‘इतनी निष्पक्ष है सशक्त सत्ता कि निष्पक्षता भी रख ले दो मिनट का मौन’

आज जब यह सच्चाई और कड़वी होकर हमारे सामने है कि उस दिन बाबरी मस्जिद को शहीद करने वालों ने न सिर्फ अयोध्या बल्कि शेष देश में भी बहुत कुछ ध्वस्त किया था, यह देखना संतोषप्रद है कि देश के कवियों ने इस सच्चाई को समय रहते पहचाना और उसे बयां करने में कोई कोताही नहीं बरती.

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(फोटो साभार: विकिपीडिया)

आज जब यह सच्चाई और कड़वी होकर हमारे सामने है कि उस दिन बाबरी मस्जिद को शहीद करने वालों ने न सिर्फ अयोध्या बल्कि शेष देश में भी बहुत कुछ ध्वस्त किया था, यह देखना संतोषप्रद है कि देश के कवियों ने इस सच्चाई को समय रहते पहचाना और उसे बयां करने में कोई कोताही नहीं बरती.

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फोटो साभार: विकीमीडिया कॉमन्स

अच्छी बात है कि सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अयोध्या विवाद के अपने सर्वसम्मत फैसले में भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद के उन्मादी कारसेवकों द्वारा छह दिसंबर, 1992 को अंजाम दिए गए बाबरी मस्जिद के ध्वंस की कड़ी निंदा की है.

इस सिलसिले में गौरतलब है कि इन कारसेवकों ने उस दिन सिर्फ बाबरी मस्जिद नहीं ढहाई थी. सांप्रदायिक घृणा के जुनून में उन्होंने कई अन्य सर्वथा अविवादित मस्जिदों पर भी धावा बोला था. ऐसे निर्दोष विधर्मियों की जानें लेने से भी परहेज नहीं किया था, जो उनके आतंक के राज के बीच भी अयोध्या छोड़कर नहीं गए थे और इस विश्वास के सहारे वहां रह रहे थे कि जब वे कारसेवकों के आड़े नहीं आएंगे तो वे उन्हें क्यों सताएंगे?

आज की तारीख में जब यह सच्चाई और कड़वी होकर हमारे सामने है कि उस दिन बाबरी मस्जिद को शहीद करने वालों ने न सिर्फ अयोध्या बल्कि शेष देश में भी और बहुत कुछ ध्वस्त कर डाला था, पीछे पलटकर यह देखना खासा संतोषप्रद है कि देश के कवियों ने इस सच्चाई को समय रहते पहचान लिया और उसे बयान करने में कोई कोताही नहीं बरती थी.

एक सच्चाई यह भी है कि उस वक्त कारसेवकों के सोचे-समझे उत्पात अयोध्या और देश दोनों के लिए ‘सर्वथा नया अनुभव’ थे-पूरी तरह अप्रत्याशित और विचलित करने वाले. लेकिन उसके बाद से अब तक के 27 वर्ष गवाह हैं कि उस दिन उन्होंने ध्वंस की जो ‘नयी परंपरा’ शुरू की थी, वह अब कम से कम इस अर्थ में पुरानी पड़ चुकी है कि इस दौरान उन्होंने उसे टूटने नहीं दिया है.

अकारण नहीं कि अब अयोध्या में एक मान्यता यह भी है कि वहां मूल्यों व मर्यादाओं का ध्वंस लगातार हो चला है. अलबत्ता, इन वर्षों में एक अच्छी बात यह हुई है कि उनके द्वारा प्रवर्तित ध्वंसों द्वारा देश के सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक जीवन में पैदा की गई कई प्रकार की दूरियों-दरारों व सवालों को नाना कोणों से जांचा-परखा, परिभाषित व व्याख्यायित किया जा चुका है.

यहां उन परिभाषाओं और व्याख्याओं को दोहराए बगैर इस संबंधी कवियों लेखकों के नजरिये की चर्चा करें तो जानना जरूरी भी लगता है.

