कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: दिल्ली के एक संग्रहालय में कलाकार गुलाम मोहम्मद शेख़ की प्रदर्शनी के लिए राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, दिल्ली और भारत भवन, भोपाल ने उनकी कलाकृतियां नहीं दीं. इन दोनों ही ने रज़ा की शती पर कुछ भी करने से इनकार किया था.
प्रचण्ड प्रवीर की यह कहानी आयरिश लेखक टॉमस मूर के प्रसिद्ध काव्य ‘लाला रूख’ (1817) और उस पर बनी हिन्दी फिल्म ‘लाला-रुख़’ (1958) के संदर्भ में लिखी गई है. प्रसिद्ध गायक तलत महमूद और अभिनेत्री श्यामा की मुख्य भूमिकाओं में अभिनीत यह फिल्म टॉमस मूर की कथा को कुछ बदलती है. प्रवीर की कहानी इस कथा में एक नया मोड़ जोडती है.
अगर मुझे होती हुई या हो चुकी घटना के विवरण को लिखना हो, तो मैं गद्य का सहारा लेती हूं, लेकिन उस घटना से मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, उसे मैंने कैसे देखा, यह ज़ाहिर करना हो, तो मैं कविता का सहारा लेती हूं. 'रचनाकार का समय' की इस क़िस्त में पढ़ें लवली गोस्वामी का आत्म-कथ्य.
यह समय औसत के महिमामंडन का समय है. अधीरता को नई मूल्य-संहिता के केंद्र में लाकर नव-औपनिवेशिक सत्ता-प्रतिष्ठानों ने गंभीर एवं दार्शनिक लेखन के प्रति अरुचि का प्रसार किया है. रचनाकार के लिए ज़रूरी है अपने को पूर्वाग्रहों, वैचारिक हदबंदियों, भौतिक लिप्साओं और मानसिक संकीर्णताओं से मुक्त कर औदात्य की सतत साधना करना. 'रचनाकार का समय' में पढ़िए आलोचक रोहिणी अग्रवाल को.
वाणी प्रकाशन समूह के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी ने कहा, 'धर्मवीर भारती की रचनाओं ने हिंदी साहित्य की आत्मा को आकार दिया है. यह शताब्दी समारोह उनकी प्रतिभा का सम्मान करने और लेखकों और पाठकों की अगली पीढ़ी को प्रेरित करने का हमारा विनम्र प्रयास है.'
इक्कीसवीं सदी अल्पवयस्क अवस्था में ही शर्म से झेंपी सदी बन रही है. अब क्या करे कोई कवि? बेशर्म होकर झंडा फहराए संविधान की धज्जियां उड़ाने वालों का? या कसीदे लिखे बच्चों के हत्यारों के लिए? या युद्ध के सौदागरों के लिए विज्ञापन लिखे? 'रचनाकार का समय' में पढ़िए अनुज लुगुन को.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: लिखना पर्याप्त होने, सफल और सार्थक होने के भ्रम को ध्वस्त करता है और मनुष्य होने की अनिवार्य ट्रैजडी के रू-ब-रू खड़ा करता है. हम आधे-अधूरे हैं यह साहित्य के ट्रैजिक उजाले में हम कुछ साफ़ देख पाते हैं.
किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह पत्तों को पूरी तरह से झरते देख सके. जो झरते हुए को नहीं देख सकता, वह उगते हुए को भी नहीं देख सकता. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की चौथी क़िस्त.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है.
बड़े लेखक वे हैं, जो समय से पहले घटनाओं की आहट सुन लेते हैं. जो बीत गया उस पर लिखना दृष्टिकोण है, लेकिन आगामी दौर को लिखना वक़्त को थाम लेना है. भविष्य की संभावना को दर्ज करना ज्यादा महत्वपूर्ण है. क्योंकि कई बार आज को दर्ज करना रचनाओं को कमज़ोर कर देता है. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की तीसरी क़िस्त.
यह लेखक के लिए हताश करने वाला समय है, मुश्किल समय है. सच लिखना शायद इतना जोखिम भरा कभी नहीं था जितना अब है. सच को पहचानना भी लगातार मुश्किल होता गया है.
इस सप्ताह से हम एक नई श्रृंखला शुरू कर रहे हैं जिसके तहत रचनाकार समय के साथ अपने संवाद को दर्ज करते हैं. पहली क़िस्त में पढ़िए प्रकृति करगेती का आत्म-वक्तव्य: त्रिकाल जब एक संधि पर आकर ठहर जाता है.
पुण्यतिथि विशेष: कुंवर नारायण का जन्म अयोध्या के उस हिस्से में हुआ था, जिसे तब फ़ैज़ाबाद कहा जाता था. उनके बारे में कहा जाता है कि वे अनुपस्थित रहकर हमारे बीच ज्यादा उपस्थित रहेंगे, पर अपनी जन्मभूमि में उनकी किंचित भी ‘उपस्थिति’ नहीं दिखाई देती.
मार्क्सवादी मुक्तिबोध के लिए आत्म-संशोधन हमेशा चलने वाली प्रक्रिया है. ज़ाहिर है, यह संशोधन सबके बस की बात नहीं और जो इंसान इससे गुजरता है, वह मामूली नहीं.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: वेद हमारे प्रथम काव्यग्रंथ हैं. ‘स्वस्ति’ शीर्षक से रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत सेतु प्रकाशन से प्रकाशित ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 112 सूक्तों का कवि-विद्वान मुकुंद लाठ द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद इसका प्रमाण है.