विरोध करना कब से लोकतंत्र और देश विरोधी हो गया?

हॉन्ग कॉन्ग और कश्मीर दोनों ही इस समय इतिहास के एक जैसे दौर से गुजर रहे हैं; दोनों की स्वायत्तता के नाम पर की गई संधि खतरे में है और उनसे संधि करने वाले देशों की सरकार इन संधियों से मुकर रही हैं.

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अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधान हटाए जाने के बाद श्रीनगर के लाल चौक पर तैनात सुरक्षाकर्मी. (फोटो: पीटीआई)

हॉन्ग कॉन्ग और कश्मीर दोनों ही इस समय इतिहास के एक जैसे दौर से गुजर रहे हैं; दोनों की स्वायत्तता के नाम पर की गई संधि खतरे में है और उनसे संधि करने वाले देशों की सरकार इन संधियों से मुकर रही हैं.

Security personnel stands guard during restrictions, in Srinagar. PTI
फोटो: पीटीआई

इस समय हॉन्ग कॉन्ग और कश्मीर दोनों के बारे में दुनिया में चर्चा हो रही है, लेकिन फर्क सिर्फ इतना है, जहां  हॉन्ग कॉन्ग अपने तीन माह लंबे प्रदर्शन और उसके नित नए तौर तरीकों के लिए चर्चा में है; तो कश्मीर सैनिक छावनी बन जाने और प्रदर्शन न करने दिए जाने के कारण.

हालांकि, चीन कब तक हॉन्ग कॉन्ग में यह सब होने देता है, यह एक बड़ा सवाल है. दोनों ही इस समय इतिहास के एक जैसे दौर से गुजर रहे हैं; दोनों की स्वायत्तता के नाम पर की गई संधि खतरे में है. उनसे संधि करने वाले देशों की सरकार इन संधियों से मुकर रही हैं.

फर्क सिर्फ इतना है कि चीन, जहां एकात्मक राज्य और सिर्फ एक ही राजनीतिक पार्टी की सत्ता है, जो तानाशाह की तरह है. वहीं भारत में यह काम संघीय ढांचे और बहु पार्टी वाले लोकतांत्रिक देश की सरकार यह सब कर रही है.

हालांकि, फिर भी कम से कम पिछले कई माह से हॉन्ग कॉन्ग में लाखों लोग प्रदर्शन कर पा रहे हैं. वहीं कश्मीर को छावनी में तब्दील कर दिया गया है. सारे विपक्षी नेता और कार्यकर्ता नजरबंद हैं. विपक्षी पार्टियों को सवाल करने पर भी देशद्रोही करार दिया जा रहा है.

जहां हॉन्ग कॉन्ग में मीडिया स्वतंत्र कवरेज कर पा रहा है, वहीं कश्मीर में मीडिया पर भी पाबंदी है और मुख्यधारा का मीडिया तो जैसे सरकार का भोंपू बना हुआ है.

कश्मीर 3 अगस्त से ऐसी जेल बना हुआ है, जहां आम जेलों की तरह अपनों से मुलाकात की इजाज़त भी नहीं है. वहां की पूरी जनसंख्या के लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए हैं. जब सभी प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं का एक दल स्थिति का जायजा लेने वहां गया, तो उन्हें हवाई अड्डे से ही वापस भेज दिया गया.

वहां के गवर्नर, जो भारत के सरकार के प्रतिनिधि हैं, का कहना है कि विपक्षी दल का वहां जाना देश हित में नहीं है. इससे स्थिति सामान्य बनाने में अड़चन आएगी. इसलिए इन दलों के नेताओं को यहां नहीं आने दिया गया और नागरिकों पर पाबंदी उनकी जान की रक्षा के लिए है.

यानी वो सड़क पर निकलने पर मारे जाएंगे. हालांकि, उन्होंने यह नहीं बताया कि उन्हें कौन मारेगा और किसलिए? वे इस तरह से व्यवहार कर रहे हैं, जैसे वो किसी मध्ययुगीन रियासत के महाराजा हैं.