दिलचस्प भी कि छह दिसंबर, 1992 के कोई डेढ़ साल बाद उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के एक गांव में पैदा हुए युवा कवि अदनान कफील दरवेश ने 2017 में अपनी ‘सन् 1992’ शीर्षक कविता की मार्फत उसे अपनी स्मृतियों में इस तरह दर्ज किया था:

जब मैं पैदा हुआ
अयोध्या में ढहाई जा चुकी थी एक कदीम मुगलिया मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद था
ये एक महान सदी के अंत की सबसे भयानक घटना थी

कहते हैं पहले मस्जिद का एक गुंबद
धम्म् की आवाज के साथ जमीन पर गिरा था
और फिर दूसरा और फिर तीसरा
और फिर गिरने का जैसे अनवरत् क्रम ही शुरू हो गया

पहले कीचड़ में सूरज गिरा
और मस्जिद की नींव से उठता गुबार
और काले धुएं में लिपटा अंधकार
पूरे मुल्क पर छाता चला गया

फिर नाली में हाजी हश्मतुल्लाह की टोपी गिरी
सकीना के गर्भ से अजन्मा बच्चा गिरा
हाथ से धागे गिरे, रामनामी गमछे गिरे, खड़ाऊं गिरे
बच्चों की पतंगें और खिलौने गिरे

बच्चों के मुलायम स्वप्नों से परियां चीखती हुईं निकलकर भागीं
और दंतकथाओं और लोककथाओं के नायक चुपचाप निर्वासित हुए

एक के बाद एक
फिर गांव के मचान गिरे
शहरों के आसमान गिरे
बम और बारूद गिरे

भाले और तलवारें गिरीं
गांव का बूढ़ा बरगद गिरा
एक चिड़िया का कच्चा घोंसला गिरा
गाढ़ा गरम खून गिरा

गंगा-जमुनी तहजीब गिरी
नेता-परेता गिरे, सियासत गिरी
और इस तरह एक के बाद एक नामालूम कितना कुछ
भरभरा कर गिरता ही चला गया

‘जो गिरा था, वो शायद एक इमारत से काफी बड़ा था..’
कहते-कहते अब्बा की आवाज भर्राती है
और गला रुंधने लगता है

इस बार पासबां नहीं मिले काबे को सनमखाने से
और एक सदियों से मुसलसल खड़ी मस्जिद
देखते-देखते मलबे का ढेर बनती चली गई

जिन्हें नाज है हिंद पर
हां, उसी हिंद पर
जिसकी सरजमीं से मीर-ए-अरब को ठंडी हवाएं आती थीं
वे कहां हैं?

मैं उनसे पूछना चाहता हूं
कि और कितने सालों तक गिरती रहेगी
ये नामुराद मस्जिद
जिसका नाम बाबरी मस्जिद है
और जो मेरे गांव में नहीं
बल्कि दूर अयोध्या में है

मेरे मुल्क के रहबरों और जिंदा बाशिंदों, बतलाओ मुझे
कि वो क्या चीज है जो इस मुल्क के हर मुसलमान के भीतर
एक खफीफ आवाज में
न जाने कितने बरसों से
मुसलसल गिर रही है
जिसके ध्वंस की आवाज
अब सिर्फ स्वप्न में ही सुनाई देती है!

दरवेश की इस कविता से जहां यह समझा जा सकता है कि छह दिसंबर, 1992 ने हमारी अगली पीढ़ियों के दिलो-दिमाग पर कैसी छाप छोड़ी और उनको किस तरह अंदर-बाहर दोनों से हिला डाला है.

वहीं एक और बात गौरतलब है कि अब देश की सबसे बड़ी अदालत में फैसले की घड़ी में भले ही बाबरी मस्जिद के ध्वंस की आवाज, जैसा कि दरवेश कहते हैं, सिर्फ स्वप्न में ही सुनाई देती हो, 1992 में ऐसा कतई नहीं था.

ठीक है कि हिंदुत्व की अलमबरदार शक्तियां उस वक्त भी अपने इस ‘शौर्य’ पर फूली-फूली और आसमान सिर पर उठाए फिर रही थीं, लेकिन आज जितनी ‘निघरघट’ (अयोध्या और उसके आसपास के अंचल में निर्लज्जतापूर्वक दीदे दिखाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द) नहीं हुई थीं कि कथाकार प्रेमचंद को ‘गलत’ सिद्ध करने के चक्कर में संस्कृति का खोल ओढ़ना छोड़कर खुल्लमखुल्ला अपनी दुहाई देने लग जाएं.

तब उनके ‘नायकों’ को दिखावे के लिए ही सही, इस तथाकथित शौर्य पर ‘थोड़ी-बहुत’ शर्म भी आती थी. इस शर्म को छिपाने के लिए वे बकौल प्रेमचंद ‘उस गधे की भांति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता था’, संस्कृति का, और नहीं तो जो भी खोल आसानी से उपलब्ध होता था, ओढ़ते रहते थे.

