आदिवासी बहुल इलाकों में वृहद रूप से बोली जाने वाली गोंडी भाषा का कोई लिखित साहित्य न होने के चलते यह अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. ऐसे में छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र के दो स्कूलों में इस भाषा में प्राथमिक शिक्षा देकर इसे सहेजने की कोशिश की जा रही है.
कांकेर: छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल के कांकेर और कोंडागांव में दो अनोखे स्कूल संचालित हो रहे हैं. ये स्कूल खास इसलिए हैं क्योंकि यहां गोंड समुदाय में बहुतायत बोली जाने वाली गोंडी भाषा पढ़ायी जा रही है.
छह राज्यों में वृहद रूप से बोली जाने वाली गोंडी आज विलुप्ति के कगार पर है. एक जानकारी के अनुसार लगभग 11 करोड़ आदिवासियों की जनसंख्या में 2 करोड़ आदिवासी गोंडी भाषा बोलचाल में इस्तेमाल करते है.
किसी भी समाज की पहचान उसकी संस्कृति के अलावा उसकी अपनी भाषा-बोली से होती है. संस्कृति को सहेजने के अलावा भाषा-बोली को सहेजना भी समाज का कर्तव्य माना जाता है.
ऐसे में आधुनिक शिक्षा की आंधी के बीच आदिवासियों की प्रमुख भाषा गोंडी अपना अस्तित्व बचाने के लिए लड़ रही है.
गोंडी भाषा का कोई लिखित साहित्य या इस भाषा पर आधारित कोई शिक्षा पद्धति न होने से आदिवासियों की मौजूदा और आने वाली पीढ़ियां अपनी ही भाषा के ज्ञान से वंचित हैं.
कांकेर जिला मुख्यालय से 15 किमी की दूरी पर स्थिति सरोना गांव में जंगो रायतार सोसाइटी द्वारा दो ऐसे स्कूलों को संचालित किया जा रहा है, जहां गोंडी पढ़ायी जाती है.
सोसाइटी से जुड़े लोगों ने साल 2015 में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने के लिए इसका गठन किया था. आदिवासी समाज के लोग और समाज के कुछ नौकरीपेशा आपसी सहयोग से इसे संचालित करते हैं.
सोसाइटी द्वारा राज्य के कोंडागांव और कांकेर में एक-एक स्कूल संचालित हो रहा है. कांकेर के सरोना गांव में स्थित स्कूल में पहली कक्षा से चौथी कक्षा तक की पढ़ाई होती है और 80 बच्चे पढ़ते हैं.
वहीं बस्तर के ही कोंडागांव के मसोरा गांव के स्कूल में केजी एक से पहली कक्षा तक पढ़ाई होती है, जहां 41 बच्चे अध्यनरत हैं. इन स्कूलों में सभी विषयों के साथ बच्चों को गोंडी भाषा का ज्ञान भी दिया जाता है. समाज के कुछ लोगों ने गोंडी भाषा में पहाड़े भी लिखे हैं, जो बच्चों को सिखाए जाते हैं.
आखिर क्यों लगा कि इस तरह गोंडी पढ़ाने के लिए किसी नए स्कूल की आवश्यकता है?
जंयो रायतार सोसाइटी के सचिव पिला मरकाम बताते हैं, ‘गोंडी केवल आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा नहीं है, बल्कि गोंडी भाषी क्षेत्र में निवासरत अन्य परंपरागत निवासी भी गोंडी बोलते हैं. तेजी से विलुप्त हो रही इस भाषा को बचाने के लिए हम समाज के लोगों ने इसे पढ़ाने का निर्णय लिया.’
उन्होंने बताया कि ये दोनों स्कूल साल 2016 में शुरू किए गए थे और एक अन्य विद्यालय को खोलने की भी योजना है. उन्होंने बताया, ‘हम कांकेर के पखांजुर क्षेत्र में भी स्कूल खोलने की तैयारी कर रहे हैं. स्कूल पंजीयन का काम इसी वर्ष से शुरू किया है और जल्द ही वहां भी स्कूल खोला जाएगा.’
ये स्कूल अभी निशुल्क ही संचालित हो रहे हैं यानी यहां पढ़ने आ रहे बच्चों से किसी तरह की फीस नहीं ली जाती है. हालांकि बच्चों के आने-जाने की वाहन सुविधा है, जिसका पैसा अभिभावक आपस में इकठ्ठा करके देते हैं.
