहां ऐसी उपस्थिति, ऐसा हस्तक्षेप संभव और आवश्यक हो पाता.

मुक्तिबोध: ज़माने के चेहरे पर… ग़रीबों की छातियों की ख़ाक है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध ने आज से लगभग छह दशक पहले जो भारतीय यथार्थ अपनी कविता में विन्यस्त किया था, वह अपने ब्यौरों तक में आज का यथार्थ लगता है.

जीवन के ज़रूरी मुद्दों को लेकर अप्रासंगिक होती बहसें

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ग़रीबी, बेरोज़गारी, कुपोषण, शिक्षा का लगातार गिरता स्तर, बढ़ती विषमता, रोज़-ब-रोज़ बढ़ाई जा रही हिंसा-घृणा, असह्य हो रही महंगाई आदि मुद्दों पर बहस ‘सबका साथ सबका विकास’ जैसे जुमले का खोखलापन उजागर कर देगी, इसलिए उन्हें बहस से बाहर रखना सत्ता की सुनियोजित रणनीति है.

दिनकर: कोप से आकुल जनता का कवि

पिछले पांच-छह सालों में दिनकर का कीर्तन वैसे लोगों ने किया है, जिन्हें शायद वे अपनी चौखट न लांघने देते. उनकी ओजस्विता से इस भ्रम में नहीं पड़ जाना चाहिए कि वे हुंकारवादी राष्ट्रवाद के प्रवक्ता थे. वे राष्ट्रवादी थे, लेकिन ऐसा राष्ट्रवादी जो अपने राष्ट्र को नित नया हासिल करता था और कृतज्ञ होता था.

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना: मैं साधारण हूं और साधारण ही रहना चाहता हूं, आतंक बनकर छाना नहीं चाहता

जिस तरह केन नदी केदारनाथ अग्रवाल के संसार में बहती दिखती है ठीक वैसे ही कुआनो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के संसार में बह रही है. हम सभी के संसार में कोई न कोई भुला दी गई नदी बह रही है. सर्वेश्वर बस इसलिए अलग थे कि वह उस नदी और उसके पास लगने वाले फुटहिया बाज़ार को कभी भूले नहीं. वहां मुर्दा जलते और अधजले रह जाते. धोबी कपड़े धोते. औरतें छुपकर सिगरेट पीतीं.

मुक्तिबोध: उम्र भर जी के भी न जीने का अंदाज़ आया

हरिशंकर परसाई ने मुक्तिबोध को याद करते हुए लिखा कि जैसे ज़िंदगी में मुक्तिबोध ने किसी से लाभ के लिए समझौता नहीं किया, वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे.

अशोक वाजपेयी भाजपा सरकारों के आगे अपने हाथ पसारें, यह उन्हें शोभा नहीं देता

जवाहर कला केंद्र, जयपुर में होने वाले मुक्तिबोध समारोह के स्थगित होने से उपजे विवाद पर मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष राजेंद्र शर्मा का पक्ष.

भागीदारी और बहिष्कार को लेकर कोई एक नियम क्यों नहीं बना देते?

बहस-मुबा​हिसा: मुक्तिबोध जन्मशती वर्ष पर आयोजित एक कार्यक्रम का प्रगतिशील लेखक संघ ने बहिष्कार किया और कार्यक्रम रद्द हो गया. इस पर सवाल उठा रहे हैं लेखक अशोक कुमार पांडेय.