रचनाकार का समय: ‘जात से कायनात तक, कहानी के देश में प्रवासी हूं मैं’

रचनाकार को अक्सर यह मुगालता होता है कि वह अपने समय को दर्ज कर रहा है, और दर्ज भी ऐसे कि गोया अहसान कर रहा है. और गोया ऐसे भी कि सिर्फ वही कर रहा है, अगर वह नहीं करेगा तो समय दर्ज हुए बिना ही रह जाएगा. इस चमकीले मुहावरे से खुद को बचा लेना चाहता हूं कि मैं अपने समय को दर्ज करने के महान काम में लगा हुआ हूं.

रचनाकार का समय: ‘एक साथ कई काल दर्ज होते हैं’

किसी के पास भी इतना समय नहीं है कि वह पत्तों को पूरी तरह से झरते देख सके. जो झरते हुए को नहीं देख सकता, वह उगते हुए को भी नहीं देख सकता. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की चौथी क़िस्त.

रचनाकार का समय: ‘बड़ा लेखक वह जिसने भविष्य को पढ़ लिया’

बड़े लेखक वे हैं, जो समय से पहले घटनाओं की आहट सुन लेते हैं. जो बीत गया उस पर लिखना दृष्टिकोण है, लेकिन आगामी दौर को लिखना वक़्त को थाम लेना है. भविष्य की संभावना को दर्ज करना ज्यादा महत्वपूर्ण है. क्योंकि कई बार आज को दर्ज करना रचनाओं को कमज़ोर कर देता है. 'रचनाकार का समय' स्तंभ की तीसरी क़िस्त.

रचनाकार का समय: मैं ख़ुद को बचाने के लिए लिखता हूं

यह लेखक के लिए हताश करने वाला समय है, मुश्किल समय है. सच लिखना शायद इतना जोखिम भरा कभी नहीं था जितना अब है. सच को पहचानना भी लगातार मुश्किल होता गया है.

रचनाकार का समय: मैं ‘टाइम-ट्रेवल’ करने के लिए लिखती और पढ़ती हूं   

इस सप्ताह से हम एक नई श्रृंखला शुरू कर रहे हैं जिसके तहत रचनाकार समय के साथ अपने संवाद को दर्ज करते हैं. पहली क़िस्त में पढ़िए प्रकृति करगेती का आत्म-वक्तव्य: त्रिकाल जब एक संधि पर आकर ठहर जाता है.

रामचंद्र गुहा को लेखक किसने बनाया?

वीडियो: इतिहासकार रामचंद्र गुहा की हालिया किताब 'द कुकिंग ऑफ बुक्स' और उनके विलक्षण संपादक रुकुन आडवाणी के बारे में द वायर हिंदी के संपादक आशुतोष भारद्वाज के साथ उनका संवाद.

जब दारा शुकोह ने लिखा, स्‍वर्ग वहीं जहां मुल्‍ला न रहते हों

पुस्तक अंश: दारा ने इस्लाम का गहरा अध्‍ययन किया था. उनकी किताबें अल्लाह और मुहम्मद साहब का उल्लेख करती हैं, लेकिन उन्हें विधर्मी और काफ़‍िर घोषित कर उनकी हत्या कर दी गई.

साहित्य की नागरिकता ऐसी विशाल नागरिकता से घिरी है, जिसे उसके होने का पता ही नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हम जिस हिंदी समाज में लिखते हैं, जिसके बारे में लिखते हैं और जिससे समझ और संवेदना की अपेक्षा करते हैं वह ज़्यादातर पुस्तकों-लेखकों से मुंहफेरे समाज है. उसके लिए साहित्य कोई दर्पण नहीं है जिसमें वह जब-तब अपना चेहरा देखने की ज़हमत उठाए.

आज की राजनीति बुद्धि-ज्ञान-संस्कृति से लगातार अविराम गति से दूर जा रही है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हमारे लोकतंत्र की एक विडंबना यह रही है कि उसके आरंभ में तो राजनीतिक नेतृत्व में बुद्धि ज्ञान और संस्कृति-बोध था जो धीरे-धीरे छीजता चला गया है. हम आज की इस दुरवस्था में पहुंच हैं कि राजनीति से नीति का लोप ही हो गया है.

ज्ञानपीठ ने साहित्य से फेर ली पीठ

ज्ञानपीठ पुरस्कार की 2023 के लिए की गई ताज़ा घोषणा में चर्चित अमृतकाल की अनुगूंज साफ़ सुनी जा सकती है. अकादमियां तो सरकार की छाया में काम करती हैं इसलिए जब-तब शायद विचलित हो जाएं, मगर साहित्य समुदाय में ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा ने बड़ी हलचल पैदा की है. सवाल उठने लगे हैं कि क्या ज्ञानपीठ ने समझौते का रास्ता चुन लिया है?

नामवर सिंह: सत्य के लिए किसी से नहीं डरना चाहिए, गुरु से भी नहीं और वेद से भी नहीं

पुण्यतिथि विशेष: नामवर सिंह आधुनिक कविता और नई कहानी के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण व्याख्याकार हैं. ऐसे व्याख्याकार, जिसने कविता के नए प्रतिमानों की खोज की तो तात्कालिकता के महत्व को भी रेखांकित किया. उनके व्याख्यानों की लंबी श्रृंखला ऐलान करती है कि उन्होंने हिंदी की वाचिक परंपरा को न केवल समृद्ध किया, बल्कि नई पहचान भी दी.

लेखक-गीतकार गुलज़ार और संस्कृत विद्वान जगद्गुरु रामभद्राचार्य को मिला ज्ञानपीठ पुरस्कार

यह 1965 से भारतीय साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए प्रतिवर्ष दिए जाने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार का 58वां संस्करण है. यह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रदान किया जाता है, जिसकी स्थापना 1944 में हुई थी. यह पुरस्कार दूसरी बार संस्कृत के लिए और पांचवीं बार उर्दू के लिए दिया जा रहा है.

कृष्णा सोबती: क्या एक लेखक को उसकी लेखनी से जाना जा सकता है?

जन्मदिवस विशेष: साहित्य में स्त्री की उपस्थिति एक विचारणीय बात है. जिस प्रकार से कला-संस्कृति-समाज सब पुरुषों द्वारा परिभाषित और व्याख्यायित रहे हैं, ऐसे में स्त्री और उसकी भूमिका को भी प्राय: पुरुषों ने परिभाषित किया है. इसीलिए जब स्त्री और उसके इर्द-गिर्द निर्मित संसार को एक स्त्री अभिव्यक्त करती है तो एक अलग दृष्टि-एक अलग पाठ की निर्मिति होती है.

सारे अंधेरे के बावजूद रोशनी का इंतज़ार अप्रासंगिक नहीं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: एक तरह का 'सभ्य अंधकार' छाता जा रहा है, पूरी चकाचौंध और गाजे-बाजे के साथ. लेकिन, नज़र तो नहीं आती पर बेहतर की संभावना बनी हुई है, अगर यह ख़ामख़्याली है तो अपनी घटती मनुष्यता को बचाने के लिए यह ज़रूरी है.

भारत में लोकतंत्र की गिरावट का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा

जो लोग यक़ीन करते हैं कि भारत अब भी एक लोकतंत्र है, उनको बीते कुछ महीनों में मणिपुर से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर तक हुई घटनाओं पर नज़र डालनी चाहिए. चेतावनियों का वक़्त ख़त्म हो चुका है और हम अपने अवाम के एक हिस्से से उतने ही ख़ौफ़ज़दा हैं जितना अपने नेताओं से.

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