संविधान नहीं वे तय करेंगे कि देशहित क्या है?  और कौन उनके राज्य में आएगा और कौन नहीं,यह भी वही तय करेंगे. ऐसा लगता है, जैसे अनुच्छेद 370 हटने के बाद वहां लोकतंत्र खत्म हो गया है और उसकी  जगह पर ‘राज्यपालशाही’ आ गई है.

हॉन्ग कॉन्ग और कश्मीर एक तरह से एक ही सूत्र से जुड़े हैं. ब्रिटेन की सरकार के प्रतिनिधियों ने इतिहास में दो अलग-अलग समय में, एशिया में अपने कब्जे के  दो अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों के संबंधो में, दो अलग-अलग देश की सरकार से दो अलग-अलग संधियों पर हस्ताक्षर किए.

पहली संधि 27 अक्टूबर 1947 को उस समय भारत के गवर्नर जनरल माउंट बेटन ( भारत में अंग्रेज सरकार के प्रतिनिधि) ने भारत सरकार की ओर से  जम्मू कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह के साथ की.

और दूसरी संधि, ब्रिटेन एवं आयरलैंड की सरकार ने हॉन्ग कॉन्ग के विषय में चीन के साथ 19 दिसंबर 1984 को. जहां कश्मीर तत्काल प्रभाव से भारत का हिस्सा बन गया, वहीं हॉन्ग कॉन्ग 1 जुलाई 1997 से चीन का हिस्सा बना.

इन दोनों ही संधियों में दो बातें प्रमुख थी: पहला, एक देश दो विधान और; दूसरा, स्वायत्तता. जहां हॉन्ग कॉन्ग ने सिर्फ रक्षा और विदेश मामले में चीन की अधीनता स्वीकार की थी; उसने कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के अधिकार अपने पास रखे थे. यहां तक कि उसका अपना अलग पासपोर्ट, झंडा और मुद्रा भी है. उसकी यह स्वायत्तता 50 सालों के लिए यानी 2047 तक ही है.

वहीं राजा हरि सिंह ने जम्मू कश्मीर के मामले में रक्षा और विदेश मामले के साथ-साथ संचार और कोर्ट के कुछ अधिकार के साथ कुछ अन्य हक़ भी भारत सरकार को दिए थे.

भारत सरकार और जम्मू कश्मीर के तत्कालीन महाराजा के बीच हुए इस वचनपत्र या करारनामे में दिए गए वचन का पालन करते हुए ही संविधान बनने के समय कश्मीर की स्वायत्तता को संरक्षण देने के लिए अनुच्छेद 370 को जोड़ा गया. और वहां की जमीन पर स्थानीय लोगों को संरक्षण देने की अगली कड़ी के रूप में धारा 35 ए को.

संविधान में अनुच्छेद 370 को जोड़ते समय अस्थाई शब्द जरूर जोड़ा गया, लेकिन वो एक शर्त और इस समझ के साथ कि जब ऐसा लगे कि कश्मीर के लोग इस धारा में दिए गए संरक्षण को खत्म करना चाहते हैं, तब वहां की संविधान सभा की सहमति से यह काम किया जा सके. हालांकि, यह अलग बात है कि वहां का संविधान बनाने के बाद ही वहां कि संविधान सभा 26 जनवरी 1957 में ही भंग कर दी गई थी.

चीन ने हॉन्ग कॉन्ग की स्वायत्तता में अड़ंगा लगाने के लिए धीरे-धीरे बदलाव लाना शुरू किया और इसकी अगली कड़ी के रूप में एक प्रत्यर्पण बिल लाई, जिसके तहत अगर चीन सहित किसी अन्य देश में किसी व्यक्ति को अपराधी माना गया है ( इसमें 37 तरह के अपराध शामिल हैं), तो हॉन्ग कॉन्ग से उसका प्रत्यर्पण वहां किया जा सकेगा.

