राष्ट्रमंडल देशों में रहने वालों के अधिकारों के लिए काम करने वाली ग़ैर-सरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव ने हाल ही में सुरक्षा बलों के हाथों 14 नागरिकों की मौत को लेकर राज्य में तत्काल मानवाधिकार आयोग के गठन की मांग की है.
नई दिल्ली: गैर-सरकारी संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) ने नगालैंड सरकार और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से राज्य मानवाधिकार निकाय स्थापित करने की मांग की है. इससे संबंधित कानून बनने के 28 साल बाद भी नगालैंड राज्य में मानवाधिकार आयोग का गठन नहीं हुआ है.
सीएचआरआई एक गैर-लाभकारी अंतरराष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन है, जो मुख्य रूप से राष्ट्रमंडल देशों में रहने वालों के अधिकारों के लिए काम करता है.
सीएचआरआई ने नगालैंड में सुरक्षा बलों के हाथों 14 नागरिकों की मौत के संदर्भ में ये मांग उठाई है. संगठन ने राज्य में आम नागरिकों की मौत को लेकर शीर्ष मानवाधिकार निकाय द्वारा अधिकारियों को नोटिस और इस संबंध में रिपोर्ट मंगाने की कवायद का स्वागत किया है, लेकिन इसके साथ ही उसने यह भी याद दिलाया कि नगालैंड राज्य में अभी तक अपना मानवाधिकार आयोग नहीं है.
सीएचआरआई ने अपने प्रेस रिलीज में कहा, ‘मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 (पीओएचआरए) के अस्तित्व में आने के 28 वर्षों के बाद भी नगालैंड सरकार ने राज्य मानवाधिकार आयोग की स्थापना नहीं की है.’
उन्होंने हैरानी जताते हुए कहा कि यह स्थिति तब है जब ‘सशस्त्र बल (विशेष अधिकार अधिनियम), 1958 यानी कि आफस्पा नगालैंड राज्य के गठन से पांच साल पहले असम के नगा हिल्स जिले में लागू किया गया था’.
📢 CHRI Statement on Nagaland Killings: urge @India_NHRC & @CmoNagaland to set up the long-pending state human rights commission in Nagaland.
State and Central govt must work together to ensure swift & transparent investigation of the incident.
Read: https://t.co/RttW97JTiS pic.twitter.com/HHOyGwMQoe
— Commonwealth Human Rights Initiative (CHRI) (@CHRI_INT) December 10, 2021
मालूम हो कि नगालैंड में हालिया हत्याओं के बाद से राजनेताओं, सरकार प्रमुखों, विचारकों और कार्यकर्ताओं ने एक सुर में आफस्पा को हटाने की मांग उठाई है. इन्होंने कहा है कि यह कानून सशस्त्र बलों को बेलगाम शक्तियां प्रदान करता है और यह मोन गांव में फायरिंग जैसी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार है.
सीएचआरआई ने एनएचआरसी कानून की विडंबना की ओर भी इशारा किया, जहां सुरक्षा बलों से जुड़ी शिकायतों को लेकर कानून की धारा 19 के तहत मानवाधिकार आयोग सिर्फ केंद्र सरकार से रिपोर्ट मांग सकता है.
एनएचआरसी केवल रिपोर्टों के आधार पर सिफारिशें कर सकता है और उन्हें प्रकाशित कर सकता है.
बीते छह दिसंबर को एनएचआरसी ने मीडिया रिपोर्टों पर स्वत: संज्ञान लेते हुए नागरिकों की हत्या को लेकर केंद्र और नगालैंड सरकारों को नोटिस जारी किया था.
आयोग ने रक्षा सचिव, केंद्रीय गृह सचिव, मुख्य सचिव और नगालैंड के पुलिस महानिदेशक को नोटिस जारी कर छह सप्ताह के भीतर इस मामले में विस्तृत रिपोर्ट मांगी है.
आयोग ने यह भी कहा कि ‘सुरक्षा बलों पर एक मानवीय दृष्टिकोण के साथ उचित एहतियात सुनिश्चित करने का दायित्व होता है, भले ही इसमें आतंकवादी शामिल हों’.
वैसे तो नगालैंड में सुरक्षा बलों के हाथों आम नागरिकों की हत्या की जांच के लिए एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी और एक उच्च स्तरीय विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया गया है, लेकिन सीएचआरआई ने बताता है कि दोनों के अधिकार क्षेत्र के बीच संघर्ष के मामले में, केंद्र सरकार अंतिम मध्यस्थ के रूप में कार्य करती है.
उन्होंने कहा, ‘जहां नागरिक अदालतें शामिल होती हैं, वहां केंद्र सरकार ने सुरक्षाकर्मियों पर विभिन्न अपराधों को लेकर मुकदमा चलाने की मंजूरी को रोकने के लिए आफस्पा की धारा 6 लागू की है.’
संगठन ने कहा कि यह दर्शाता है कि आफस्पा और केंद्र सरकार सुरक्षा बलों को किस हद तक बचाती है.
इसे लेकर सीएचआरआई ने एक फैसले का भी हवाला दिया, जिसमें सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि ‘पुलिस या सशस्त्र बलों द्वारा अत्यधिक बल या जवाबी कार्रवाई की इजाजत नहीं है’.
मालूम हो कि नगालैंड मोन जिले के ओटिंग गांव में गोलीबारी की पहली घटना तब हुई जब सेना के जवानों ने 4 दिसंबर) शाम को एक पिकअप वैन में घर लौट रहे कोयला खदान कर्मचारियों को प्रतिबंधित संगठन एनएससीएन (के) के युंग आंग गुट से संबंधित उग्रवादी समझ लिया. इस घटना में छह लोग मारे गए थे.
पुलिस के अधिकारियों ने बताया कि जब मजदूर अपने घर नहीं पहुंचे तो स्थानीय युवक और ग्रामीण उनकी तलाश में निकले तथा इन लोगों ने सेना के वाहनों को घेर लिया. इस दौरान हुई धक्का-मुक्की व झड़प में एक सैनिक की मौत हो गई और सेना के वाहनों में आग लगा दी गई. इसके बाद सैनिकों द्वारा आत्मरक्षा में की गई गोलीबारी में सात और लोगों की जान चली गई.
पुलिस ने कहा कि दंगा पांच दिसंबर की दोपहर तक खिंच गया, जब गुस्साई भीड़ ने यूनियन के कार्यालयों और इलाके में असम राइफल्स के शिविर में तोड़फोड़ की और इसके कुछ हिस्सों में आग लगा दी. सुरक्षा बलों ने हमलावरों पर जवाबी गोलीबारी की, जिसमें कम से कम एक व्यक्ति की मौत हुई.
इस मामले के कारण पूर्वोत्तर से सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) अधिनियम, 1958 यानी आफस्पा को वापस लेने की मांग एक बार फिर जोर पकड़ने लगी है.