चूंकि उन दिनों तक राजनीति या साहित्य की दुनिया में कोई ‘राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन’ नहीं हुआ करता था, इसलिए इन ‘नायकों’ के ‘ध्वंस-धर्म’ के बरक्स उन्हें आईने के सामने लाना ज्यादातर कवियों-लेखकों का सृजन-धर्म बना हुआ था.

कवियों-लेखकों द्वारा यह सृजन-धर्म निभाए जाने की एक नहीं अनेक मिसाले हैं. बटलोई के चावल की तरह उनमें से कुछ को छांटना चाहें, तो सबसे पहले कैफी आजमी की ‘राम का दूसरा बनवास’ शीर्षक नज्म याद आती है, जिसमें उन्होंने ‘शाकाहारी खंजर’ से वार करके ध्वंस को धर्म बनाने में लगे ‘नायकों’ को ‘दोस्त’ के तौर पर संबोधित कर उनकी भरपूर बखिया उधेड़ी थी:

राम बनवास से जब लौटकर घर में आए
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए

रक्से-दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्रीराम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आए

धर्म क्या उनका है, क्या जात है ये जानता कौन
घर ना जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आए

शाकाहारी हैं मेरे दोस्त, तुम्हारे खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता, जख्म जो सर में आए

पांव सरयू में अभी राम ने धोए भी न थे
कि नजर आए वहां खून के गहरे धब्बे

पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम ये कहते हुए अपने दुआरे से उठे
राजधानी की फिजा आई नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे.

दूूसरी ओर निगाह ले जाएं तो हिंदी के दो वरिष्ठ कवियों डाॅ. विजय बहादुर सिंह और नरेश सक्सेना ने छह दिसंबर, 1992 के फौरन बाद की अपनी कविताओं में इन ‘नायकों’ के खोल इस तरह उतार डाले थे कि उनके निर्वसन होने में कोई कसर नहीं रह गई थी.

इस लिहाज से डाॅ. विजय बहादुर सिंह की ‘हम भी बाबर’ कविता उनके कथ्य को प्रख्यात पाकिस्तानी कवयित्री फहमीदा रियाज की नज्म ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले’ के कथ्य से एकाकार करती है. भले ही ‘हम भी बाबर’ को ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले’ जैसी लोकप्रियता हासिल नहीं हुई, उसकी ये पंक्तियां मारकता में अपना सानी नहीं रखतीं:

‘तुम भी बाबर हम भी बाबर, हुआ हिसाब-किताब बराबर.’ यूं, हिसाब-किताब बराबर करने के चक्कर में देश भर में जो कहर बरपा, उसे उन्होंने इस रूप में देखा था:

कहीं कोई चोटी कटी पड़ी है/ कहीं सिसक रही है/जुलेखा की लाश/ खूनाखून हैं सड़कें/दरिंदे अपने विजय जुलूस के साथ/ निकल आए हैं चौराहों तक.

तब नरेश सक्सेना को अपनी ‘छह दिसंबर’ शीर्षक कविता में सोमनाथ में अल्लाह का काम तमाम करने वाले महमूद गजनवी का सैकड़ों बरस बाद जय श्रीराम नारे के साथ प्रकट होना नजर आया था:

इतिहास के बहुत से भ्रमों में से
एक यह भी है
कि महमूद गजनवी लौट गया था

लौटा नहीं था वह
यहीं था
सैकड़ों बरस बाद अचानक
वह प्रकट हुआ अयोध्या में

सोमनाथ में उसने किया था
अल्लाह का काम तमाम
इस बार उसका नारा था
जय श्रीराम.

याद रखना चाहिए, वह ऐसा कठिन दौर था, जिसमें कई लोग कह रहे थे कि आगे चलकर भारत का इतिहास दो भागों में बंट जाएगा. इनमें पहला भाग छह दिसंबर, 1992 के पहले का होगा और दूसरा उसके बाद का.

जाने-माने कथाकार दूधनाथ सिंह अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘आखिरी कलाम’ में महसूस कर रहे थे कि इस तारीख के बाद कारसेवकों के सामूहिक शौचालय में बदल गई अयोध्या जिस तरह निर्धन हो गई है, उसके मद्देनजर अंदेशा प्रबल है कि आगे चलकर वहां सिर्फ ‘पंडे, पुरोहित और परमहंस’ ही रह जाएं.