A man covers his eye with a placard as he attends a protest in Hong Kong, China August 30, 2019. REUTERS/Kai Pfaffenbach
हॉन्ग कॉन्ग में प्रत्यर्पण बिल के खिलाफ विरोध जताता एक प्रदर्शनकारी (फोटो: रॉयटर्स)

लोगों को डर है कि चीन की सरकार इसका उपयोग हॉन्ग कॉन्ग में लोकतंत्र ख़त्म करने और अपने खिलाफ होने वाले विरोध को कुचलने के लिए करेगी. वो जब चाहे किसी को भी पकड़कर चीन ले जाएगी, जहां कि न्याय व्यवस्था पूरी तरह से सरकार के नियंत्रण में है.

वहीं भारत की सरकार पिछले 69 सालों से, यानी संविधान बनने के साथ ही, यह काम करते आई है. उसने राष्ट्रपति के आदेश से केंद्र के कानून बनाने अधिकार की 97 एंट्री में से 93 जम्मू कश्मीर पर पहले ही लागू कर दी है.

370 जहां अभी कुछ स्वायत्तता देता था, उससे बड़ी बात थी, वो उसे यह एहसास देता था कि कम से कम वहां की धरती, हवा, पानी उसके अपने थे. वहां कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए उसे खरीदकर, विकास के नाम पर, अपने स्वार्थ के लिए उसका दोहन न कर सके कि उसके पास पैसा है.

जैसा कि उत्तर-पूर्व छोड़कर देश के सभी आदिवासी इलाकों के साथ हुआ. भारत सरकार ने उसका यह एहसास भी एक झटके में खत्म कर दिया. लेकिन कश्मीर की स्थिति हॉन्ग कॉन्ग से बदतर हो गई है और हमारी सरकार चीन से ज्यादा तानाशाह.

यह कैसी विडंबना है: चीन, जो 1989 में बीजिंग के थियानमेन स्क्वायर में लाखों निहत्थे प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सेना का उपयोग कर हजारों आंदोलनकारियों को मौत के घाट उतारने के लिए जाना जाता है. उसके अपने स्वतंत्र रूप से शासित क्षेत्र में लाखों लोग सड़कों पर निकल रहे हैं.

उन्होंने वहां के हवाई अड्डे तक पर कुछ हद तक कब्ज़ा कर लिया था. सड़कों पर प्रदर्शनकारी खुले आम वहां कि पुलिस से भिड़ते नजर आ रहे है. फिर भी न तो किसी की प्रदर्शनकारी की आंख फोड़ी गई और न अभी तक कोई मारा गया और यह सब दुनिया भर का मीडिया दिखा रहा है.

वहीं कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के पहले उसे पूरा खाली करा लिया गया; अमरनाथ यात्रियों से लेकर सारे टूरिस्ट और मजदूरों तक को वहां से बाहर भगा दिया गया. फिर वहां के नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार छीनकर उन्हें एक तरह के ‘वॉर जोन’ में कंटीले तारों और सैनिकों से घेर दिया गया.

उनसे दुश्मन देश के नागरिकों जैसा व्यवहार हो रहा है, लोग जरूरी दवाइयां और अन्य साधनों के लिए तरस रहे हैं. वहां प्रदर्शन तो बहुत दूर की बात है, लोगों को घर से निकलने की इजाजत नहीं है.

हालांकि, अब इस लेख के छपते समय तक चीन के हॉन्ग कॉन्ग में अपनी सैनिक टुकड़ी भेजने की खबरें आने लगी है. जो भी लेकिन कम से कम उन्हें अपने विरोध का कुछ मौका तो मिला और अब कम से कम चीन का सैन्य बल प्रयोग थियानमेन स्क्वायर की तरह न तो असान होगा और न ही छुपाया नहीं जा सकेगा.

लेकिन, भारत सरकार दुनिया को क्या संदेश दे रही है? कि वो अब अपने फैसले के विरोध को देशद्रोह मानती है और भारत में अब लोकतंत्र खत्म हो गया. वो मौका आने पर चीन से भी ज्यादा तानाशाह बन सकती है और किसी को भी अपने इतने बड़े फैसले के विरोध का भी कोई मौका नहीं देगी.

अब यह सवाल 370 और कश्मीर का नहीं है, सवाल भारत में लोकतंत्र रहेगा या नहीं, उसका है.

(लेखक श्रमिक आदिवासी संगठन/समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता हैं.)

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