कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: अरुंधति सुब्रमण्यम की किताब ‘वाइल्ड वीमेन’ के परिप्रेक्ष्य में यह जानना बहुत आश्वस्तिकर है कि भारत में पहले भी स्त्री बोलती रही है, आवेग, समझ, निर्भीकता और साहस से.
जन्मदिवस विशेष: साहित्य में स्त्री की उपस्थिति एक विचारणीय बात है. जिस प्रकार से कला-संस्कृति-समाज सब पुरुषों द्वारा परिभाषित और व्याख्यायित रहे हैं, ऐसे में स्त्री और उसकी भूमिका को भी प्राय: पुरुषों ने परिभाषित किया है. इसीलिए जब स्त्री और उसके इर्द-गिर्द निर्मित संसार को एक स्त्री अभिव्यक्त करती है तो एक अलग दृष्टि-एक अलग पाठ की निर्मिति होती है.
आज की संवेदनशीलता में प्रेमचंद के साहित्य में वर्णित स्त्रियां निश्चित रूप से परंपरा या पितृसत्ता के हाथों अपने अस्तित्व को मिटाती हुई नज़र आएंगी, पर उनके कथ्य को ऐतिहासिक गतिशीलता में रखकर देखें, तो नज़र आता है कि ये स्त्रियां अपने समय की परिधि, अपनी भूमिका को विस्तृत करती हैं, ऐसे समय में जब ये परिधियां अत्यंत संकरी थीं.
महिला दिवस विशेष: साहित्य में स्त्री दृष्टि निजी मुक्ति का नहीं बल्कि सामूहिक मुक्ति का आख्यान रचती है, इसीलिए ज़्यादा समावेशी है और अपने वृत्त में पूरी मानवता को समेट लेती है.
कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिन्दी अंचल की बढ़ती धर्मांधता, सांप्रदायिकता और हिंसा की मानसिकता आदि का एक कारण इस अंचल की मातृभाषा और कलाओं से ख़ुद को वंचित रहने की वृत्ति है. स्वयं को कला से दूर कर हम असभ्य राजनीति, असभ्य माहौल और असभ्य सार्वजनिक जीवन में रहने को अभिशप्त हैं.
वीडियो: यूं तो इस्मत चुग़ताई को उर्दू साहित्यकार माना जाता है, लेकिन उनका पाठक और प्रशंसक वर्ग हिंदी में भी उतना ही बड़ा है. उर्दू के जिन चार प्रगतिशील साहित्यकारों में उनका नाम शामिल है, उन्होंने समूचे भारतीय साहित्य को एक नई दिशा देने में अहम भूमिका निभाई. उनकी याद के बहाने स्त्री मन को टटोलने की कोशिश.
पुस्तक समीक्षा: उर्दू की प्रसिद्ध आलोचक अर्जुमंद आरा द्वारा किए गए सारा शगुफ़्ता की नज़्मों के संग्रह- ‘आंखें’ और ‘नींद का रंग’ के हिंदी लिप्यंतरण हाल में प्रकाशित हुए हैं. ये किताबें शायरी के संसार में उपेक्षा का शिकार रहीं सारा और अपनी नज़र से समाज को देखती-बरतती औरतों से दुनिया को रूबरू करवाने की कोशिश हैं.
इस्मत कहा करती थीं, 'मैं रशीद जहां के किसी भी बात को बेझिझक, खुले अंदाज़ में बोलने की नकल करना चाहती थी. वो कहती थीं कि तुम जैसा भी अनुभव करो, उसके लिए शर्मिंदगी महसूस करने की ज़रूरत नहीं है, और उस अनुभव को ज़ाहिर करने में तो और भी नहीं है क्योंकि हमारे दिल हमारे होंठों से ज़्यादा पाक़ हैं...'
उर्दू साहित्य में महिलाओं की आत्मकथाओं के बारे में बता रही हैं यासमीन रशीदी.