इस कारण और भी वहां जो अघटनीय घटित हुआ है, उसने मनमानेपन को अखबारों की ‘विचारधारा’ और ‘दर्शन’ में बदल डाला है. उन्होंनें लिखा था कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद उन्हें ‘इस बात का डर नहीं है कि लोग कितने बिखर जाएंगे, डर यह है कि लोग नितांत गलत कामों के लिए कितने बर्बर ढंग से संगठित हो जाएंगे.’

क्योंकि ‘हमारे राजनीतिक जीवन की एक बहुत-बहुत भीतरी परिधि है, जहां सर्वानुमति का अवसरवाद फूल-फल रहा है. वहां एक आधुनिक बर्बरता की चक्करदार आहट है. ऊपर से सब कुछ शुद्ध-बुद्ध, परमपवित्र, कर्मकांडी, एकांतिक लेकिन सार्वजनिक, गहन लुभावन लेकिन उबकाई से भरा हुआ, ऑक्सीजनयुक्त लेकिन दमघोंटू, उत्तेजक लेकिन प्रशांत- सारे छल एक साथ.’

जो लोग खुद को मनुष्य के तौर पर बचा पाए हैं, आज की तारीख में उनके इस डर को अपने चारों ओर न सिर्फ साकार बल्कि बड़ा होता देख सकते हैं. यहां यह नहीं कहा जा रहा कि उन दिनों ‘बुद्धिमत्तापूर्वक’ मौन साध या सन्नाटा ओढ़ लेने वाले, डर के मारे या निहित स्वार्थों में अंधे महानुभाव थे ही नहीं.

वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडेय अकारण नहीं कह रहे थे कि छह दिसंबर, 1992 के बाद हिंदी के युवा साहित्यकारों को अपने वरिष्ठों का वैसा मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, जिसकी वे बाट जोह रहे थे.

‘अयोध्या, 1991’ शीर्षक बहुपठित कविता में उन दिनों के युवा कवि अनिल कुमार सिंह की यह शिकायत भी बेजा नहीं ही थी कि कई महानुभाव अयोध्या पर इसलिए कविताएं नहीं रचते क्योंकि उन्हें उनके ‘कालजयी न हो पाने का अंदेशा’ रहता है, लेकिन ऐसे महानुभावों की ‘बुद्धिमत्ता’ पर प्रहार करने वाले कवियों की मुखरता का पलड़ा तब कहीं ज्यादा भारी था.

डाॅ. विजय बहादुर सिह ने ‘अच्छे नागरिक’ कविता में ‘अपने मतलब से मतलब रखने वाले’ इन ‘बुद्धिमानों’ को ही इंगित करते हुए कहा था:

अच्छे नागरिक
चुप रहते और बर्दाश्त करते हैं.

अच्छे नागरिक
बाजार से लौटकर सीधे अपने घर जाते हैं.

अच्छे नागरिक
किसी बात के गवाह नहीं होते.

अच्छे नागरिक
अपने मतलब से मतलब रखते हैं.

उन दिनों महमूद गजनवी के ‘जय श्रीराम’ नारे के साथ अयोध्या में प्रकट होने को लेकर साहित्यकारों की चिंता का एक रूप यह भी था कि देश में ‘ईश्वर का घर’ भी सुरक्षित नहीं रह गया है. लेकिन इनसे इतर वरिष्ठ कवि प्रकाश चन्द्रायन इंसानों के घरों को लेकर चिंतित थे.

‘इंसान का घर’ शीर्षक रचना में उनकी रक्षा को लेकर ‘सशक्त’ सत्ता की तत्परता और निष्पक्षता को लेकर उन्होंने कई जरूरी सवाल पूछे थे:

जब इंसान का घर तोड़ा जा रहा था,
तब सशक्त सत्ता खड़ी थी निष्कम्प.
जब इंसान बेघर हो गया
और घर मलबा.

तब सशस्त्र सत्ता हिली.
उसने बजाया बूट,
रायफलें तानीं
और गोलियां दाग दीं.

दुनिया ने देखा.
वही मरा, जो बेघर था
जिसका घर ध्वस्त किया गया था-
वही, सिर्फ वही.

इतनी निष्पक्ष है सशक्त सत्ता
कि निष्पक्षता भी रख ले
दो मिनट का मौन.

ऐसा किया जाता है अक्सर,
जैसे 1992 का दिसंबर.