स्कूल का खर्चा समाज के लोगों द्वारा इकठ्ठा किए गए चंदे से चलता है. इस सोसाइटी के अध्यक्ष बद्दू सलाम बताते हैं, ‘स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों को हम वेतन नहीं दे पाते, लेकिन वे पूरे सेवाभाव से बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं. समाज के कई लोगों से इकट्ठा किए चंदे से हम स्कूल का संचालन करते है और शिक्षकों को कुछ मानदेय दे पाते है.’
बद्दू कहते हैं कि राज्य के बस्तर संभाग में गोंडी बोली भाषा बहुतायत में बोली जाती है इसलिए समाज के प्रबुद्ध गोंड लोगों के द्वारा इस भाषा में प्राथमिक शिक्षा प्रदान की जा रही है.
प्राथमिक स्तर पर इस भाषा को सीखने के महत्व को पिला मरकाम भी मानते हैं. वे कहते हैं, ‘तमाम शिक्षा नीतियों के बावजूद हमारे क्षेत्र के बच्चे शिक्षा में कमजोर हैं. उसका एक कारण उन्हें इनकी भाषा में शिक्षा न देना भी है. बचपन से गोंडी बोलने वाले बच्चों को हिंदी पढ़ाएंगे, तो वे समझ नहीं पाते.’
गोंडी को लेकर उपेक्षित रवैये को सरोना गांव के स्कूल को चलाने वाले सुनील वट्टी भी स्वीकारते हैं. वे बताते हैं, ‘मैं साल 1992 के करीब आरएसएस से जुड़ा था. नियमित शाखा भी जाता था लेकिन वहां देखा कि हमारे बच्चे उनके पास जाते थे, तो उनकी बोली-भाषा को प्राथमिकता नहीं दी जाती थी. इस कारण मैंने वहां जाना छोड़ दिया और जब मौका मिला तो अपने बच्चों को गोंडी की पढ़ाई कराने में सहयोग करने लगा.’
स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे सग्गू मंडावी कहते हैं कि समाज इस भाषा को जानने-बोलने के लिए आतुर हैं. उनका कहना है, ‘क्लास में हर वर्ग के लोग आते हैं और गोंडी भाषा की शिक्षा ग्रहण करते हैं. इसका पूरा श्रेय समाज को जाता है. अभी 80 बच्चे भाषा का ज्ञान सीखते हैं, मुझे बहुत खुशी होती है कि मैं समाज में गोंडी भाषा को लेकर जनजागरूकता फैला रहा हूं.’
जिन राज्यों में गोंडी भाषा बोली जाती है, वहां इसे सहेजने के कई प्रयास चल रहे हैं. साथ ही इसे आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग भी की जा रही है.
साल 2018 में मध्य प्रदेश के बैतूल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मोहन भागवत ने हिंदी-गोंडी शब्दकोश का विमोचन किया था. इसे गोंडी का पहला शब्दकोश बताते हुए दावा किया गया था कि इसमें आठ लाख शब्द हैं.
इसके फ़ौरन बाद ही तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने गोंडी को राज्य की दूसरी राजभाषा बनाने की घोषणा कर दी थी. वहीं सरकार बदलने के बाद मार्च 2019 में मुख्यमंत्री कमलनाथ ने भी कहा था कि अनुसूचित जनजाति बहुल जिलों में गोंडी भाषा को प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में जोड़ा जाएगा.
जुलाई 2019 में छत्तीसगढ़ के स्कूल शिक्षा मंत्री डॉ. प्रेमसाय सिंह ने भी कहा था कि छत्तीसगढ़ी और गोंडी भाषा को प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल करने पर विचार चल रहा है.
हालांकि पिला मरकाम अपने स्कूल के संदर्भ में सरकार से कोई मदद मिलने की बात से इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘हम स्कूल में हिंदी, इंग्लिश के साथ गोंडी भी प्राथमिकता के साथ पढ़ाते है. सरकार को कई बार पत्र लिख चुके हैं, लेकिन गोंडी माध्यम को लेकर अभी तक मान्यता नहीं मिली है.’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)