आम तौर पर आपातकाल को भारतीय जनतंत्र के इतिहास में बड़ा व्यवधान माना जाता है. पर उसके पहले हुए उस आंदोलन के बारे में इस दृष्टि से चर्चा नहीं होती है कि वह जनतांत्रिक आंदोलन था या ख़ुद जनतंत्र को जनतांत्रिक तरीक़े से व्यर्थ कर देने का उपक्रम. कविता में जनतंत्र स्तंभ की सत्ताईसवीं क़िस्त.
भारतीय जनतंत्र एक वादा था और हिंदू-मुसलमान भाईचारा उसकी बुनियाद. लेकिन आज मुसलमान ख़ुद को बराबरी का नागरिक नहीं मान पा रहा है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की उन्नीसवीं क़िस्त.
कौन नागरिकता के दायरे के केंद्र में और कौन हमेशा परिधि पर लटके रहने को अभिशप्त है? यह सवाल आज हर भाषा का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न हो उठा है. कविता में जनतंत्र स्तंभ की पंद्रहवीं क़िस्त.
प्रायः समीक्षकों ने कुंवर नारायण को ऐसा कवि सिद्ध करना चाहा है जिनकी कविताएं बौद्धिकता और अतिवैयक्तिकता के अलावा और कुछ नहीं हैं. शमशेर जैसे कवि को भी उनकी कविताओं में ‘रस’ की कमी लगी. पर यह एकांगी दृष्टि कवि की बहुआयामी रचनाशीलता को कमतर कर के देखने की कवायद है.
जनतंत्र में जनता और नेता के बीच एक रिश्ता है. नेता और दल जनता को बनाते और तोड़ते हैं. लेकिन कवि का जनतंत्र के प्रति दायित्व यही है कि लोकप्रिय से ख़ुद को अलग करना. कविता में जनतंत्र की नवीं क़िस्त.
राजनीतिक दल अक्सर दूसरे दलों पर वोट बैंक यानी किसी ख़ास समुदाय की राजनीति करने का आरोप लगाते हैं. लेकिन वे भूल जाते हैं कि यह इल्ज़ाम लगाते वक्त वे उस जनता से रिश्ता तोड़ देते हैं जिसे वे अपने प्रतिद्वंद्वी का वोट बैंक कहकर लांछित कर रहे हैं.
कविता और जनतंत्र पर इस स्तंभ की आठवीं क़िस्त.
मौन उस वक़्त भाषा का सबसे बड़ा गुण हो जाता है जब सबसे अभ्यर्थना और जय-जयकार की मांग हो रही हो. जब सारे हाथ उठे हों, तो अपना हाथ बांधे रख सकना भी एक अभिव्यक्ति है. हिंदी कविता और जनतंत्र पर इस स्तंभ की सातवीं क़िस्त.
डेमॉगॉग लोगों के भीतर छिपी अश्लीलताओं को उत्तेजित करता है, समाज में विभाजन पैदा करता है और जो अंतर लोगों में है, उनका इस्तेमाल कर उनके बीच खाई खोदता है, वह एक के हित को दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा करता है, ख़ुद को अपने लोगों के रक्षक के तौर पर पेश करता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: पूर्व सिविल सेवकों के 'संवैधानिक आचरण समूह' ने सांप्रदायिक घृणा, हिंसा, चुनाव और मतदान, मौलिक अधिकारों समेत विभिन्न मुद्दों को लेकर पत्र लिखे हैं. किताब के रूप में उन पत्रों का संचयन इस डराऊ-धमकाऊ समय में निर्भय, जागरूक साहस और असहमति का दस्तावेज़ है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: मुक्तिबोध साहित्य और जीवन संबंधी अपने विचार और स्थापनाएं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में रसे-बसे रहकर ही व्यक्त और विकसित करते थे. ऐसे रोज़मर्रा के जीवन के कितने ही चित्र, प्रसंग और छवियां उनकी कविताओं और विचारों में गहरे अंकित हैं.
इस 22 फरवरी को चित्रकार सैयद हैदर रज़ा 102 बरस के हुए होते. विदेश में बसा एक कलाकार अपनी कला में धीरे-धीरे अपने छूट गए देश को कैसे पुनरायत्त करता है, इसका रज़ा एक बेहद प्रेरक उदाहरण हैं. उन्होंने, विसंगति-बेचैनी-तनाव से फ्रांस में जूझते हुए जीवन और कला में शिथिल पड़ गए संतुलन, संगति और शांति को खोजने की कोशिश की.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: इस समय भारत या अन्यत्र भी सबसे अधिक नवाचार, सार्थक दुस्साहसिकता, कल्पनाशील जोखिम ललित कलाओं में है. सामग्री की विविधता, उसका विस्मयकारी उपयोग चकरा देने वाला है. इस विचार की इससे पुष्टि होती है कि किसी भी तरह की सामग्री से कला-कल्पना कला रच सकती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: जिसे कोई रचना पढ़ते हुए कोई और रचना, अपना कोई अनुभव, कोई भूली-बिसरी याद न आए वह कम पढ़ रहा है. पाठ किसी शून्य में नहीं होता और न ही शून्य में ले जाता है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: राम की महिमा है कि उनकी स्तुति में शामिल होकर हत्यारे-लुटेरे-जघन्य अपराधी अपने पाप धो लेंगे और राम-धवल होकर अपना अपराधिक जीवन जारी रखेंगे. राम की महिमा है कि उन्होंने इतना लंबा वनवास सहा, अनेक कष्ट उठाए जो यह तमाशा, अमर्यादित आचरण भी झेल लेंगे.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वर्ण भेद की सामाजिक व्यवस्था का इतनी सदियों से चला आना इस बात का सबूत है कि उसमें धर्म निस्संदेह और निस्संकोच लिप्त रहा है.