यहां कुबेरदत्त की ‘अयोध्या’ शीर्षक कविता में व्यक्त ‘हे राम’ तक ले जाने वाली बाकर अली की चिंताओं को भी नहीं ही भूला जा सकता:

बाकर अली
बनाते थे खड़ाऊं/अयोध्या में.
खड़ाऊं जातीं थीं
मंदिरों में
राम जी के
शुक्रगुजार थे बाकर अली.

खुश था अल्लाह भी.
उसके बन्दे को
मिल रहा था दाना-पानी
नमाज और समाज/अयोध्या में.

एक दिन
जला दी गई
बाकर मियां की दुकान
जल गईं खड़ाऊं तमाम
मंदिरों तक जाना था जिन्हें/हे राम!

इस प्रतिरोध का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि अयोध्या अंचल में जन्मे और सक्रिय कवियों-लेखकों ने भी हिंदुत्व के उस उन्माद के प्रतिरोध में किसी संकोच या कमजोरी का प्रदर्शन नहीं किया.

इनमें सबसे पहले हिंदी के ‘आत्मजयी’ कहे जाने वाले कवि कुंवर नारायण का नाम लें तो आम तौर पर उन्हें उनकी मिथकीय चेतना के लिए जाना जाता है, लेकिन बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद वे इतने विचलित हुए कि ‘अयोध्या, 1992’ में अयोध्या में प्रभु राम के साम्राज्य के एक विवादित स्थल में सिमट जाने के ‘कटु यथार्थ’ पर चिंता जताते हुए उनसे ‘सविनय निवेदन’ करने लगे कि जंगल-जंगल भटकने के बजाय ‘सकुशल सपत्नीक… किसी पुराण-किसी धर्मग्रंथ में’ लौट जाएं’ क्योंकि ‘अबके जंगल वो जंगल नहीं, जिनमें घूमा करते थे वाल्मीकि.’

हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!

तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस बीस नहीं
अब लाखों सर लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है!

इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य

अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है!

हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग!

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुराण-किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक…
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!

इसे विश्व हिंदू परिषद और भारतीय जनता पार्टी की ही नहीं, समूचे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की बेचारगी कहेंगे कि अयोध्या पर उनके विश्वासघाती आक्रमण की लानत-मलामत में सरयू के इस पार से लेकर उस पार तक साहित्य या संस्कृति कर्मियों की जुबान कहीं भी नहीं लड़खड़ा रही थी.

सरयू के उस पार अदम गोंडवी जैसे जनकवि जहां पहले से ही उन्हें बरजते आ रहे थे कि वे अपनी कुर्सी लिए हिंदू और मुस्लिम के एहसासात व जज्बात से न खेलें और मुगल सम्राट बाबर ने कभी कोई गलती की भी हो तो उसका बदला लेने के लिए जुम्मन का घर न जलाएं.

वहीं इस पार अवधी के लोकप्रिय शायर रफीक शादानी ध्वंस के बाद जब तक इस संसार में रहे, लोगों को सचेत करते रहे कि जब तक ध्वंसधर्मियों को निरस्त्र नहीं कर दिया जाता, भाईचारे की पहले जैसी बहाली मुमकिन नहीं होगी. उनकी कविता थी:

तू चाहत हौ भाईचारा?
उल्लू हौ.
देखय लाग्यौ दिनै म तारा?
उल्लू हौ.

पुरानी पीढ़ी के एक और वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने अपनी ‘बेघर ईश्वर’ शीर्षक कविता में छह दिसंबर, 1992 को मानव इतिहास के ऐसे बर्बर समय के तौर पर देखा था, जिसमें ईश्वर और मनुष्य दोनों असुरक्षित हो उठे थे:

राम धुन गाते खंझड़ी बजाते धर्मांधों को
पता नहीं था
कि वे कहां इस्तेमाल किए जा रहे हैं

जिस नगर में ईश्वर पैदा हुआ था
उसी में वह सबसे ज्यादा
असहाय था
लोग जान चुके थे कि जब वह
अपनी रक्षा करने में ही समर्थ नहीं है
तो हमारे लिए क्या कर सकता है?

विडंबना यह कि
जो ईश्वर कभी दूसरों के दुख दूर करता था
खुद दुख में फंसा हुआ था
उसे एक षड्यंत्र के तहत
अपदस्थ कर दिया गया था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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